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न्यूयार्क। भारत के उद्योगपति विजय माल्या ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के स्मृति चिह्न खरीद कर भारत की लाज को बचाया और भारत सरकार के संबंधित मंत्री समाचार चैनलों के सामने बयानबाजियों में ही लगे रहे। विजय माल्या से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मैने यह बोली अपने देश के मान-सम्मान के लिए लगाई क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपिता की अमूल्य धरोहर किन्हीं ऐसे हाथों में जाएं जिनका भारत भारतीय संस्कृति और भारत के इतिहास से कोई लेना देना न हो। यह भी कि यह भारत की मान मर्यादा का प्रश्न है और ऐसे समय पर अगर हम लोग नहीं खड़े होंगे तो हमें भी दुनिया के सामने जवाब देना होगा जो कि हमारे पास नहीं होता। भारत के अलावा इन्हें कोई और ले जाता तो वह हमेशा केवल भारत का उपहास ही उड़ाता।
भारत सरकार की घंटों की ड्रामेबाजी और उसके बाद लगी बोली में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से जुड़ी धरोहरों की नीलामी रोकने की जितनी कोशिशें की गई थीं वह नाकाम ही रहीं। इसमें भारत सरकार की विफलता ही माननी होगी जो कि यह मामला सामने आने पर और उसकी दुनिया में छिछालेदर होने पर ही सक्रिय होती दिखाई दी है। यह मामला पहले भी संभाला जा सकता था और नीलामी को टालते हुए बापू की धरोहर भारत लाने के प्रयास किए जा सकते थे। लेकिन भारत सरकार इसमें भी अपने देश की छवि को नहीं बचा सकी। अंततः बापू की धरोहर नीलामी की टेबल पर पहुंच ही गई। अंततः भारत के उद्योगपति विजय माल्या ने अठारह लाख अमेरिकी डॉलर की भारी भरकम बोली लगाकर इन्हें दूसरों के हाथों में जाने से बचाया।
नीलामी से ठीक पहले इन वस्तुओं के मालिक जेम्स ओटिस इन्हें नीलामी से वापस लेने पर सहमत भी हो गए थे लेकिन नीलामी घर इस पर सहमत नहीं हुआ। उसने कहा कि अगर उसने इन वस्तुओं को नीलामी से वापस लेने की अनुमति दे दी तो इस पर बड़ी जवाबदेही पैदा हो जाएगी क्योंकि इन पर बोली लगाने के लिए 30 से अधिक लोगों ने पहले ही पंजीकरण करा लियाथा और कुछ लोग लिखित में भी बोली लगा चुके थे। जैसे ही नीलामीकर्ता ने इन वस्तुओं को विजय माल्या को बेचे जाने की घोषणा की तो वहां बड़ी तादाद में उपस्थित भारतीय समुदाय के लोग खुशी से झूम उठे। भारतीय समुदाय के एक-दूसरे को बधाई देने के कारण नीलामी गतिविधियां कुछ मिनटों के लिए रूकी रहीं। भारतीय समुदाय ने राहत की सांस लेते हुए कहा कि गांधी की धरोहरों को भारत में ही रखने का वादा पूरा हुआ। जिन वस्तुओं की नीलामी हुई उसमें बापू का चश्मा, चप्पल, पाकेट घड़ी, एक प्लेट और एक कटोरा शामिल है। विजय माल्या की तरफ से बोली लगाने वाले टोनी बेदी ने कहा कि वह देश के लिए बोली लगा रहे हैं और इस बिक्री का मतलब है कि गांधी की धरोहर अब भारत आ सकेगी।बोली लगाने वालों में एक व्यक्ति दक्षिण अफ्रीका का भी था। उसकी इन धरोहरों में काफी दिलचस्पी थी। बोलियां फोन और इंटरनेट के जरिए लगाई गईं। किसी भी बोली लगाने वाले की पहचान नहीं हुई। विजय माल्या का नाम भी बोली छूटने के बाद ही सामने आया।
उधर अमेरिकी न्याय विभाग ने एंटीकोरम आक्शनियर्स को एक नोटिस भेजा है कि वह इन वस्तुओं को अभी खरीदार को नहीं दे और उसे तब तक अपने पास रखे जब तक कि वह भारतीय अनुरोध पर कोई फैसला नहीं कर लेता। भारत सरकार ने गांधी के स्मृति चिह्नों की नीलामी रोकने संबंधी दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश को लागू करने के लिए न्याय विभाग से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था। इसके बावजूद नीलामी हुई। गांधी की धरोहरों की नीलामी से ठीक पहले नीलामी घर ने भी स्थिति स्पष्ट कर दी और कहा कि अमरीकी न्याय विभाग के फैसले के लिए ये वस्तुएं उसके पास ही रहेंगी।
इस नीलामी को लेकर इतनी दिलचस्पी जग गई थी कि नीलामी से पहले गांधी की दैनिक गतिविधियों का क्लिप दिखाया गया। नीलामी शुरू होने के तीन मिनट के भीतर 10 लाख डालर तक बोली पहुंच गई। जब बोली 18 लाख पहुंची तो जो व्यक्ति इन धरोहरों की नीलामी कर रहा था वह कुछ समय के लिए रुका। इसके बाद नीलामी खत्म हो गई। मूल रूप से एंटीकोरम आक्शनियर्स ने इन वस्तुओं का आधार मूल्य 20 हजार से 30 हजार डालर के बीच रखा था लेकिन मीडिया में चर्चा और भारत सरकार की ओर से दिलचस्पी दिखाए जाने से इसकी कीमतें बढ़ गईं और बोली करीब तीन लाख डालर से शुरू हुई थी।
नई दिल्ली में इस मामले पर बहुत बयान बाजियां हुई और हो रही हैं। महात्मा गांधी की निजी वस्तुओं की नीलामी रोकने के लिए लगाई गई अमेरिकी नीलामीकर्ता की शर्तों को भारत ने ठुकरा दिया और अब भारत सरकार इन वस्तुओं को वापस हासिल करने के लिए अमेरिका तथा अंतरराष्ट्रीय विधि एजेंसियों से संपर्क कर रही है। विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा ने कहा कि गांधीजी खुद ऐसी शर्तों के लिए राजी नहीं होते। भारत सरकार इस गणतंत्र के संप्रभु लोगों का प्रतिनिधित्व करती है और ऐसे किसी समझौते में शामिल नहीं हो सकती जहां संसाधनों का कुछ विशेष क्षेत्रों में आवंटन शामिल हो। केंद्रीय मंत्री के ऐसे बयानों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है।
विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा ओटिस की शर्तों पर कह रहे हैं कि उनको यह जानकारी होनी चाहिए कि भारत सरकार में विभिन्न योजनाओं के अतिरिक्त गरीबों की शिक्षा तथा ग्रामीण स्वास्थ्य पर पहले से ही बड़े पैमाने पर संसाधनों का आवंटन करने के नीतिगत संबंधी प्रावधान मौजूद हैं। ओटिस ने मांग की है कि भारत सरकार 78 देशों में गांधीजी के विचारों को प्रोत्साहित करने के लिए अपने दूतावासों की मदद करे, तो भारत सरकार पहले ही गांधीजी के इस दृष्टिकोण को प्रसारित करती आ रही है। अंबिका सोनी कह रही हैं कि दिल्ली उच्च न्यायालय पहले ही नीलामी पर स्थगनादेश जारी कर चुका है। लेकिन सवाल यह है कि वहां उस स्थगनादेश की परवाह नहीं की गई। गांधीजी के पौत्र तुषार गांधी ने भी ओटिस की मांग को अदूरदर्शितापूर्ण बताते हुए हैरानी जताई कि नीलामीकर्ता जल्दी जल्दी अपनी मांगोंऔर मकसद को बदल रहे हैं। ऐसी बातों पर अक्षरश: सहमत होना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल है।
इस मामले में भारत सरकार ने कई रंग बदलें। केंद्रीय पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी के इस दावे की कि भारत सरकार की सूझ-बूझ से ही बापू की विरासत देश में वापस आई की विजय माल्या ने पोल खोल ही दी। अंबिका सोनी का कहना था कि इस विरासत को हर कीमत पर वापस लाने के लिए भारत सरकार विजय माल्या के संपर्क में थी लेकिन विजय माल्या ने इस बात का खंडन कर दिया कि और कहा कि सरकार ने उनसे कभी संपर्क नहीं किया। खैर बापू का यह दुर्लभ सामान भारत के पास आ गया है इससे संतोष तो हुआ लेकिन उससे ज्यादा निराशा इस बात को लेकर हुई कि भारत सरकार ने इससे पहले इस विरासत की वापसी के कोई प्रयास नहीं किए। यदि ऐसे प्रयास किए गए होते तो आजपर्यटन मंत्री अंबिका सोनी को ऐसा झूठ न बोलना पड़ता जिसकी कि तुरंत बाद कलई खुल गई।