सियाराम पांडेय शांत
चुनाव आयोग के सामने भी पारदर्शी मतदान के लिए कोई कम चुनौतियां नहीं रहती हैं। अगर चुनाव में कोई पेंच फंसाने की ठान ले तो ऐसी खामियां मौजूद हैं जिन पर तूफान खड़ा हो सकता है। चुनाव चिन्हों और उनके इस्तेमाल को लेकर राजनीतिक दलों में बड़े-बड़े झगड़े हुए हैं जो कि चुनाव आयोग के लिए मुसीबत से कम नही रहे। अतीत में आयोग को कई बार तो चुनाव चिन्ह जब्त करने जैसी कार्रवाइयां भी करनी पड़ी हैं। यह बहुत दिलचस्प और विचार का मुद्दा है कि मतदान में कुछ चुनाव चिन्ह तो ऐसे हैं जो अपरोक्ष रूप से किसी न किसी प्रत्याशी के लिए बड़े फायदेमंद होते हैं।
सियासत में पार्टी चुनाव चिन्ह का बड़ा ही रोल होता है। राजनीतिक दलों की पहचान भी चुनाव चिन्ह से ही बनती है। चुनाव प्रचार मतदान से चौबीस घंटे पहले बंद हो जाता है लेकिन कुछ चुनाव चिन्ह मतदान केंद्र तक न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं बल्कि मतदाताओं को भी प्रभावित करते हैं। इससे चुनाव नियमावली का भी उल्लंघन होता है लेकिन चुनाव आयोग की इन पर नजर नहीं है और अगर है भी तो इसे नोटिस में लेकर या फिर इसमें बदलाव कर वह बर्र के छत्ते में हाथ नहीं डालना चाहता। आयोग यह भी जानता है कि चुनाव चिन्ह किसी एक दल की बपौती नहीं हैं। वे बदले जाते रहे हैं। अक्सर बदले भी गए हैं। इस बदलाव का कारण बहुत हद तक दलीय विघटन ही रहा है। आयोग भी जानता है कि बहुत सारे चुनाव चिन्ह मतदान केंद्र तक अपना प्रभाव डालते हैं लेकिन फिर भी वह यथास्थितिवाद से उबर नहीं पा रहा है।
संवैधानिक व्यवस्था के तहत चुनाव के दौरान मतदानस्थल से 100 मीटर की दूरी तक राजनीतिक दलों के झंडे- बैनर और पोस्टर उतरवा दिए जाते हैं और यह सब इसलिए होता है कि मतदाता बिना किसी दबाव के स्वविवेक से अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें। नियम तो यह भी है कि किसी भी राजनीतिक दल का कोई भी चुनाव चिन्ह बैलेट पेपर के अतिरिक्त मतदान स्थल पर कहीं भी दिखना नहीं चाहिए लेकिन अपने देश में वर्षों से इस नियम का पालन नहीं हो पा रहा है और चुनाव आयोग भी इस दिशा में सर्वथा मूकदर्शक बना हुआ है। अगर कभी किसी ने उसे चेताया भी तो उसका एक सधा हुआ जवाब होता है कि उक्त चुनाव निशान अमुक पार्टी को लंबे अरसे से आवंटित है। उसे बदल पाना मुमकिन नहीं है लेकिन वह यह जानने की दिशा में संभवतः गंभीर नहीं है कि ये चुनाव निशान समूची चुनाव प्रक्रिया पर कितना प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
द ग्रेट ओरिएंट के लेखक विनोद शंकर मिश्र ने इस बावत चुनाव आयोग से पत्र व्यवहार भी किया लेकिन जवाब में उन्हें जो कुछ हासिल हुआ, उससे यही लगता है कि चुनाव आयोग अपनी गलतियों से सबक लेने का कतई इच्छुक नहीं है। गलतियां हो गई हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि वे सुधारी ही न जाएं। दिन का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहा जाता लेकिन यहां तो अपना घर सामने देखकर भी उसे न पहचानने की स्थिति है। अपने देश में जब जागे तभी सबेरा वाली कहावत काफी लोकप्रिय है लेकिन जो जागते हुए भी सोने का स्वांग कर रहा हो, उसके लिए सुबह के होने न होने का मतलब ही क्या है? चुनाव आयोग के साथ भी कमोवेश यही बात है। चुनाव आयोग को प्रेषित पत्र में विनोदशंकर मिश्र ने कहा है कि किसी भी पार्टी को मानव शरीर का कोई भी अंग चुनाव चिन्ह के रूप में आवंटित नहीं किया जाए क्योंकि नियमानुसार उसे मतदान केंद्र से 100 मीटर की दूरी पर नहीं रखा सकता। यही नहीं, संकेतों के जरिए उम्मीदवार और एजेंट मतदाता को प्रभावित भी कर सकते हैं। मसलन हाथ को ही लें तो उससे कई तरह से मतदाताओं को प्रभावित किया जा सकता है। हाल- चाल पूछकर भी और जरा ध्यान रखना कहकर भी। यह स्थिति बहुत मुफीद नहीं है। औरत के चेहरे को ही लें तो भौजी का हाल बा कहकर भी उम्मीदवार और उसके अभिकर्ता मतदान केंद्र पर मतदाताओं को गुमराह कर सकते हैं। कांग्रेस को हाथ चुनाव चिन्ह न देने की कई राजनीतिक दल भी मुखालफत कर चुके हैं लेकिन चुनाव आयोग पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। अपना हाथ जगन्नाथ की परंपरा में यकीन रखने वालों को यह सुनकर तब बेहद कोफ्त होती होगी जब कुछ राजनीतिक दल इसे कांग्रेस का खूनी पंजा करार देते होंगे। कांग्रेस का हाथ, विकास के साथ का इश्तिहार तो अब बेहद पुराना हो चुका है। विषयांतर हुए बगैर यह कहना ज्यादा अभीष्ठ होगा कि ऐसा कोई भी चुनाव चिन्ह जिसे मतदान स्थल पर जाने से रोका नहीं जा सकता, उसे किसी भी राजनीतिक दल को आवंटित नहीं किया जाना चाहिए।
संविधान में यह भी व्यवस्था है कि किसी भी राजनीतिक दल को धार्मिक आधार पर कोई चुनाव चिन्ह नहीं दिया जा सकता। फिर हाथ तो इस देश के दो प्रमुख धर्मों का निशान है। शिया समाज के अलम के जुलूस में झंडे पर हाथ का निशान है तो जैन समाज का तो धर्म प्रतीक ही हाथ है। इस आधार पर हाथ का चुनाव चिन्ह के रूप में आवंटन न्यायसंगत और विधि संगत नहीं है। हिंदू देवी-देवताओं की अभय मुद्रा भी हाथ ही है। इस आधार पर भी यह धार्मिक अवधारणाओं और मान्यताओं का हिस्सा है। ऐसे में अभयमुद्रा किसी भी राजनीतिक दल का चुनाव निशान नहीं बननी चाहिए। कोई भी राजनीतिक दल मतदाताओं को आशीर्वाद नहीं दे सकता। वह मतदाताओं द्वारा मतदाताओं के लिए चुना जाता है। मतलब मतदाताओं का आशीर्वाद नेताओं को चाहिए, न कि नेताओं का आशीर्वाद मतदाताओं को। इस लिहाज से भी हाथ का चुनाव चिन्ह के रूप में आवंटन नीतिसंगत, धर्मसंगत नहीं है।
बात केवल हाथ की ही नहीं है। चश्मा, कुर्सी-मेज, कलम-दवात, लालटेन और हैंडपंप जैसे अनेक चुनाव चिन्ह हैं जो मतदान केंद्र पर अक्सर विद्यमान होते हैं। चुनावकर्मियों, पुलिसकर्मियों की साइकिल भी बहुधा मतदान स्थल के बाहर या फिर बहुत नजदीक खड़ी होती है जो जाने- अनजाने वोटर का ध्यान अपनी ओर खींचती तो है ही। अब अगर किसी स्कूल में हैंडपंप लगा हो तो उसे चुनाव के वक्त उखड़वाया तो जा नहीं सकता और अगर चुनाव पूर्व नियमतः उसे उखाड़ दिया जाए तो इस चुनाव चिन्ह पर लड़ रहे प्रत्याशी को तो जनता वैसे ही पसंद नहीं करेगी। ऐसे में चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता प्रभावित होगी और यह किसी भी लिहाज से उचित नहीं होगा। इनेलो का चुनाव चिन्ह चश्मा है। अब किसी भी व्यक्ति को चश्मा लगाकर मतदान केंद्र पर आने से भला कैसे रोका जा सकता है। खुद पीठासीन अधिकारी भी चश्मा ही लगाकर बैठते हैं,ऐसे में चश्मे की ओर मतदाता आकृष्ट नहीं होगा, यह कैसे कहा जा सकता है?
दिन में लालटेन की जरूरत नहीं होती, लेकिन दूरदराज के इलाकों में जहां बिजली नहीं होती, वहां तो लालटेन की रोशनी में ही चुनाव पड़ते हैं,फिर इस चुनाव चिन्ह को मतदान केंद्र से 100 मीटर दूर कैसे रखा जा सकता है। कमोवेश यही स्थिति कुर्सी- मेज और कलम दवात की भी है। जब हम किसी दल को सूरज या चांद चुनाव चिन्ह प्रदान करते हैं तो चांद-तारे की भी डिमांड की जा सकती है। हाथ आवंटित करते हैं तो कोई दल अंगूठे और सवाल उठाती तर्जनी की भी बतौर चुनाव चिन्ह मांग कर सकता है और यह स्थिति कदाचित चुनाव आयोग के लिए भी मुश्किलतलब होगी। चुनाव आयोग को इस बावत न केवल विचार करना होगा बल्कि ऐसे किसी भी चुनाव निशान के आवंटन से बचना होगा जो चुनाव प्रक्रिया के अनुपालन में बाधक साबित होते हैं।
(लेखक अमर उजाला, लखनऊ में मुख्य उप संपादक हैं)