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सूचना आयोग का दंड पर पुनर्विचार विधि के विरुद्ध

उच्च न्यायालय की खंडपीठ का महत्वपूर्ण फैसला

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लखनऊ। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग और अन्य के विरुद्ध दायर, नेशनल आरटीआई फोरम की संयोजक डॉ नूतन ठाकुर की रिट याचिका का निस्तारण करते हुए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति फर्डिनो रिबेलो और न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह की पीठ ने स्पष्ट शब्दों में निर्णित किया कि उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग को अपने पूर्व के निर्णय, जिसमे दंड देने का प्रावधान भी शामिल है, पर पुनर्विचार करके उसे बदलने का अधिकार नहीं है।

उच्च न्यायालय ने डॉ ठाकुर के इस तर्क को पूर्णतया स्वीकार किया कि अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का अधिकार मात्र उन्ही न्यायिक, अर्द्धन्यायिक और प्रशासनिक संस्थाओं को है जिन्हें यह अधिकार स्पष्ट रूप से विधि के माध्यम से प्रदत्त किया गया हो। उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग को किसी कानून के अंतर्गत अपने निर्णयों को बदलने का अधिकार नहीं है, अतः उनका ऐसा किया जाना विधिसम्मत नहीं है, यह स्थापित विधि है और तदनुसार यह बात आयोग द्वारा स्वयं दंड दे कर उसे वापस कर लेने के अधिकार पर भी लागू है।

डॉ नूतन ठाकुर ने रिट में अपने पति और आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर से संबंधित दो ऐसे प्रकरण प्रस्तुत किये थे जिनमे उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग ने धारा 20(1) और 20(2) के अंतर्गत दंड का निर्धारण किया और बाद में उसे नियमों के विरुद्ध स्वयं ही बदल दिया। इनमें से एक मामला वार्षिक गोपनीय प्रविष्टि और दूसरा उनके स्टडी लीव से संबंधित था। उत्तर प्रदेश में सूचना का अधिकार-अधिनियम में सूचना आयोग की इस प्रकार अपने निर्णयों को बदलने की प्रवृत्ति के संबंध में यह एक महत्वपूर्ण निर्णय है।

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