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जीवन रेखा पर खड़ा दैत्य!

रवि श्रीवास्तव

यातायात-traffic

यातायात हमारे दैनिक जीवन की सबसे तेजतर्रार और ज्यादा महत्वपूर्ण जीवन शैली है। यूं भी कह सकते हैं कि यह हमारी जीवन रेखा है, जिस पर आज भारी दबाव महसूस किया जा रहा है। समय जीवन और मृत्यु के इस बेरहम और ताकतवर गठजोड़ का सामना करने में हम बहुत कमजोर पड़ते जा रहे हैं। इसके विस्फोट में रोज न जाने कितनी मासूम जिंदगानियां फिर कभी घर वापस नहीं लौटती हैं। सबसे तेज चलने और आगे निकलने की जल्दी में कितने परिवार हैं जिन्हें इस जीवन रेखा पर से बटोरने वाला और उठाकर तर्पण के लिए ले जाने वाला ही नहीं बचा।
ऐसी वीभत्स और डरावनी दुर्घटनाएं हम रोज़ न देखते और सुनते होते यदि यातायात हमारी प्राथमिक शिक्षा में ही शामिल हुआ होता। तब शायद यातायात पर हमारी जागरुकता का स्तर ज्यादा सुरक्षित और योजनाबद्घ होता। तब यह विकराल दैत्य सा नहीं लगता। यातायात की अधकचरी योजनाएं बनाने वालों और उसे नियंत्रित करने वालों की इसमें जितनी जिम्मेदारियां हैं, उससे ज्यादा हम जिम्मेदार हैं। इसमें हमारा असहयोग जिम्मेदार है। महानगरीय यातायात व्यवस्था हो या राजमार्ग, हमारे सामने जैसे बबूल के कांटे बिखरे हुए हैं, जिनसे बचने की जल्दबाजी हमें सीधे मौत के रास्ते पर धकेल देती है। जैसे-जैसे जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है वैसे-वैसे यातायात आपे से बाहर ही होता जा रहा है। दुर्घटनाओं में लोग कुत्ते और बिल्ली की तरह मर रहे हैं। और दूसरे लोग गुस्से में पराई संपत्तियों को आग लगा रहे हैं। इधर कुछ ज्यादा ही शुरू हो गया है कि मार्ग दुर्घटना होने पर उस रास्ते से गुजर रहे सामान से भरे वाहन पलक झपकते ही आग के हवाले किये जा रहे हैं। यह आग लगाने वालों में वो सबसे ज्यादा दिख रहे होते हैं जो उस उस घटना से दूर तक भी प्रभावित नहीं हैं। हाल के दिनों में ऐसी ही अजनबी भीड़ की हिंसक प्रतिक्रिया सामने आई है जिसने सभी को चिंता में डाल रखा है।
दो ढाई दशक पहले यातायात का इतना खतरनाक रूप और दबाव कहां था? लेकिन भविष्य में इसके असहनीय दबाव की चेतावनी को हम और हमारे नीति नियंता नजरअंदाज करते गए जिसके परिणाम हमारे सामने हैं। घर सही सलामत पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है। सड़कों पर अनियंत्रित यातायात का हर व्यक्ति शिकार है। यातायात नियमों के कोई मायने नहीं रह गए हैं। किसी अति विशिष्ट व्यक्ति का आगमन तो यातायात पर आफत बनकर टूटता है। मार्ग बदल दिये जाते हैं, लोग भटक जाते हैं। कोई मरीज है तो उसके जीवन के लेने के देने भी पड़ जाते हैं। हर समय यातायात पुलिस और सड़क पर गुजर रहे व्यक्ति के बीच मारपीट नोक-झोक होती ही रहती है। सभी जगह यह हाल है।
एक समय था जब किसी दुर्घटना में लोग मदद के लिए दौड़ा करते थे, पर आज आदमी सड़क पर टकराकर पड़ा रहता है और कोई भी उसे देखने या अस्पताल पहुंचाने की कोशिश भी नहीं करता। एक तो वह उदासीन है और दूसरे उसे यह भी डर है कि कहीं वह व्यक्ति उल्टे उसके गले न पड़ जाए। अब तो सड़क पर पडे़ व्यक्ति को देखकर भी कोई नहीं रुकता। यदि कहीं सरकार या स्वयंसेवी संस्थाएं यातायात पर जागरूकता पैदा करने की कोशिश कर रही हैं तो उसमें भी अड़ंगे हैं। इसलिए यह समस्या एक खराब कानून व्यवस्था की जगह ले रही है। अब तो यह समस्या यातायात नियंत्रण करने वाली एजंसियों के लिए आमदनी का बड़ा जरिया बनती जा रही है। माल वाहनो से दिन दहाड़े गुंडों की तरह जबरन धन वसूली और वाहनों के इससे बचकर भागने की कोशिश में रोजाना कितने ही मासूम काल के गाल में समा रहे हैं। लेकिन यह जानलेवा लूट बदस्तूर जारी है। भारी वाहन वाले मार्गों पर पोस्टिंग के लिए मारामारी होती है।
अपने बच्चे को कम उम्र में ही कार या मोटरसाइकिल सिखाना, खरीदकर देना और उस पर एक उन्माद के साथ सवार होकर जानलेवा करतब दिखाना खुद के लिए तो है ही दूसरों के लिए भी जानलेवा साबित होता है। इसे मां-बाप उसमें प्रतिभा पराक्रम एवं शौर्य समझकर उस पर मन्त्रमुग्ध होते हैं। इससे प्रसन्न होकर बच्चे की कार या मोटरसाईकिल की रफ्तार दिनों दिन बढ़ रही है। इसका परिणाम यह होता है कि एक दिन उसका जुनून या तो दूसरों की जान ले लेता या अपनी जान गवां देता है। सोचिए! यह परिणाम किसे मंजूर होगा? और इसके लिए सर्वप्रथम जिम्मेदार कौन हुए? वैसे भी कानूनी तौर पर 18 वर्ष से कम आयु पर ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बन सकता तो फिर उसे बाईक दी क्यों गई? माना कि वह दुर्घटना किसी दूसरे की गलती से हुई तो यह बात कानूनी रुप से कैसे सिद्घ करेंगे? इस स्थिति में सारा दोष उस कम उम्र के बच्चे पर ही जायेगा। दूसरे उसके पास ड्राइविंग लाइसेंस भी नही है इसलिए यदि उस बच्चे का कोई बीमा भी है तो उसका लाभ भी उसे नहीं मिल सकेगा। इसलिए बच्चे के बाईक चलाने के पराक्रम पर मुग्ध होने की अभिभावक की खुशी कितनी मंहगी हो सकती है इसका अभिभावक को अहसास होना चाहिए। कम उम्र में ड्राइविंग लाइसेंस हासिल कर लेना स्टेटस आफ सिम्बल हो गया है।
एक रिर्पोट के अनुसार विश्व में करीब 20 लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं। चीन के बाद भारत में सबसे ज्यादा व्यक्ति मरते हैं। जहां तक संपत्ति के नुकसान का सवाल हैं तो वह अलग और बेतहाशा है। उसका आकलन भी करोड़ों रुपये के नुकसान तक है। आंकडे यह भी बताते हैं कि इतने लोग हिंसा या हत्याओं मे नहीं मर रहे जितने कि सड़क दुर्घटनाओं मे मरते हैं। कहने को सड़क सुरक्षा वर्ष और सुरक्षा सप्ताह भी मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए जो कार्यक्रम बनाए हुए हैं उनका दूसरे देशों ने भले ही लाभ उठाया हो लेकिन हमारे देश की महान जनता को ऐसे कार्यक्रमों से कोई सरोकार नहीं दिखता। यदि स्कूल या स्वयंसेवी संस्थाएं यातायात के प्रति जागरुकता पैदा करने का अनवरत अभियान शुरु करेंगे तो निश्चित रुप से उसकी प्रेरणा उन तक
पहुंचेगी जो यातायात के प्रति बेपरवाह हैं। शायद फिर लोग मानव जीवन के मूल्य को समझें जो दुनिया में दोबारा मिलना दुर्लभ माना जाता है।

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