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न्यू यार्क। केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने यहां मेट्रोपोलिटन क्लब में आयोजित यूएआईबीसी-फिक्की गोलमेज बैठक में कहा कि 2008 में हुई वैश्विक वित्तीय मंदी से कोई भी देश अछूता नहीं रह सका, हालांकि 2009 की दूसरी छमाही में अधिकांश अर्थव्यवस्थाएं काफी हद तक मंदी से उबर गईं और विकास में फिर से प्रगति आई, लेकिन फिर भी संकट से उबरने की गति असमान ही रही। वित्तमंत्री ने कहा कि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में पहले के मुकाबले बेहद धीमी प्रगति हुई, जबकि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं जैसे- चीन और भारत ने लेटिन अमेरिका और अफ्रीका के साथ प्रगति की। ऐसा लगता है कि नीति निर्धारकों ने वृहद-आर्थिक नीति के इस्तेमाल में तेजी और तालमेल तथा बाज़ारों को खुला रखकर इतिहास से सबक लिया है।
प्रणब मुखर्जी ने कहा कि 2011 की दूसरी चौथाई में बहुत सी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के विकास में गिरावट आई और वे उभरते हुए बाजार वृ्द्धि में कमी तथा मुद्रास्फीति में तेजी का सामना कर रहे हैं। उन्नत अर्थव्यवस्थाएं, यूरो ज़ोन और अमेरिका ऋण संकट से जूझ रहे हैं, इससे वित्तीय बाजारों में घबराहट की स्थिति है। राजकोषीय और वित्तीय नीतियों के बावजूद बहुत से उन्नत देशों में बेरोजगारी चरम पर है। उन्होंने आगे कहा कि- उभरते बाज़ार, वैश्विक मंदी की समस्या से जल्दी उबर गए, लेकिन वे सामानों की बढ़ी हुई कीमतों, मुद्रास्फीति, वृद्धि में गिरावट और अस्थिर पूंजी प्रवाह का एक साथ सामना कर रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में बेहद सक्रिय उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत वैश्विक वृद्धि का प्रमुख संचालक बना हुआ है। मंदी से तीन वर्ष पूर्व नौ प्रतिशत से भी ऊपर की सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर के बाद भारत ने संकट के दौर यानि 2008-09 में 6.8 प्रतिशत की दर दर्ज की। इसके पश्चात इस संकट से तेजी से उबरते हुए मंदी के बाद के दो वर्षों में भारत की सकल घरेलू उत्पाद दर आठ प्रतिशत से ऊपर रही।
उन्होंने कहा कि भारत ने अपने विकास की राह में आने वाली कठिनाइयों से उबरने की क्षमता दर्शायी है। भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रगति न केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता का प्रमुख कारक है, बल्कि विश्व के लिए अपरिमित आर्थिक अवसरों का स्रोत भी है। उन्होंने कहा कि हम इस बारे में जागरुक हैं कि अपने विकास लक्ष्यों और राष्ट्र की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हमें निरंतर अपने काम में लगा रहना होगा। विकास की गति को आगे बढ़ाते हुए हमारी प्राथमिकता समावेशी और सतत विकास की और अग्रसर है, जिसमें कृषि, विनिर्माण और सेवा सभी तीन क्षेत्रों के ऊपर ध्यान केंद्रित करने पर बल है। मुखर्जी ने कहा कि- 1990 के दौरान शुरु किए गए आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे परिणामों को जन्म दिया है, इस प्रगति को आगे ले जाने के लिए हाल के महीनों में कुछ अहम कदम उठाए गए हैं। बीमा, बैंकिंग और पेंशन क्षेत्रों सहित वित्तीय क्षेत्र में कुछ मुद्दों पर संसद में कानूनों को प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने कहा कि हमारी विदेश व्यापार नीति काफी महत्वकांक्षी है और अगले तीन वर्षों में हम निर्यात को 500 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक दुगुना करने का लक्ष्य रखते हैं।
वित्तमंत्री का कहना है कि भविष्य में बुनियादी ढांचे में निवेश का एक बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र से आने की उम्मीद है और हम इस बात को मानते हैं कि बुनियादी ढांचे में निजी क्षेत्र के निवेश के लिए घरेलू दीर्घावधि पूंजी बाजारों का विकास बेहद अहम है। दिल्ली मुंबई औद्योगिक गलियारे और दिल्ली मुंबई समर्पित रेल मालभाड़ा गलियारे में दीर्घावधि निवेश की संभावनाएं खुल गई हैं। भारत-अमरीकी आर्थिक संबधों में एक दशक पहले के मुकाबले अब और अधिक मजबूती आई है और यह और अधिक पुष्ट हुआ है। अमेरिका, भारतीय कंपनियों के लिए तकनीकी गठजोड़ का सबसे विशाल स्रोत है। दोनों देशों के शैक्षणिक संस्थानों के बीच करीबी गठजोड़ की अपार संभावनाएं हैं और इस संभावना को खोलने के लिए संयुक्त प्रयास की जरुरत है, निजी व्यापार और वाणिज्यिक संबंध दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग में प्रमुख संचालक की भूमिका अदा करते रहेंगे।
अर्थव्यवस्था पर विश्लेषकों का मानना है कि अगले तीस वर्षों में भारत में वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं। आठ से नौ प्रतिशत की उच्च वार्षिक दर से, वृद्धि के अनुमान का समर्थन करने के पीछे कई कारण हैं। पहला यह कि पिछले कुछ वर्षों में बचत और निवेश के अनुपात में बढ़ोतरी हुई है। यह पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की उच्च वृद्धि का स्मरण कराता है। दूसरा, भारत की कामकाजी जनसंख्या युवावस्था में है, जिसमें आधी से अधिक जनसंख्या बीस वर्ष की आयु के भीतर है। तीसरा, मध्य वर्ग की बढ़ती हुई आय, घरेलू मांग में उछाल को पूरा करने की सामर्थ्य है। चौथा, भारत अपने बुनियादी ढांचे में तेजी से प्रगति कर रहा है।