स्वामी बिजनौरी
अजूबों का देश तो है ही भारत, महान गोपनीय विधाओं की भी यहां कोई कमी नहीं है। भारत के हर शहर-हर गांव में गोपनीय विधाओं के विद्वान भरे पड़े हैं। कहीं कोई झूठ छोड़ने का माहिर है तो कोई हंडिया फोड़कर शत्रु नाश करने का मास्टर है। कोई चेहरा देखकर आगंतुक का अतीत बता देता है तो कोई भविष्यवक्ता होने का दावा करता है। कोई अपनी हथेली से खून की बूंदें टपकाता है तो कोई पूरी भीड़ को ही सम्मोहित करने की कला रखता है।
इसी भारत महान में एक से बढ़कर एक जड़ी बूटियों के विद्वान भी हैं। कोई डायबिटीज दूर करने के लिए सदाबहार के फूल, मैथी, नीम, बेल के पत्ते, जामुन के बीज से लेकर दाल और चीनी शिलाजीत तक का प्रयोग बता देता है तो कोई बवासीर के लिए सरकंडे की पत्तियों के रस से बीमारी से छुटकारा दिला देता है। एलोपैथी के हिसाब से यह संभव नहीं। कोई विद्वान किडनी के इंफेक्शन को भी जड़ी बूटियों से ही ठीक कर देता है जबकि एलोपैथी में खराब किडनी का कोई इलाज नहीं। ऐसे ही अजूबे कीमियागिरी में भी हैं। लोहे, तांबे को स्वर्ण में बदलने की कला भी भारत महान में है। जानकार बताते हैंकि यह कला यूनान में भी थी।
विज्ञान का विकास हुआ लेकिन इस गोपनीय विद्या के बारे में आज भी कुछ ही लोगों को ज्ञान है। आयुर्वेद में, यूनानी हिकमत के अरबी, फारसी भाषा के ग्रंथों में इसका संदर्भ है लेकिन कूट भाषा में, जैसे पारे को एक यूनानी ग्रंथ में भागने वाले गुलाम का नाम दिया गया। इस विज्ञान में रस शास्त्र में रूचि रखने वाले लोग कम हैं। उनमें भी शायद एक प्रतिशत लोगों को ही कोई ऐसा गाइड, साधु, फकीर और हकीम मिल पाता है, जो इस विद्या का मास्टर हो। लगभग 50 वर्ष बिजनौर में एक मिश्रा जी हुआ करते थे। जजी में नौकरी करते थे, खाली समय में कीमियागिरी सीखने का जजून था। एक खट्टी घास होती है- खेतों के किनारे, नालों के किनारे, इधर की भाषा में चूखा कहते हैं- मिश्रा जी उस घास की जड़ें एकत्र करके, कंडों की आग में तांबे से सोना बनाने का प्रयोग करते थे। अपने पुत्रों तक से इस संदर्भ में बात नहीं कहते थे। मात्र कुछ दोस्त थे उनके, जो इस विषय के जानकार थे।
अजीब मूडी व्यक्तित्व था उनका। कहते है, और जानकार बताते हैंकि एक बार गंगा के किनारे अपनी गाय की तलाश करते-करते, जंगल में भटकते-भटकते, इनके हाथ से लटक रही लोहे की जंजीर स्वर्ण जंजीर में परिवर्तित हो गई थी। मिश्राजी बेहाल हो गए, कई महीनों तक जंगल में भटकते रहे, वह जड़ी-बूटी और पत्थर हाथ नहीं आया। मानसिक रूप से उन्मादी हो गए। इसी उन्माद में पुत्र के कापी, डायरी खोलने से ही अपने 35 साल के अनुभव जला डाले। स्वर्ण बनाने के जजून में जजूनी हो गया था जीवन उनका। मिश्राजी का परिवार आज भी बिजनौर में है। मिश्राजी परलोक चले गए और उनके आठ दोस्त भी।
इसी लाइन पर काम करने वाले एक अन्य विद्वान वर्तमान में लगभग 45-50 वर्ष के डा कंसल हमें टकरा गए। डाक्टर साहब पुराने बीएएमएस, गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार से शिक्षा प्राप्त हैं। अच्छी खासी प्रैक्टिस कर रहे हैं। आजकल इस कीमियागिरी पर शोध भी कर रहे हैं। बात लगभग 15 वर्ष पुरानी है, जब डाक्टर साहब देहरादून में चकरौता के पास सरकारी डाक्टर के पद पर थे। महानगर से दूर का शांत जीवन, छोटी सी जगह, सभी सरकारी कर्मचारी एक दूसरे को जानते थे। पुलिस, डाक्टर, प्रशासन, बिजली, ब्लाक सभी एक दूसरे को पहचानते थे। पहाड़ जंगल का शांत जीवन।
डाक्टर कंसल के एक मित्र थे सुभाष त्यागी, पुलिस के सब इंस्पेक्टर। कभी-कभी एक ही वाहन से क्षेत्र में भी चले जाया करते। उस दिन, डाक्टर चकरौता से दूर, गांव में विजिट के लिए गए थे। दरोगा त्यागीजी भी उसी तरफ किसी तफ्तीश में गए थे। डाक्टर साहब अपने काम में व्यस्त थे, यकायक पुलिस की जीप आई, सिपाही ने डाक्टर साहब से कहा-दारोगा जी ने अभी बुलाया है। डाक्टर कंसल ने काम समेटा और उनकी जीप में चल दिए, जहां दारोगाजी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। जा पहुंचे। वहां का दृश्य कोई नया नहीं था। एक अति साधारण अधेड़ व्यक्ति-कमीज, पजामा पहने कुछ-कुछ बढ़ी सी दाढ़ी, आंखों में अजीब सा सम्मोहन, हाथ में एक टीन की बक्सिया-पुलिस प्रताड़ना का शिकार हो रहा था। पिटता हुआ मानव कातर दृष्टि से दया की भीख मांग रहा था।
डाक्टर साहब जीप से उतरे। दारोगाजी डाक्टर के मित्र थे ही, पूछ बैठे-अरे यार बक्से में भी थैलिया हैं-दो प्लास्टिक की थैलियां, जरा देखकर इन थैलियों के सफेद पाउडर को बताओ क्या-यह स्मैक है? डाक्टर ने टीन का बक्सा खोला, उसमें प्लास्टिक की दो थैलियों में पाउडर सा था- एक सफेद दूसरा ब्राउन सा, खूब चैक किया-सूंघा, गंधहीन पाउडर चखने का साहस न कर सके। अनजान पाउडर को चखना भी नहीं चाहिए। डाक्टर साहब किसी भी निष्कर्ष पर न पहुंच सके। सिपाही व्यक्ति को लतियाते रहे। वह चीखता रहा निर्दोष होने की गुहार लगाता रहा। उस व्यक्ति को लगा मात्र डाक्टर ही उसे पुलिस से बचा सकते हैं। वह डाक्टर के पैरों में गिर गया। डाक्टर से कहा-यह तो बता नहीं सकता- यह पाउडर क्या है लेकिन इस पाउडर का कमाल दिखा सकता हूं। आप इस बात की गारंटी लेंकि पुलिस मारेगी नहीं और कमाल देखने के बाद छोड़ देगी।
डाक्टर साहब चक्कर में पड़ गए। दारोगाजी से सलाह की और मात्र कमाल देखने की उत्सुकता में हां कर दी। तब तक किसी को भी पता नहीं था- क्या होने जा रहा है। वह व्यक्ति आश्वस्त हुआ। एक कप चाय पिलाई गई उसको। उसने दारोगाजी से दो किलो लकड़ी के कोयले, एक धौंकनी हवा चलाने के काम आने वाली एवं लोहे की सरिया के दो टुकड़े मांग लिए। जीप भेज कर चकरौता की सुनार की दुकान से धौंकनी, बाजार से कोयले, लोहे की दुकान से लगभग 100 ग्राम के सरिये के टुकड़े मंगा लिए गए। उस व्यक्ति ने लगभग 3 बजे, सड़क किनारे छोटा सा गड्ढा खोदा, धौंकनी फिट की और कोयले डालकर आग जला ली। कोयले सुलगने लगे।
वह व्यक्ति आग में लोहे के सरिये डालकर, सड़क किनारे गड्ढे में कुछ तलाशने लगा। थोड़ी देर में कुछ घास के पत्तों को कुछ दूरी पर रख, हथेली में मसलता रहा। जब पत्ते पिस गए तो उस भट्टी के पास आ गया। धौंकनी घुमाई आग तेजी पकड़ गई। लोहे के सरिये लाल हो गए। उसने लाल सरिये को आग से बाहर निकाला और हथेली की घास से निकले रस की बूंदें उन सरियों पर डाल दीं। एक छुन्न सी आवाज हुई, सरिये काले पड़ गए-कुछ ठंडे हो गए।
सभी उपस्थित अन्य लोग डाक्टर, दारोगा-सिपाही खामोश देखते रहे। सरिये फिर गर्म किए, बाहर निकाले गए, पेड़ के पत्ते पर चुटकी भर सफेद पाउडर रखकर गरम सरियों पर डाला गया। सरिया ठंडा होने के बाद, फिर गर्म लाल किया गया और उस पर दूसरा ब्राउन पाउडर डाला गया। अब सरियों को शेष बची आंच में रखकर वह धौंकनी निकालकर, साफ करके जीप में रख दी। अंगारे शांत हो गए थे, अब जब सरिये निकाले गए तो उनका रंग बदल गया था। पीले पड़ गए थे। पीला रंग धूप में चमक रहा था। उस व्यक्ति ने उन दोनों टुकड़ों को कागज में लपेट कर दारोगा जी को दिया- सुनार की धौंकनी भिजवा दीजिए। साथ इन टुकड़ों को भी चैक करा लीजिए।
दारोगा जी हैरत से भरे थे। डाक्टर भी चकित थे- दोनों यह समझ रहे थे- पाउडर से लोहे को पीला कर दिया इसने। जीप से सिपाही चकरौता की ओर गया, उस व्यक्ति ने अपनी बक्सी उठायी और सबको राम-राम कहकर जंगल की ओर लपक गया। उसका पाउडर स्मैक था नहीं, ठुकाई भी हो चुकी थी। वायदा भी कर लिया था, अतः उसे किसी ने रोका भी नहीं। पंद्रह मिनट बाद ही सिपाही बदहवास सा जीप से आ गया। अरे सरकार, कहां गया वह आदमी, कमाल कर दिया उसने, अरे लोहे को सोना बना डाला, दो सुनारों से चैक कराया-ये टुकड़े पक्का सोना हैं-शुद्घ सोना।
अब लगे सिपाही, दारोगा, डाक्टर उस व्यक्ति कोतलाशने। हाथ नहीं आया। सोने की छड़ दारोगा जी ले गए। डाक्टर कंसल आज भी भटक रहे हैं-आखिर उस पाउडर का रहस्य क्या था? कहीं वह घास चूखा घास तो नहीं थी।