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जामिया के संस्थापक नहीं हैं डॉ जाकिर हुसैन!

अल्पसंख्यक चरित्र को बहाल होने की चौतरफा खुशी

खुर्शीद आलम

जामिया मिलिया इस्लामिया-jamia millia islamia

नई दिल्ली। नेशनल कन्वेंशन फॉर माइनॉरिटीज एजूकेशनल इंस्टीट्यूट (एनसीएमईआई) ने जामिया मिलिया इस्लामिया के अल्पसंख्यक चरित्र को बहाल करने के फैसले को एक ऐतिहासिक निर्णय के रूप में लिया है। इस फैसले से जामिया में मुस्लिम छात्रों को दाखिले में 50 फीसदी आरक्षण का हक हासिल हो गया है। जामिया मिलिया इस्लामिया इस समय मुसलमानों के बीच काफी चर्चा में है और उससे जुड़ी पुरानी यादें और विवाद भी सामने आ रहे हैं। सबसे खुशी की और महत्वपूर्ण बात यही है कि इसका मूल चरित्र बहाल हुआ है।

जामिया मिलिया इस्लामिया के अल्पसंख्यक चरित्र का मामला उस समय पैदा हुआ था जब 1955 में केंद्रीय सरकार ने संसद से एक कानून पारित कर इसे सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया था, उस समय उसका अल्पसंख्यक चरित्र खत्म कर दिया गया था। सन् 1955 के उस कानून के अनुसार यह एक सामान्य यूनिवर्सिटी थी। मामले में 2006 में मोड़ आया जब केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जामिया मिलिया इस्लामिया को 27 फीसदी ओबीसी कोटा लागू करने का निर्देश दिया। जामिया ने इस आदेश के खिलाफ नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटीज एजूकेशनल इंस्टीट्यूट में अपील दायर की। जामिया में पहले से ही 22.05 फीसदी सीटें एससी/एसटी 25 फीसदी इंटरनल और तीन फीसदी सीटें विकलांग छात्रों के लिए आरक्षित थीं। ओबीसी कोटा लागू करने से यह कोटा 50 फीसदी से बढ़ जाता जो सुप्रीम कोर्ट से निर्धारित सीमा से ज्यादा हो जाता।

अठ्ठारह सुनवाई के बाद एनसीएमईआई ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि उसे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि जामिया मिलिया इस्लामिया को मुसलमानों के फायदे के लिए मुसलमानों ने ही कायम किया था और कभी भी इसने अपना मुस्लिम चरित्र नहीं खोया है। कमीशन के चेयरमैन जस्टिस सुहैल एज़ाज़ सिद्दीकी ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संविधान की धारा 30 (1) के तहत जामिया मिलिया इस्लामिया एक अल्पसंख्यक संस्था है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्था घोषित किया जाए। फैसले के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति नजदिव जंग ने इसे अगले शैक्षिक सत्र में लागू करने का भरोसा दिलाया है और कहा है कि चूंकि 2012-12 के प्रॉस्पेक्टस आदि सामग्री छप चुकी है, इसके अतिरिक्त भी इसे लागू करने में कुछ बाधाएं हैं जिन्हें दूर किया जाएगा, इसलिए यह आगामी सत्र से ही लागू हो पाएगा।

फैसले के अनुसार जहां 50 फीसदी सीटें मुस्लिम समुदाय के लिए आरक्षित होंगी वहीं 50 फीसदी सीटें सामान्य कोटे के तहत भरी जाएंगी, तब एससी/एसटी आरक्षण बाकी नहीं रहेगा। जामिया के कुलपति का बयान अखबारों में सुरक्षित है जिसमें उन्होंने कहा है कि जामिया का सेकुलर चरित्र बरकरार रहेगा। सवाल यह है कि किसी शैक्षिक संस्था में सेकुलर चरित्र का अर्थ क्या है और जामिया मिलिया में यह कहां से आया? सन् 1988 में जामिया को सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा देते समय उसकी अंजुमन (संस्था) का उर्दू से अंग्रेजी अनुवाद किया गया और तब जामिया के मेमोरंडम ऑफ एसोसिएशन में दर्ज दीनी और पुनभावी शिक्षा की जगह अंग्रेजी में धार्मिक और सेकुलर अनुवाद किया गया। यहीं से सेकुलर चरित्र की बात चल पड़ी, जबकि इसके पूर्व लगता है कि ऐसी कोई बात नहीं थी। फाना वाच डॉट कॉम के संपादक एवं दिल्ली मामलों के जानकार क्यू आसिफ कहते हैं कि दुंत्यावी शब्द का अंग्रेजी में सेकुलर अनुवाद किसी तरह सही नहीं है।

उनका कहना है कि एनएमसीईआई के फैसले के बाद जिस तरह कुछ लोगों में क्रेडिट लेने की होड़ मची है, वह उस समय कहां थे जब संसद में इस पर जोरदार बहस चल रही थी? तब अकेले जिस व्यक्ति की आवाज़ सुनी गई, वह कोई और नहीं बल्कि भाजपा के नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, जिनका सवाल था कि जामिया का जो विधेयक संसद में चर्चा का विषय है उसमें जामिया के ऐतिहासिक चरित्र का तो कोई जिक्र ही नहीं है। जाहिर सी बात है कि जामिया का यह ऐतिहासिक चरित्र इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था कि 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिए जाने के बाद तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व विशेषकर खिलाफत आंदोलन की अगुवाई कर रहे अलीग बंधुओं को यह एहसास था, कि एएमयू अब पूरी तरह अंग्रेजों के कंट्रोल में चला जाएगा और यहां से स्वतंत्रता संग्राम के मतवालों को भी आवाज़ उठाने की अनुमति नहीं होगी।

यही वह सोच थी जिसके तहत एक अलग मुस्लिम शिक्षण संस्था की 29 अक्टूबर 1920 को स्थापना हुई, जिसका नाम जामिया मिलिया इस्लामिया पड़ा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कैंपस में शुरू होने वाली जामिया को दिल्ली के करोल बाग लाया गया, बाद में ओखला और तब से यहीं पर यह यूनिवर्सिटी स्थापित है। ख्याति प्राप्त आलिम दीन और स्वतंत्रता सेनानी जो नालंदा की जेल से रिहा हुए थे ने इसकी बुनियाद रखते हुए कहा था कि इसका मकसद मुसलमानों की शिक्षा मुसलमानों के हाथों में रखना है। जामिया की स्थापना से लेकर 1938 तक जामिया के प्रॉस्पेक्टस में उसका यह उद्देश्य लिखा जाता रहा है, लेकिन 1939 में डॉ जाकिर हुसैन ने जामिया का कुलपति बनने के बाद जामिया की अंजुमन के पंजीकरण के समय उसके उद्देश्य में थोड़ा संशोधन कर दिया। तब उसमें यह बात दर्ज की गई कि इसकी स्थापना का असल मकसद हिंदुस्तानी विशेषकर मुसलमानों को दीनी एवं दुनभावी शिक्षा देना है।

सन् 2006 के अंत में जब प्रोफेसर मुशीहल हसन जामिया के कुलपति थे, तब जामिया टीचर्स एसोसिएशन, जामिया स्टुडेंट्स यूनियन और जामिया ओल्ड ब्वायज़ एसोसिएशन ने अलग-अलग याचिका दायर कर कमीशन से अनुरोध किया कि वह जामिया मिलिया को अल्पसंख्यक होने का दर्जा प्रदान करे। तत्कालीन रजिस्ट्रार एसएम अफजल ने इसका विरोध किया क्योंकि मुशीहल हसन इसका विरोध कर चुके थे, लेकिन वर्तमान रजिस्ट्रार एसएम साजिद ने अपने शपथ-पत्र में स्वीकार किया है कि जामिया अल्पसंख्यक संस्था थी और है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कमीशन में याचिका दाखिल कर मांग की कि इस मामले की सुनवाई उस समय तक स्थगित रखी जाए जब तक सुप्रीम कोर्ट, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से संबंधित इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इसकी और यूनिवर्सिटी की अपील पर कोई फैसला न दे।

कमीशन ने अपने फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जामिया मिलिया से तुलना करते हुए कहा कि 1920 में जब एक एक्ट के तहत मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी उस समय एमएओ कॉलेज तो था, लेकिन मुस्लिम यूनिवर्सिटी का वजूद नहीं था। इसलिए यह कहा जाएगा कि यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कायम हुई है जबकि जामिया मिलिया के मामले में यह सूरते हाल नहीं थी। इस आधार पर कमीशन ने इस आपत्ति को निरस्त कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक इंतजार किया जाए, लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्था होने में इस आधार पर कोई ज्वेंट नहीं किया जा सकता। इसका चरित्र और प्रबंध शुरू दिन से मुसलमानों के हाथों में ही है। कई धारा वजूद में आने वाली यूनिवर्सिटी इसी एमएओओ कॉलेज की नई शक्ल है जो अल्पसंख्यक संस्था है।

एनसीएमईआई ने अपने फैसले में जामिया की स्थापना पर चर्चा करते हुए लिखा है कि किस तरह पहले अलीगढ़ में 1920 में जामिया को कायम किया गया, फिर उसे दिल्ली लाया गया। सन् 1939 में इसे सोसाइटी एक्ट के तहत पंजीकृत कराया गया। इस बात का विशेष तौर से जिक्र किया गया है कि जामिया कॉलेज को ब्रिटिश सरकार से मदद हासिल थी जबकि जामिया मिलिया इस्लामिया खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन के नतीजे में कायम हुआ। जामिया के संस्थापक संस्था के प्रबंध को सरकारी हस्तक्षेप से आजाद अपने हाथ में रखना चाहते थे।

जामिया मिलिया इस्लामिया इस प्रसंग में अकेली यूनिवर्सिटी है जहां अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस विश्वविद्यालय की तरह किसी एक संस्थापक के बजाए संस्थापकों की शब्दावली प्रचलित है, जबकि वास्तविकता यह है कि 29 अक्टूबर 1920 को जामिया की स्थापना के समय 92 सदस्यीय फाउंडेशन कमेटी गठित हुई थी, जिसमें सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर मौलाना मोहम्मद अली जौहर को इसका संस्थापक बताया गया था। कमेटी सदस्यों में शेरवुल हिंद मौलाना महमूद हसन, हकीम अजमल खां, डॉ मुख्तार अहमद अंसारी, अब्दुल मजीद ख्वाजा, मुफ्ती किफायत उल्लाह, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और महात्मा गांधी के नाम उल्लेखनीय हैं। सन् 1920 से 1938 तक मौलाना जौहर का नाम संस्थापक के तौर पर आता रहा लेकिन बाद में संस्थापकों की शब्दावली का इस्तेमाल कर उसमें डॉ जाकिर हुसैन का नाम शामिल कर दिया गया।

डॉ जाकिर हुसैन तो 1925 में जर्मनी से आए थे। निःसंदेह उन्होंने जामिया को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जामिया को आर्थिक संकट से निकालने के लिए संस्था के सदस्यों ने एक शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर किया जिस पर लिखा था कि वह 20 साल तक 150 रुपए मासिक से ज्यादा वेतन नहीं लेंगे और जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाएंगे। स्वयं डॉ जाकिर हुसैन ने अपना वेतन 150 रुपए से कम कर 40 रुपए मासिक कर वह कुर्बानी दी जिसकी मिसाल शायद ही किसी संस्था में देखने को मिले। उनका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखने लायक है लेकिन इसके बावजूद वह उसके संस्थापकों की सूची में शामिल नहीं हो सकते।

आश्चर्य तो इस बात पर है कि जामिया के कुछ लोग अपने हित के चलते मोहम्मद अली जौहर जैसे स्वतंत्रता सेनानी को जिन्हें महात्मा गांधी ने भारत की आजादी दिलाने से संबंधित लंदन की गोल मेज कांफ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था, जिन्होंने वहां अपने भाषण में कहा था कि ब्रिटेन हमें आजादी का परवाना दे अन्यथा हम गुलाम देश में मरना पसंद नहीं करेंगे, कांफ्रेंस के दौरान ही उनकी मृत्यु भी हो गई और उन्हें फिलीस्तीन में दफन कर दिया गया, की भूमिका को नकारने में लगे हैं। मुंबई से प्रकाशित 'उर्दू टाइम्स' ने भी जामिया का संस्थापक डॉ जाकिर हुसैन और उनके साथियों को बताकर सच्चाई के छिपाने की जो कोशिश की है वह निश्चय ही निंदनीय है और पत्रकारिता मूल्यों के विरुद्ध भी है।

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