प्रो भीम सिंह
शेर-ए-कश्मीर के नाम से विख्यात शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने सन् 1947 में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में लालचौक पर केवल तिरंगा ही नहीं लहराया था, बल्कि भारत का राष्ट्रगान जन गण मन गाकर पाकिस्तान को उसके अवैध कब्जे वाला कश्मीर भी खाली करने की चेतावनी दी थी। इसके उलट 2011 में उनके पोते उमर अब्दुल्लाह ने एक ऐतिहासिक त्रासदी को जन्म दे दिया, उन उमर अब्दुल्लाह ने जोकि अपने भाग्य की प्रबलता या जम्मू-कश्मीर में एक से बढ़कर एक लीडरों की सिर फुटव्वल में अकस्मात जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गये थे, कश्मीर में तिरंगा चढ़ाने वालों को कश्मीर में दाखिल होते ही रोक लिया। उमर अब्दुल्लाह ने भारतीय संसद में विपक्ष के दो नेताओं को जम्मू हवाई अड्डे पर अपराधियों की तरह पांच घंटे खड़ा किए रखा। उनका दोष इतना था कि वे भारत के राष्ट्रध्वज को कश्मीर के लालचौक में चढ़ाना चाहते थे। उमर अब्दुल्लाह ने देशद्रोहियों को खुश करने के लिए भारतीय तिरंगे का अपमान करके उनके ऐसे दु:साहस को और बल दे दिया। उन्होंने राष्ट्रीय एकता पर गंभीर प्रश्न खड़ा कर लिया है, जिसे आज भी कांग्रेस पार्टी का सम्पूर्ण सहयोग मिल रहा है।
छह दशक से कुछ राजनीतिक दल जिनमें भाजपा भी शामिल है, जिस नाम पर राजनीति करते आये हैं उसका उद्देश्य ही रहा है वोट बटोरना और सत्ता हथियाना। कांग्रेस इन दलों से एक कदम आगे चली गई। उसने राष्ट्र-समाज को जात-बिरादरी के नाम पर देश को तकसीम करके दूसरे दलों को पछाड़ने की कोशिश की। इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ कि 2010 में बिहार के चुनाव में वहां की जनता ने न सिर्फ सांप्रदायिकता के ज़हर को ध्वस्त किया, बल्कि वहां की मजहब की राजनीति को भी किनारे किया। बिहार ने जातिवाद को विधानसभा चुनाव में उखाड़कर फेंका। बिहार के लोगों का राजनीतिक फैसला नई सरकार को बनाने के लिए सही था या गलत, यह प्रश्न इस संदर्भ में महत्व नहीं रखता। उल्लेखनीय राजनीतिक परिवर्तन यह था कि बिहार के लोगों ने 1975 के लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आह्वान को उन्हीं की मातृभूमि में एक नई रचनात्मक दिशा देकर पूरे राष्ट्र के राजनीतिज्ञों को यह चेतावनी दे दी कि अब लोगों को धर्म, जात-बिरादरी या संप्रदाय के नाम पर विभाजित करना सम्भव नहीं होगा।
दूसरी ओर, जम्मू-कश्मीर की राजनीति, सिर्फ संप्रदाय या जात-बिरादरी के नाम पर ही नहीं, बल्कि साफतौर पर देशद्रोही तत्वों के चंगुल में फंसती हुई नज़र आ रही है और उसके लिए चुनाव या वोट-प्रक्रिया का कोई कारण ही नहीं है। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस 1931 से एक-दूसरे के समर्थक रहे हैं, कई बार इनमें वैचारिक मतभेद भी हुआ, यहां तक कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को 1953 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन वज़ीर-ए-आज़म शेख अब्दुल्ला को स्वयं जेल भेजना पड़ा। कारण यह था कि शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया था, जिस तरह आज उनके पोते यानि उमर अब्दुल्ला ने किया है। भारतीय जनता पार्टी बेशक जम्मू में कुछ क्षेत्रों में सक्रिय रही है, परंतु वह जम्मू-कश्मीर के और कथित विवाद को पूरे भारत की जनता के सामने खड़ा करती रही है। भाजपा नेता अच्छी तरह जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में धर्म के नाम पर उनका नारा लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता।
सन् 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जम्मू-कश्मीर के विषय में भारतीय जनता पार्टी की रणनीति ‘यू‘ टर्न लेती है। जिस शेख अब्दुल्ला को भारतीय जनता पार्टी, जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कातिल समझती रही थी, उन्हीं के पोते उमर अब्दुल्ला को भाजपा ने साउथ ब्लाक में विदेश उपमंत्री की हैसियत से सुशोभित कर किया था। भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस के संबंध भी 21वीं सदी के दरवाजे पर एक नया मोड़ लेकर रह गए। सन् 2002 में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस ने 28 विधायकों वाली नेशनल कांफ्रेंस को तिलांजलि देकर 16 विधायकों वाली मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी को अपने गले से लगा लिया। चूंकि दोनों का बहुमत नहीं बन पा रहा था, इसलिए विवश होकर उन्हें चार विधायकों वाली पैंथर्स पार्टी को भी अपने साथ जोड़ना पड़ा।
जम्मू-कश्मीर के चार कुख्यात पाकिस्तानी आतंकवादियों को जेल से निकालकर भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह जम्मू-कश्मीर से सीधे कंधार ले गए। तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान में जाकर मोहम्मद अली जिन्ना की कब्र पर सजदे किए, जिसकी काफी चर्चा रही। सन् 2008 के चुनावों में कांग्रेस की सहयोगी पीडीपी के विधायक 16 से बढ़कर 22 हो गए और नेशनल कांफ्रेंस के 28 के 28 ही रहे, परंतु कांग्रेस ने पीडीपी को छोड़कर नेशनल कांफ्रेंस के साथ फिर नाता जोड़ लिया। नेशनल कांफ्रेंस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में डॉ फारूख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया था, लेकिन चुनाव पूरे होते ही बेटे ने बाप को जम्मू-कश्मीर से रुखसत होने के लिए कह दिया और स्वयं बन गये मुख्यमंत्री पद के हकदार और कांग्रेस ने भी उन्हें मुख्यमंत्री मान लिया।
एक वर्ष में ही यह बात सारे देशवासियों की समझ में आ गईं कि उमर अब्दुल्ला अभी जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य के मुख्यमंत्री बनने के योग्य नहीं हैं इसका प्रमाण है पिछले दिनों सितंबर में विधानसभा अधिवेशन के दौरान उमर अब्दुल्ला ने खुले तौर पर जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय पर सवालिया निशान लगा दिया। अफसोस की केंद्रीय गृहमंत्री ने भी उमर अब्दुल्लाह का समर्थन किया। कई लोगों का कहना था कि उमर अब्दुल्लाह का जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक जीवन राहुल गांधी के कारण सुरक्षित है और यह धारणा शायद गलत भी नहीं है। उमर अब्दुल्लाह मुख्यमंत्री के तौर पर हर दिशा में नाकामयाब होकर रह गए और इसमें भी कोई शक नहीं कि तकरीबन 40 दिन के 'कश्मीर में पत्थर मारो' आंदोलन के दौरान नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं की बड़ी सक्रिय भागीदारी थी जिनमें सैंकड़ों पत्थर मारने वालों को कुछ दिन पहले ही जम्मू-कश्मीर पुलिस सेवा में भर्ती भी किया गया।
भाजपा के यहां बेशक 11 विधायक हैं, परंतु उनका जनता में कोई विशेष प्रभाव नज़र नहीं आता। भाजपा के संबंध नेशनल कांफ्रेंस के साथ टेबल के ऊपर भी हैं और टेबल के नीचे भी। पिछले दिनों भाजपा के दो विधायकों ने विधान परिषद के सदस्यों के चुनाव के दौरान अपने वोट नेशनल कांफ्रेंस के हक में डाले थे और राज्यसभा सदस्यों के चुनाव के दौरान दो वोट डॉ फारूख अब्दुल्ला को दिये थे, क्योंकि राज्यसभा सदस्यों के चुनाव में वोट देते वक्त उसे जाहिर करना जरूरी है, इसलिए यह तथ्य सामने आया। जब उमर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय को चुनौती दी थी, तो भी भाजपा के विधायकों में विपक्ष की भूमिका नज़र नहीं आई थी। दूसरी ओर भाजपा, उत्तर भारत में कमजोर होती जा रही है। उसके पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसकी रूह से वह पार्टी के कार्यकर्ताओं में कोई नया जोश भर सके। यह बात हर घर में कही जा रही है कि भाजपा, उमर अब्दुल्लाह को ही मुख्यमंत्री रखने के हक में हैं, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में भाजपा को डॉ फारूख अब्दुल्ला और ना ही कांग्रेस का मुख्यमंत्री, 'सूट' करता है।
भाजपा के पास डबल एजेंडा है-जम्मू और उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में हिंदू समुदाय में भाजपा के प्रति एक नया जज़्बा पैदा करना और उमर अब्दुल्ला को कश्मीर के संदर्भ में मजबूत करना। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भाजपा ने चलाई तिरंगे के साथ एकता यात्रा। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार कोई भी व्यक्ति देश में कहीं भी और कभी भी राष्ट्र-ध्वज लहरा सकता है। भारतीय जनता पार्टी ने 1992 में भी ऐसा ही नारा दिया था और तत्कालीन सरकार ने लालचौक के एक कोने में झंडा लहराने का मौका भी दे दिया था। इस बार भाजपा ने ऐलान किया कि वे लहराएंगे तिरंगा लालचौक में और उधर से उमर अब्दुल्ला ने किया जवाबी ऐलान कि वे लालचौक में तिरंगा नहीं चढ़ने देंगे। एक पक्ष का नेतृत्व भाजपा नेता कर रहे थे और दूसरी ओर उमर अब्दुल्ला को राष्ट्रविरोधी तत्वों का नेतृत्व करने का मौका मिल गया।
चौबीस जनवरी को भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा और राज्यसभा के विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली विशेष विमान से जम्मू उतरे, जबकि झंडा लहराना था श्रीनगर में। विमान से निकलते ही विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के इन विपक्षी नेताओं के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया गया और उन्हें वहीं विमान की पटरी पर ही नोंच कर रख दिया। पांच घंटे तक न पानी पीने को दिया गया और ना ही उन्हें टॉयलेट जाने दिया गया। इतनी दुर्गति किसी की भी नहीं होती। उसके बाद उन्हें सड़क मार्ग से 110 किलोमीटर दूर पंजाब की सीमा पर छोड़ दिया गया और 26 जनवरी को जब वे फिर जम्मू-कश्मीर में दाखिल हो रहे थे तो उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया।
उमर अब्दुल्ला ने खुद श्रीनगर में तिरंगा चढ़ाने से इंकार किया और देशद्रोही तत्वों को सीधे-सीधे संदेश दे दिया कि वे अपने पुराने वक्तव्य पर कायम हैं और भारत का झंडा भी अपने हाथों से कश्मीर में नहीं चढ़ाएंगे। इस सारे घटनाक्रम से जो प्रश्न खड़े हुए हैं उनके उत्तर भारत सरकार और भाजपा नेताओं को देने ही होंगे कि क्या तिरंगे पर राजनीति की जा सकती है? भाजपा का यह फैसला कि श्रीनगर के लालचौक में झंडा चढ़ाएंगे, कई मायने रखता है जबकि कश्मीर का भारत से वही संबंध है, जो लालकिले का संबंध भारत से है। यह भी प्रश्न उठता है कि क्या उमर अब्दुल्लाह किसी और व्यक्ति या संस्था को राष्ट्रध्वज लहराने से रोक सकते हैं? क्या यह कृत्य संविधान का उल्लंघन नहीं है? राष्ट्रध्वज राष्ट्र की गरिमा है और इसकी सुरक्षा और सम्मान बनाये रखना केंद्र सरकार का परम कर्तव्य है। क्या भारत सरकार की इस संदर्भ में खामोशी राष्ट्रध्वज का निरादर नहीं है? क्या भारत सरकार, भाजपा के नेता और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री, तीनों ही तिरंगे के अपमान के दोषी नहीं हैं? क्या इन तमाम घटनाओं के बावजूद कांग्रेस-नेतृत्व उमर अब्दुल्ला के 28 विधायकों को, जो विधानसभा में एक-तिहाई से भी कम हैं, अपना समर्थन देती रहेगी? कांग्रेस के लिए सरकार जरूरी है या राष्ट्रीय एकता?
(लेखक, नेशनल पैंथर्स पार्टी के अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य हैं)