तरूण विजय
भारत देश की राजनीति और हिंदुओं की विश्व दृष्टि इतनी संकीर्ण हो गई है कि बारह सौ वर्ष पुराने एक शिवमंदिर पर हुई गोली-बारी के बारे में भारत से किसी ने न तो बयान दिया और न ही भारतीय मीडिया में इसकी कोई चर्चा हुई। यह शिव मंदिर यूनेस्को में विश्व विरासत घोषित है। थाईलैंड और कंबोडिया की सीमा पर इस मंदिर को ये दोनों देश अपना बताते हैं। मंदिर पर नियंत्रण की कोशिश में फरवरी 2008 से अब तक थाई सेना ने चार सौ से ज्यादा मोर्टार बम गिराए हैं और इसमें अब तक थाईलैंड और कंबोडिया के 15 सैनिक भी मारे जा चुके हैं। सन् 1962 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने एक फैसले में मंदिर तो कंबोडिया का तो बताया लेकिन उसके आसपास की जमीन के बारे में भ्रम ही बना रहा। थाईलैंड ने बाद में मंदिर पर न्यायालय के फैसले को भी नामंजूर कर दिया। फरवरी, 2008 में जब यूनेस्को ने मंदिर को विश्व विरासत घोषित किया और उसका प्रशस्ति-पत्र कंबोडिया को दे दिया तो थाईलैंड ने इस पर अपना विरोध जताया और विश्व विरासत समिति का बहिष्कार कर दिया।
पिछले दिनों भारतीय राजनीति के पतित और संकीर्ण स्वरूप से तनिक निजात पाते हुए मैं इस मंदिर के दर्शन करने और थाई और कंबोडिया के नेताओं से इस बारे में वार्ता करने कंबोडिया की राजधानी फानोमपेन और बैंकाक गया था। फानोमपेन में कंबोडिया के उप-प्रधानमंत्री सोक आन ने मुझे राजकीय अतिथि का दर्जा देते हुए मंदिर के संबंध में पूरी जानकारी दी।
मंदिर का मूल नाम शिखरेश्वर शिव मंदिर है। यह कैलास पर्वत के प्रतीक स्वरूप कंबोडिया के दंग्रेक पर्वत पर अत्यंत मनोहारी रूप में स्थित है। इसका निर्माण नौवीं शताब्दी में सम्राट जयवर्मन द्वितीय के पुत्र सम्राट इंद्रायुधवर्मन ने प्रारंभ कराया था और बारहवीं शताब्दी में सम्राट धरनींद्रवर्मन और सम्राट सूर्यवर्मन के शासनकाल में इसका निर्माण पूर्ण हुआ। चार शताब्दियों तक कंबोडिया के हिंदू-राजाओं का इस मंदिर निर्माण को राज्य संरक्षण मिलता रहा।
कंबोडिया, भारत से गए कंबोज ऋषि ने बसाया था। उन्होंने वहां की नाग जाति की राजकुमारी से विवाह कर खमेर जाति को आगे बढ़ाया। वहां विश्व का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर अंगकोरवाट है और कम्युनिस्ट शासन होने के बावजूद वहां के राष्ट्रीय ध्वज पर इस मंदिर का रेखांकन उसी प्रकार शोभित है, जैसे भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर अशोक चक्र अंकित है। इस पूरे दक्षिण पूर्व क्षेत्र में बुद्ध और शिव एक साथ सम्मान और अत्यंत श्रद्धा सहित पूजे जाते हैं। खमेर भाषा में संस्कृत के शब्द प्रचुर मात्रा में हैं। वहां प्रज्ञा पारमिता महल है और खमेर राष्ट्रीय नृत्य का नाम है अप्सरा, जो भरतनाट्यम जैसा है।
थाईलैंड के सम्राट का नाम है महाराजा अतुल्य तेज भूमिबल। उन्हें रामनवम की उपाधि से जाना जाता है, क्योंकि वह स्वयं को राम की परंपरा का मानते हैं। वहां के सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम है स्वर्णभूमि। इस हवाई अड्डे में प्रवेश करते ही सागर मंथन की विशाल प्रतिमा के दर्शन होते हैं, जिसके मध्य में विष्णु हैं। यह तथ्य इसलिए मैं बता रहा हूं ताकि पाठकों को इस क्षेत्र के साथ हिंदू सभ्यता के प्राचीन जुड़ाव के महत्व की जानकारी हो जाए। इस क्षेत्र में यदि दो बौद्ध देश एक शिव मंदिर के लिए युद्धरत हों तो क्या यह हमारे लिए उपेक्षा का विषय होना चाहिए?
इस मंदिर तक पहुंचने के लिए मुझे विश्व प्रसिद्ध पुरातत्व विशेषज्ञ प्रोफेसर सच्चिदानंद सहाय से महत्वपूर्ण सहायता मिली। इस शिव मंदिर पर उनके शोध को यूनेस्को ने प्रकाशित किया है। इस मंदिर के लिए कंबोडिया के नगर सीएम रीप पहुंचना पड़ता है। वहां से सड़क मार्ग से तीन घंटे की दूरी पर देंग्रेक पर्वत आता है। उसके बाद कुल दो हजार दो सौ पचास सीढि़यां चढ़नी पड़ती हैं। हालांकि एक सड़क मार्ग भी है, पर वह एक थाईलैंड के भाग से गुजरता है, इसलिए कंबोडिया में भारतीय राज दूतावास की सलाह पर हम सिर्फ उस मार्ग से गए जो पूरी तरह कंबोडिया के अंतर्गत है।
यह मंदिर प्राचीन हिंदू खमेर वास्तुशिल्प का अद्भुत उदाहरण है। इसमें पांच गोपुरम हैं। शिव, राम, सीता, लक्ष्मण, इंद्र आदि की अत्यंत मनोहारी शिल्पकृतियां यहां देखने को मिलती हैं। एक किलोमीटर लंबे अक्ष पर इस मंदिर का निर्माण हुआ। विराट और भव्य प्रस्तर कला का यह विश्व प्रसिद्ध आश्चर्य केवल हिंदू बहुल भारत में ही उपेक्षा और अज्ञान का पात्र बना है। चीन, जर्मनी, इंडोनेशिया और वियतनाम जैसे देश ही नहीं, बल्कि अमेरिका भी इस मंदिर को बचाने के मामले में गहरी दिलचस्पी ले रहा है।
दुर्भाग्य से एक विकृत सेक्युलरवाद के कारण न तो भारत सरकार इस बारे में कोई भूमिका निभाने को तैयार है और न ही किसी हिंदू संगठन ने इस बारे में पहल की है। मैं इस मंदिर में पूजा करने वाला पहला भारतीय सांसद बना और कंबोडिया और वापसी में बैंकाक में प्रमुख राजनीतिक एवं बौद्ध नेताओं से वार्ता करने के बाद भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा को पूरी जानकारी दी। सौभाग्य से लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के साथ नितिन गडकरी ने भी इस विषय के महत्व को समझा। अशोक सिंघल भी इस विषय में कुछ रचनात्मक करने को उत्सुक हैं।
लालकृष्ण आडवाणी ने भारत के मुख्य सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन से भी इस बारे में बात की। वह इस विषय में हिंदू समाज की ओर से महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शायद ये सेकुलर भी नही है! आशा तो नही है कि मनमोहन सिंह, जिनकी पूर्वी एशिया में बहुत सम्मानित छवि मानी जाती है, इस विषय की गंभीरता समझेंगे और भारतीय पुरातत्व विभाग को इस मंदिर के संरक्षण और उस क्षेत्र में शांति के लिए भारत की महत्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित करेंगे।