दिलीप कुमार सिन्हा
लखनऊ। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भूमि अधिग्रहण के कई मामलों को रद्द करके उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। इससे घबराए निवेशकर्ताओं और बिल्डरों ने भी ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण को घेरना शुरू कर दिया है और विवाद को निपटाने के लिए एक निश्चित समय सीमा निर्धारित करने के लिये दबाव बढ़ा दिया है। नोएडा ने दावा किया है कि कोर्ट का यह निर्णय निवेशकर्ताओं को प्रभावित नहीं करेगा क्योंकि किसान तो अपनी ज़मीन बेचने को तैयार हैं और जल्द ही उनकी ज़मीनों की रजिस्ट्री करा ली जायेगी। हाईकोर्ट ने शाहबेरी गांव की 159 हेक्टेयर और गौतमबुद्व नगर जिले की दादरी तहसील में सूरजपुर गांव की 72 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण रद्द करके ग्रेटर नोएडा को जबरदस्त झटका दिया है। कोर्ट ने धारा 5 का हवाला देते हुए कहा है कि किसानों को भूमि अधिग्रहण के समय आपत्ति दर्ज करने का मौका नहीं दिया गया और नियमों की अवहेलना करके बिल्ड़रों को सस्ते दामों पर भूमि दे दी गई।
नोएडा विस्तार के नाम से उद्योग के लिये अधिग्रहीत शाहबेरी गांव की भूमि तीन नामचीन बिल्डरों आम्रपाली, सुपरटेक और महागुन को आवासीय कालोनियां बनाने के लिए दी गई थी। याचिकाकर्ता केसरी नाथ त्रिपाठी का कहना है कि भूमि अधिग्रहण में बड़े पैमाने पर धांधली हुई है और इस मामले में सीबीआई जांच की जरूरत है। सूरजपुर में ज़मीन अधिग्रहण के लिए अधिसूचना जनवरी 2009 में शुरू हुई थी। वर्ष के अंत तक ग्रेटर नोएडा ने 48 हेक्टेयर ज़मीन पर कब्जा भी ले लिया था। नोएडा का इस ज़मीन के अधिग्रहण का मुख्य उद्देश्य औद्योगिक विकास था। हालांकि कब्जा लेने के बाद भी नोएडा कोई स्कीम लांच नहीं कर सकी जिसके कारण ज़मीन का आवंटन नहीं हो सका। अब यमुना एक्सप्रेस वे को बेची गयी ज़मीन किसान वापस मांग रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण को लेकर आंदोलन पहली बार नहीं हो रहा है। इससे पहले कई बार धरना प्रर्दशन, तोड़फोड़, आगजनी, गोलाबारी और लाठीचार्ज की घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें किसानों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ने अपने-अपने तरीके से राजनीतिक रोटियां सेकने का प्रयास किया है लेकिन भुक्तभोगी किसानों को आज तक न्याय नहीं मिला। दर्जनों वादे हुए, पर पूरे नहीं हुए।
ग्रेटर नोएडा की तर्ज पर बहराइच के कल्पीपारा गांव के लगभग 50 किसानों की 478 बीघा कृषि योग्य भूमि आवास विकास परिषद के लिए अधिग्रहीत की जा रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने ज़मीन हथियाने के लिये मनमाना, भेदभावपूर्ण और अवैध तरीका अपनाया है। भूमि प्राप्त करने का पूरा तरीका गैरकानूनी था और किसानों को आपत्ति दर्ज करने का मौका नहीं दिया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरके इलेक्ट्रानिक्स और अन्य 42 याचिकाओं को मंजूर कर शाहबेरी और सूरजपुर गांव के अधिग्रहण की जनवरी 2009 को जारी अधिसूचनाओं को रद्द करते हुए सुनील अंबानी और काशीनाथ पांडेय की खंडपीठ ने राज्य सरकार को नए सिरे से अधिग्रहण की अधिसूचना जारी करके ज़मीन मालिकों को सुनवाई का मौका देते हुए उनकी आपत्तियां निस्तारित करने की छूट दी है। खंडपीठ ने कहा है कि प्राधिकरण ने ज़मीन अधिग्रहण के उद्देश्य को ही बदल दिया है। ज़मीन का अधिग्रहण औद्योगिक विकास के लिए किया जाना था लेकिन बाद में उसे निजी बिल्डरों को बहुमंजिला इमारतें बनाने के लिए दे दिया गया। इससे पूर्व भी अदालत ने इसी जिले की 150 हेक्टेयर भूमि किसानों को वापस करने का आदेश दे रखा है।
ग्रेटर नोएडा और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में भूमि अधिग्रहण के मामलों पर उठे विवाद के बाद केंद्र सरकार में भूमि अधिग्रहण कानून का मसौदा तैयार करने का काम तेजी से हो रहा है और मानसून सत्र में इसको पेश किया जायेगा। प्रस्तावित कानून को इस तरह से बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें बेहतर मुआवजे, पुर्नवास और अन्य दूसरे उपायों का प्रावधान हो। इससे न सिर्फ किसानों का फायदा हो बल्कि विकास को भी गति मिल सके, खेतिहर भूमि को बचाया जा सके और जनहित का दायरा भी व्यापक हो। जिस मकसद से भूमि का अधिग्रहण किया गया है यदि पांच वर्षों में उस योजना पर काम नहीं हुआ तो स्वतः किसान या अन्य जिससे भी ज़मीन अधिग्रहीत की गयी है, वह फिर से उसका मालिक हो जायेगा। यह कानून बहुत ही व्यापक होगा और इसमें ज़मीन के मालिकों के साथ-साथ किरायेदारों के हितों की भी बात होगी।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 सरकार को निजी ज़मीन के अधिग्रहण की अनुमति देता है। इसके अंतर्गत सरकार या सरकारी एजेंसी, सार्वजनिक प्रयोजन के लिये भू.स्वामियों को नुकसान के मुआवजे का भुगतान करके भूमि का अधिग्रहण करने के लिये अधिकृत है। यह जरूरी नहीं है कि केवल सरकार ही ज़मीन का अधिग्रहण कर सकती है। सरकार के माध्यम से सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम 1960 के तहत पंजीकृत समितियां और सहकारी समिति एक्ट के तहत स्थापित सहकारी समितियां भी विकास के लिये ज़मीन का अधिग्ररण कर सकती हैं। ब्रिटिश सरकार ने सड़क, नहर और अन्य सार्वजनिक प्रयोजनों के लिये पहला भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1824 में बनाया था। इसके बाद इसमें समय-समय पर अनेक बदलाव किये गये हैं।
धारा 4 (1) के तहत प्रारंभिक अधिसूचना के बाद अधिग्रहण की प्रकिया शुरू होती है। इसके लिये जरूरी है कि अधिसूचना सरकारी गजट, एक क्षेत्रीय और एक अन्य भाषा के दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित होने के साथ-साथ विशिष्ट स्थानों पर भी चस्पा की जानी चाहिए। इसका मुख्य उद्देश्य आपत्तियों को एकत्र करके उनका निवारण करना होता है। अधिग्रहण के खिलाफ पीड़ित व्यक्ति को आपत्ति दर्ज कराने के लिये 30 दिन का समय दिया जाता है। धारा 6 के तहत अपील प्राप्त होने के बाद संबंधित अधिकारी उस पर विचार करेगा, उसकी जांच करेगा और जांच पूरी होने के बाद आपत्ति असंतोषजनक पाए जाने पर दावों को खारिज करने की घोषणा कर देता है। जब कभी किसी प्राधिकरण या कंपनी को भूमि की आवश्यकता होती है तो राजस्व अधिकारी को प्रार्थनापत्र दिया जाता है जिसमें सर्वेक्षण, अधिग्रहण का उद्देश्य और अधिग्रहण के लिए भूमि के एवज में चुकाई जाने वाली कीमत का उल्लेख होता है। इसके बाद धारा-4 के तहत सरकार पूरी तरह संतुष्ट होकर अधिग्रहण की अधिसूचना जारी करती है। इन विवादित मामलों में भूमि अधिग्रहण कानून की धज्जियां उड़ाई गई हैं। अधिग्रहण कानून की अवहेलना पर कोर्ट में चुनौतियां दी गई हैं। इस तरह के मामले तेजी से सामने आ रहे हैं जिनसे निवेशकर्ताओं, बिल्डरों और सरकार एवं प्राधिकरण में बैठे अधिकारियों के होश उड़े हैं।