टीके देवासिया
तिरूअनंतपुरम। अपनी स्थापना की स्वर्ण जयंती केरल ने बड़े धूमधाम से मनायी। केरल में दक्षिण के उन राज्यों के मुकाबले जिन्होंने पिछले एक नवंबर को अपनी स्थापना के 50 साल मना, अधिक उत्साह था, और यह उत्साह हो भी क्यों नहीं, क्योंकि केरल ने अनेक क्षेत्रों में अपने साथ गठित हुए राज्यों की तुलना में अधिक प्रगति की है। दूसरे राज्यों ने जबकि अपना फोकस अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों पर केंद्रित किया, केरल ने अपने मानव संसाधन को बहुत ही संजीदगी से पोषित और संरक्षित किया। केरल की इस कोशिश ने पिछले पचास वर्षों में सामाजिक और दूसरे क्षेत्रों में उसे एक 'मॉडल प्रदेश' बना दिया जो देश के राज्यों ही नहीं विकासशील देशों के लिए भी एक उदाहरण बन गया।
केरल ने साक्षरता, बाल मृत्यु दर में कमी, साक्षरता आयु दर में वृद्धि और उर्वरता के मामले में जो मानक बनाए हैं, उनकी तुलना किसी भी विकसित देश से की जा सकती है। सबसे रोचक तथ्य यह है कि इस राज्य ने मानव संसाधन विकास सूचकांक में अपना स्थान सबसे ऊपर रखा जबकि कुल राष्ट्रीय उत्पादकता में इसकी सहभागिता नीचे रही। इस बीच यह राज्य एक समरस समाज बनाने में भी काफी सफल हुआ।
केरल को यह सब उपलब्धियां हासिल करने में किसकी मदद सबसे ज्यादा रहीं? केरल पर नजदीकी नजर रखने वाले विशेषज्ञ इस बात पर एक हैं कि ये सब उपलब्धियां अकेली पिछली पचास वर्ष की नहीं हैं। ये सब उपलब्धियां जिन पर आज पूरे संसार के केरलाई लोगों को नाज है, स्वतंत्रता से पूर्व के रजवाड़ों की कोशिशों का नतीजा हैं। सामाजिक क्षेत्र में हुए विकास और उपलब्धियों के पीछे यहां की शत-प्रतिशत साक्षरता दर को सबसे महत्वपूर्ण पहलू माना गया है। राज्य में उच्च साक्षरता दर, दरअसल ट्रावनकोर और कोचीन जैसे रजवाड़ों की कोशिशों का नतीजा माना जाता है, जिन्होंने शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाया।
ट्रावनकोर राज्य ने 1817 में लोगों के बीच ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए और उनके बीच व्याप्त पिछड़ेपन को दूर करने के लिए शिक्षा को अपने नागरिकों के लिए मुफ्त कर दिया था। उससे पहले के शासकों ने भी स्वास्थ्य, कला और संस्कृति पर अपना विशेष ध्यान केंद्रित किया था। बाद के दिनों में ईसाई मिशनरियों ने इन कार्यों को आगे बढ़ाया।
केरल में सामाजिक परिवर्तन लाने में खास भूमिका निभाने वाले शासकों में नारायण गुरु, छट्टाम्बी स्वामिकल, अयंकली, मनत्थु, पद्मनाभन, स्वामी आनंद तीर्थन, तीटी भट्टाथ्रीपद आदि थे। इन शासकों ने यहां जाति और धर्म के बंधनों को तोड़कर सामाजिक न्याय के लिए जमीन तैयार की।
समाज सुधार आंदोलनों ने बाद के लोकतांत्रिक प्रशासकों के लिए अच्छी नींव जिस पर इन लोगों ने राज्य को सामाजिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाया। सच तो यह है कि अधिक लोग यह मानते हैं कि कम्युनिस्ट भी जो 'बैलेट' के माध्यम से पहली बार केरल में सत्ता पर काबिज हुए, इन सामाजिक परिवर्तन आंदोलनों की ही उपज हैं। वे यह भी मानते हैं कि दक्षिणपंथी पार्टियों ने भी वाम दलों की कई नीतियों को आगे बढ़ाया। राज्य में भूमि सुधार को 1957 में ईएमएस नंबूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार ने लागू किया जिसे बाद में आने वाली कांग्रेस सरकार ने भी जारी रखा। भूमि सुधार को पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय रक्षा मंत्री एके एंटोनी राज्य की प्रगति में एक 'प्रस्थान बिंदु' मानते हैं। कांग्रेस नीत यूडीएफ सरकार ने भी उन्हीं सामाजिक नीतियों और सुधारों को जारी रखा जिन्हें एलडीएफ सरकार लागू करती रही थी। वाम और दक्षिण पंथों के सत्ता के बारी-बारी से हस्तांतरण ने भी राज्य के सामाजिक क्षेत्रों में चल पड़ी विकास प्रक्रिया को कभी बाधित नहीं किया। केरल पर नजर रखने वाले प्रेक्षक मानते हैं कि हर नयी सरकार ने पिछली सरकार के सामाजिक सेवाओं को आर्थिक उत्पादन क्षेत्रों को नजरअंदाज कर भी जारी रखा। बावजूद इसके कृषि और उद्योग क्षेत्र को उपेक्षित करने के कारण सामाजिक क्षेत्र में राज्य की उपलब्धियों पर सवाल भी खड़े होते रहे हैं, क्योंकि उत्पाद क्षेत्र जो सेवा क्षेत्र के बने रहने के लिए संसाधन जुटाता है, वर्षों से जस का तस बना है।
केरल की इकॉनामी बनाए रखने में 15 लाख अनिवासी केरलाइयों की भूमिका महत्वपूर्ण है जो अधिकांशत: खाड़ी देशों में रोजी-रोजगार कर रहे हैं। अगर सत्तर के दशक की शुरूआत में खाड़ी देशों ने प्रशिक्षित और अप्रशिक्षित केरलाइयों के लिए अपने दरवाजे नहीं खोले होते तो राज्य की बहुत सी उपलब्धियां धराशायी हो गई होतीं।
सेवा क्षेत्र के साथ, उत्पाद क्षेत्र में भी राज्य की असफलता केरल को विकास मॉडल के प्रति संदेह पैदा करती है। विख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन जिन्होंने 'केरल मॉडल' फ्रेज की शुरूआत की, कहते हैं कि वे केरल को विकास के एक मॉडल के रूप में नहीं देखते हैं अपितु विकास पथ पर जाने के उसके रास्ते पर नजर रखते हैं। प्रेक्षक मानते हैं कि केरल ने अगर अपनी आर्थिक ताकत को उत्पाद क्षेत्र में नियोजित रूप से झोंक दिया होता तो वह दूसरे राज्यों के लिए एक आदर्श साबित हो सकता था। अनिवासी केरलवासी जो भारी राशि अपने प्रदेश में भेजते हैं, उससे राज्यं का कायाकल्प किया जा सकता था पर यह भारी राशि अनुत्पादक सामाग्रियों जैसे आवास, गहनों, महंगे कार और दूसरे आरामदायक साधनों पर खर्च होकर जाम हो जाती है।
लोकतांत्रिक शासक राज्य में सूचना तकनीक और पर्यटन के क्षेत्र में हुए त्वरित विकास को समझने में असफल रहे हैं। सिर्फ इन्हीं दो क्षेत्रों के समग्र विकास से केरल में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या से निजात पायी जा सकती है। युवाओं को रोजगार मुहैया कराया जा सकता है और युवाओं के देश से बाहर के पलायन को रोका जा सकता है। इन दो क्षेत्रों पर समुचित ध्यान देने से राज्य देश के सर्वाधिक विकसित राज्यों में शुमार हो सकता है।
लोग मानते हैं कि वर्तमान दौर के राजनीतिज्ञ इन अवसरों को न भुना पाने के दोषी हैं। वरिष्ठ स्तंभकार टीजेएस जार्ज मानते हैं कि पिछले दो दशकों में केरल के पतन के लिए राजनीतिक वर्ग की नैतिक असंवेदनशीलता ही दोषी है। जीवन के हर क्षेत्र में समकालीन शासकों की असफलताएं जाहिर हो रही हैं। आत्महत्याओं के मामले में केरल देश भर में अव्वल है। अपराध, दुर्घटनाएं, महिला अपराध, दारूबाजी और बेरोजगारी आजकल केरलाई समाज में तूफान उठा रहे हैं।
अर्थशास्त्रियों के साथ समाजशास्त्री भी यह महसूस करने लगे हैं कि पिछले पचास वर्षों में राज्य ने जो प्रगति की है, उसे आने वाले वर्षों में कायम रखना मुश्किल होगा, अगर संबंधित अधिकारियों ने आर्थिक क्षेत्र के प्रत्येक प्रभाग में विशेष ध्यान नहीं दिया। वे महसूस करते हैं कि राज्य को आर्थिक उत्पाद क्षेत्र में खास शुरूआत करने का यह समय सबसे उत्तम है और अगर इस बार बस छूट गयी तो फिर बहुत देर हो जाएगी।
सच तो यह है कि पिछले तीन दशकों में बदलती सरकारों ने बड़े पैमाने पर राज्य की विकास प्रक्रिया को बाधित किया है। इन दिनों में हर आने वाली नयी सरकार ने पिछली सरकार के कार्यक्रमों और योजनाओं को विपरीत धारा में मोड़ने का काम किया। पिछली सरकार ने राज्य के विकास के लिए जो 'एजेंडे' तय किए थे, उसकी वीएस अच्युतानंदन के नेतृत्ववाली वर्तमान सरकार ने हाशिए पर डाल दिया। अच्युतानंदन अब वाम विचारधारा पर आधारित अपना एजेंडा लागू करने की कोशिश में हैं। पर जब तक यह आकार लेगा तब तक यहां चुनाव आ जाएंगे और हो सकता है, यह एजेंडा उसके बाद बाहर फेंक दिया जाए। डेमोक्रेटिक इंदिरा कांग्रेस (करुणाकरण) के करुणाकरण ने राज्य के त्वरित विकास के लिए वर्तमान एलडीएफ सरकार को सहयोग करने की अपील की है, पर एलडीएफ का वर्तमान नेतृत्व यह मानता है कि वह अपना लक्ष्य करुणाकरण की मदद के बिना प्राप्त कर लेगा।
हालिया किए गए कई अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकल रहा है कि पिछले पचास वर्षों में केरल ने जो कुछ हासिल किया था, अब वह खो गया है। केरल शास्त्र साहित्य ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि राज्य से समरस समाज बनाने के क्षेत्र में जो सार्थक प्रयास किए थे, वे अपनी दिशा खो चुके हैं। अध्ययन यह दर्शाता है कि आज दस प्रतिशत केरलाई ऐसे हैं जो राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 41 प्रतिशत उपभोग करते हैं। दूसरी तरफ नीचे की पंक्ति के दस प्रतिशत लोगों को सिर्फ 1.3 प्रतिशत राशि मिल पाती है। ये आंकड़े राज्य के उन दावों को झुठलाते हैं, जिनके कहा जाता है कि स्कूल और स्वास्थ्य सेवाओं का समान वितरण नागरिकों में होता है।
गरीब परिवारों से आने वाले 54 प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं, जबकि प्रभावशाली परिवारों के मामलों में यह आंकड़ा 24.8 प्रतिशत का है। इस अध्ययन के मुताबिक धनी और उच्च मध्यम वर्ग के लोगों की 'प्रति व्यक्ति' मासिक आय गरीब और अत्यंत गरीब परिवार वालों के मुकाबले 12 गुना अधिक है।
नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस 1999-2000) के अनुसार केरल में मात्र 12.7 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है, जबकि केरल शास्त्र साहित्य परिषद के अध्ययन में यह आंकड़ा 22.6 प्रतिशत का पाया गया है। दोनों संस्थानों ने शहरी आबादी के बीपीएल कार्डधारियों को 20 और 21 प्रतिशत पाया है। 'केएसएसपी' इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि 38.7 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, 38 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 28.7 प्रतिशत मुस्लिम और 21.4 प्रतिशत हिन्दू पिछड़ी जाति गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है।
बहुसंख्य लोग 'डर' में जी रहे हैं। 77 प्रतिशत लोग डकैती और अपहरण के भय से त्रस्त हैं, जबकि राज्य पूर्ण साक्षर माना जाता है, तब सिर्फ 51 प्रतिशत नियमित समाचार पत्र पाठक हैं। 27 प्रतिशत लोग अखबार नहीं पढ़ते हैं। 26 प्रतिशत टेलीविजन नहीं देखते और 45 प्रतिशत लोग रेडियो नहीं सुनते। यही है केरल का आज का यथार्थ।