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राग दरबारी श्रीलाल जी का महाप्रस्थान !

प्रेम जन्मेजय

श्रीलाल जी

श्रेष्ठ रचनाकार एवं मानवीय गुणों से संपन्न श्रीलाल शुक्ल नहीं रहे। वे बहुत दिनों से अस्वस्थ थे और निरंतर यह भी विश्वास था कि वे जल्दी स्वस्थ हो जाएंगे, परंतु हर विश्वास, विश्वास के योग्य कहां होता है? हिंदी साहित्य जगत और मेरे लिए यह एक व्यक्तिगत क्षति है। उनके जाने से एक ऐसा अभाव पैदा हुआ है, जिसे भरा नहीं जा सकता है। हरिशंकर परसाई की तरह उन्होंने भी हिंदी व्यंग्य साहित्य को, अपनी रचनात्मकता से जो सार्थक दिशा दी है, वह बहुमूल्य है। पिछले दिनों उनसे आखिरी बात तब हुई थी, जिस दिन उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई थी।
इक्कीस सितंबर को सुबह, एक मनचाहा, सुखद एवं रोमांचित समाचार, पहले आकाशवाणी ने और फिर अखबारों ने दिया- श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार।
‘नई दुनिया’ ने श्रीलाल शुक्ल के हवाले से समाचार में शीर्षक दिया कि
‘उम्र के इस पड़ाव में खास रोमांचित नहीं करता पुरस्कार- श्रीलाल।’
पढ़ते ही मन ने पहली प्रतिक्रिया दी कि श्रीलाल जी, यह पुरस्कार आपको तो खास रोमांचित नहीं करता पर मेरे जैसे, आपके अनेक पाठकों को, बहुत रोमांचित करता है, विशेषकर व्यंग्य के उस विशाल पाठक वर्ग को, जिसे लगता है कि यह पुरस्कार बड़े स्तर पर व्यंग्य की स्वीकृति की भी घोषणा है। इस समाचार को पढ़कर मेरा मन तत्काल श्रीलाल जी को फोन करने को हुआ, पर यह सोचकर कि इन दिनों उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, कुछ देर बाद फोन करूं तो अच्छा रहेगा, रुक गया, पर अधिक नहीं रुक पाया। मेरा मन अनत सुख नहीं पा रहा था और बार-बार इस जहाज पर आ बैठता था कि श्रीलाल जी से बात की जाए।
मन चाहे वृद्ध हो अथवा युवा, उसकी बात माननी ही पड़ती है। सुबह के सवा आठ बजे के लगभग लखनऊ में श्रीलाल जी की बहू, साधना शुक्ल को फोन लगाया। साधना जी का स्वर बता रहा था कि इस समाचार से वे बहुत प्रसन्न हैं। मैंने उन्हें बधाई दी और कहा-
'आज सुबह बहुत ही अच्छा समाचार मिला, आपको बहुत-बहुत बधाई।'
साधना जी ने कहा- आपको भी।'
मैंने कहा- 'श्रीलाल जी ने 'नई दुनिया' के संवाददाता से कहा है कि उम्र के इस पड़ाव में यह पुरस्कार कोई खास एनर्जी या रोमांच नहीं देता।' 'मगर उन्हें न करता होगा पर यह पुरस्कार उनके विशाल पाठक वर्ग को एनर्जी देता है, रोमांचित करता है।'
साधना शुक्ल ने कहा- 'बिलकुल, प्रेम जी, बहुत ही अच्छा लग रहा है।'
मैंने कहा- 'श्रीलाल जी को मेरी ओर से बधाई दीजिएगा।'
साधना शुक्ल ने मुझसे पूछा-'पापा से बात करेंगे?'
मैंने कहा- 'उनका स्वास्थ्य. . . बात कर पाएंगे?
साधना शुक्ल ने कहा- 'मैं उन्हें फोन देती हूं।'
कुछ देर बाद श्रीलाल जी का स्वर सुनाई दिया।
मैंने कहा- 'सर, प्रणाम, आपको इस सम्मान पर बहुत-बहुत बधाई।'
श्रीलाल जी बोले- 'धन्यवाद, प्रेम जी।'
मैंने दोहराया कि 'सर, आपने कहा है कि आपको उम्र के इस पड़ाव में यह पुरस्कार कोई खास एनर्जी या रोमांच नहीं देता, पर यह पुरस्कार मुझ समेत आपके विशाल पाठक वर्ग तथा हिंदी व्यंग्य, को एनर्जी देता है, रोमांचित करता है।'
श्रीलाल जी ने कहा-ऐसा नहीं है प्रेम जी, ऐसे पुरस्कारों से संतोष अवश्य होता है, इस उम्र में अक्सर साहित्यकारों को उपेक्षित कर दिया जाता है, यह पुरस्कार संतोष देता है कि मैं उपेक्षित नहीं हूं।' 
मै जानता था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है, इसलिए मैने कहाकि अच्छा सर अब आप आराम करें।'
श्रीलाल जी ने कहा- 'प्रेम जी, आपने मुझ पर अच्छी पुस्तक संपादित की है, इस पुस्तक ने मुझे रीबिल्ड किया है, इसकी एक प्रति और भिजवा सकेंगे?'
श्रीलाल जी उन पर केंद्रित 'व्यंग्य यात्रा' के अंक के संदर्भ में अपनी बात कह रहे थे, जिसे नेशनल पब्लिशिंग हाउस ने 'श्रीलाल शुक्ल: विचार विश्लेषण एवं जीवन' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित किया है।
मैंने कहा- क्यों नहीं सर, मैं प्रकाशक से कहकर भिजवाता हूं, प्रणाम।' मन चाह रहा था कि उनसे अधिक से अधिक बात हो, पर साथ ही मन उनके स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी भी निरंतर दे रहा था। श्रीलाल जी की साहित्य के प्रति गहरी समझ और उनके अध्ययनशील व्यक्तित्व से मैने बहुत कुछ सीखा है। वे बहुत सजग थे और 'हंबग' से चिढ़ के कारण वे लाग-लपेट में विश्वास नहीं करते थे। वे बातचीत में बहुत जल्दी अपनी आत्मीयता को सक्रिय कर देते थे। अपने लेखकीय व्यक्तित्व की एकरूपता को वे तोड़ते रहे हैं। ऐसे में जब अधिकांश साहित्यकार स्वयं को एक फ्रेम में बंधे होता देख प्रसन्न होते हैं, वे अपनी अगली कृति में अपने पिछले फ्रेम को तोड़ते दिखाई देते हैं। एक ही रचना से अति प्रसिद्धि प्राप्त करने के पश्चात वैसी ही कृति को दोहराकर उसे भुनाने तक का प्रयास श्रीलाल जी ने नहीं किया है।
उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के अनेक रंग हैं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रश्नचिह्न लगाते हैं। उनका लेखन एक चुनौती प्रस्तुत करता है। उन्होंने विषय एवं शिल्प के धरातल पर ऐसी अनेक चुनौतियां उपस्थित की हैं, जो सकारात्मक सृजनशील प्रतियोगिता का मार्ग प्रशस्त करती हैं। 'राग दरबारी' एक क्लासिक है तथा कोई भी क्लासिक दोहराया नहीं जा सकता। हां, 'राग दरबारी' के बाद व्यंग्य उपन्यास लिखे गए, पर वे चुनौती प्रस्तुत नहीं कर पाए। आप श्रीलाल जी पर कुछ भी सतही कहकर किनारा नहीं कह सकते हैं। वे विनम्र हैं, पर ऐसी सतई विनम्रता नहीं कि आप इसे उनकी कमजोरी मान लें।
मै श्रीलाल जी से अनेक बार मिला हूं। उनके साथ नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए हिंदी हास्य-व्यंग्य संकलन तैयार करते हुए, 'व्यंग्य यात्रा' के उन पर केंद्रित अंक को तैयार करते हुए। मेरा बहुत मन था कि उनसे एक बेतकल्लुफ बातचीत की जाए। इस बीच श्रीलाल जी की बीमारी की सूचनाओं एवं सुविधाजनक समय की तलाश के कारण समय खिसकने लगा। दिसंबर 2008 के प्रथम सप्ताह की एक तिथि तय कर ली गई और लखनऊ में गोपाल चतुर्वेदी से अनुरोध किया गया कि वे इसका सुभीता जमाएं, पर उनसे 11 दिसंबर की एक सुबह तय हुई। मैं दोपहर का भोजन कर सभी तरह से लैस हो, श्रीलाल जी से मिलने की तैयारी कर रहा था कि गोपाल चतुर्वेदी का फोन आयाकि प्रेम भाई, अभी श्रीलाल जी की बहु का फोन आया है कि 'आज सुबह कुछ साहित्यिक लोग आ गए थे और मेरे बार-बार मना करने के बावजूद उन्होंने बहुत समय ले लिया, श्रीलाल जी बुरी तरह थक गए हैं और आज शाम मिलना नहीं हो पाएगा।'
ऐसी घोर निराशा के क्षण मैंने बहुत जिए हैं, जब आपको लगता है कि सफलता हाथ से निकल गई, इस अप्रत्याशित निराशा से मैं सन्न रह गया। मैं तो दिल्ली से समय लेकर आया था और जो समय लेकर नहीं आए थे वे सफल हुए। शायद जीवन में सफलता की यही कुंजी है। मैं नहीं चाहता था कि अस्वस्थ श्रीलाल जी को परेशान करूं पर मेरे अंदर का संपादक बार-बार गोपाल चतुर्वेदी से प्रार्थना कर रहा था कि वे कुछ जुगाड़ बिठाएं, जिससे मेरी मनोकामना पूर्ण हो। वे भी मुझसे कम परेशान नहीं थे। अगले दिन 11 बजे से माध्यम की गोष्ठी थी, जिसकी अध्यक्षता गोपाल चतुर्वेदी को करनी थी और मुझे विषय परिवर्तन करना था। अगले दिन का ही समय मिला साढे दस बजे का। सोचा आधे घंटे में बातचीत करके 11 बजे लौटेंगे, कवि लोगों ने रतजगा किया है, साढ़े ग्यारह से पहले गोष्ठी क्या आरंभ होगी। आध घंटा मुझे उंट के मुंह में जीरे से भी कम लग रहा था, पर बकरे की मां को तो खैर ही मनाना पड़ता है। न होने से कुछ होना अच्छा। थोड़ी बहुत बात कर लेंगे और कुछ चित्र ले लूंगा।
मैने अपने बार-बार के आग्रह से गोपाल जी को विवश कर दिया कि हम वहां आध घंटा पहले पहुंचें और श्रीलाल जी के तैयार होने का उनके घर ही इंतजार करें। मैं इसके लिए भी तैयार था कि समय से पहले पहुंचने की वरिष्ठ लेखक की डांट मैं खा लूंगा, पर श्रीलाल जी सही मायनों में वरिष्ठ हैं, हम जब पहुंचे तो उन्होंने नाश्ता भी नहीं किया था, पर उन्होंने जिस गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया, उसे देख सरदी की गुनगुनी धूप भी शरमा गई होगी। हमारे समय से पूर्व पहुंचने का कहीं रोष नहीं। वो तो हमारे लिए नाश्ते का भी त्याग करने को तैयार थे, पर हमारे आग्रह और अपनी बहू साधना के अधिकार के सामने उनकी एक न चली। मैं जिस तनाव में जी रहा था, उससे मैं एकदम मुक्त हो गया। फोटो सेशन के समय, उनकी चारपाई पर, सम्मान के कारण उनसे कुछ दूर बैठकर जब मैं फोटो खिंचवाने लगा तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपने नजदीक करते हुए कहा- 'नजदीक आइए फोटो अच्छा आएगा।' उस दिन हम दस मिनट का समय लेकर गए थे पर दो घंटे का समय लेकर आए। वे अद्भुत अविस्मरणीय क्षण थे।
ऐसे अनेक क्षण मेरी अमूल्य धरोहर हैं।

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