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नागालैंड में गरजती बंदूकें

एनके राजू

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कोहिमा। भारत का पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड बंदूक की भाषा बोल रहा है। यहां पर सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम बंदूक से तय हो रहे हैं। निर्वाचित जनप्रतिनिधि हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं या विद्रोही गुटों के चापलूसी में लगे हुए हैं। रॉक बैंड संगीत का बेहद शौकीन यह राज्य यूं तो अपनी अलग संस्कृति के कारण बहुत मनोहारी है लेकिन यहां पर सत्ता में भागीदारी के लिए संघर्ष और अलगाववादियों की गतिविधियां इसका सारा मजा किरकिरा किए हुए हैं। यहां हुए विधानसभा चुनाव में नगालैंड में डेमोक्रेटिक एलाइंस ऑफ नागालैंड ने सबसे ज्यादा सीटें जीती हैं। नागालैंड पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) दूसरे नंबर पर और कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही है। इन सभी दलों पर किसी न किसी विद्रोही गुट का प्रभाव देखा जा सकता है।
नागालैंड में ग्यारह जिले हैं और साठ विधानसभा सीटें हैं। यहां का वार्षिक बजट करीब ढाई हजार करोड़ रुपये का होता है। इस राज्य की मुख्य समस्या सड़क, पानी और स्वास्थ्य सेवाएं हैं जिनमें जनप्रतिनिधियों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। यह कोई बताने को तैयार नहीं है कि इतने बड़े बजट के बावजूद नागालैंड में यह जन सुविधाएं क्यों नहीं है। दीमापुर और उसकी पहाडि़यों में चुनाव प्रचार देखकर लग रहा था कि यहां विद्रोही गुटों ने किस प्रकार अपना असर कायम किया हुआ है और वह चुनाव की शांति प्रक्रिया में बाधा डालने के लिए चौबीसों घंटे तैयार रहते हैं।
नागालैंड में विद्रोहियों और विघटनकारियों की गतिविधियां कोई नई बात नहीं है। काफी समय से यहां नगा विद्रोही दूसरे देशों के उकसावे में आकर अपनी हिंसक गतिविधियों को अंजाम देते हुए आए हैं। इन्हीं के समर्थन से और विरोध से नागालैंड की सरकार में उलटफेर होता रहता है। नगा पीपुल्स फ्रंट की भाजपा से मिलीजुली सरकार बन चुकी है इस बार भी यह फ्रंट गठबंधन के रास्ते नागालैंड में सरकार बनाने की कोशिश करता दिखाई दिया और वही हुआ कि जैसी संभावना थी। यहां त्रिशंकु विधानसभा आ गई है।
राज्य में चुनाव-प्रचार देखकर और चुनावी सभा में मौजूद लोगों को देखकर नहीं लगता कि यह राज्य भी बंदूकों के बल पर चल रहा है लेकिन सच यही है। नेताओं के भाषण से पहले उम्मीदवार सुरमधुर संगीत का सहारा लेते देखे गए जिससे भीड़ इकट्ठी होती है और उसके बाद राजनेताओं के भाषण शुरू होते हैं जहां संगीत नागालैंड के लोगों के जहन में इस हद तक जगह बनाए हुए है वहां बंदूकें भी गरजतीं हों यह एक अजीब सा संयोग है। नागालैंड में कई ऐसे नेता हुए हैं जिन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया लेकिन विद्रोहियों ने उन्हें लोकतंत्र के रास्ते पर चलने नहीं दिया। यहां की नियति बन चुकी है- मामूली बात पर सरकार से अलग होना, इस्तीफा देना और विद्रोहियों से जाकर मिल जाना। केंद्र सरकार समय-समय पर इसके उपाय करती रही है लेकिन वह विद्रोही गुटों के बीच जाने में इसलिए कमजोर है कि उसे वहां के सभी दलों के नेताओं का समर्थन चाहिए जो कि वहां की स्थिति को देखते हुए संभव नहीं हो पाता है। इसलिए केंद्र को भी वहां चौबीस घंटे सतर्क रहना होता है।
नागालैंड के लोग शांति चाहते हैं लेकिन यह उनकी मजबूरी है कि वह नगा विद्रोहियों को नाराज न करें क्योंकि अंततः उन्हें उन्हीं के बीच में दिन-रात रहना है। जहां तक वहां के नेताओं का प्रश्न है तो वह अपनी स्थिति को देखकर ही लोकतंत्र पर चलने या न चलने का निर्धारण करते हैं जिससे उनकी स्थिति भी दो नाव की सवारियों जैसी बनी हुई है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल ही में हुए यहां चुनाव में नागालैंड के युवाओं को मुख्यधारा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और कहा कि नागालैंड में युवा शांति का माहौल बनाए रखने में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। उन्होंने कहा कि नागालैंड में कांग्रेस ने काफी कुछ किया है। नागालैंड और एक दो अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में यह धारणा बनती जा रही है कि यहां पर राजनीतिक महत्वकांक्षाए पूरी नहीं होने के कारण यहां के कुछ प्रभावशाली नेता विघटन की भाषा बोलने लगते हैं और निर्वाचित सरकारों को गिराने में लग जाते हैं। यह अलग बात है कि इसका सबसे ज्यादा नुकसान भी इन्हीं लोगों को होता है।

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