मनीराम शर्मा
संयुक्त राज्य अमेरिका के लुइसाना प्रांत के सुप्रीम कोर्ट ने अपने नियम 39 में प्रावधान कर रखा है कि सभी न्यायाधीश प्रतिवर्ष अपनी संपत्तियों का ब्यौरा न्यायिक प्रशासक कार्यालय में दाखिल करें। निर्धारित अवधि के भीतर अथवा सही ब्यौरा प्रस्तुत नहीं करने पर न्यायाधीश को अर्थदंड से दंडित किया जाता है। ये ब्यौरे नागरिकों के निरीक्षण के लिए खुले और सार्वजानिक दस्तावेज हैं। इस प्रसंग में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अमेरिका में न्यायपालिका के विधायिका से सर्वोच्च होते हुए भी अमेरिकी कानून सख्त है और वहां कानून का राज्य है अर्थात कानून सभी के लिए समान है। भारतीय परिस्थितियों को देखें तो यहां तो स्वतंत्रता के 64 वर्ष बाद भी किसी न्यायाधीश को तो दूर किसी सरकारी चपरासी पर भी दंड लगाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। स्मरण रहे कि अमेरिका में उपरोक्त ब्यौरा समय पर प्रस्तुत नहीं करने पर शांति न्यायाधीश पर प्रतिदिन 50 डॉलर (2500 रुपये) और अन्य न्यायाधीशों पर प्रतिदिन 100 डॉलर (5000 रुपये) के अर्थदंड का प्रावधान है।
इसी साल 25 अक्टूबर को निर्णित एक प्रकरण का तथ्य इस प्रकार हैं कि शांति के न्यायाधीश कुक ने अपना ब्यौरा निर्धारित समय सीमा दिनांक 9.7.2010 के स्थान पर दिनांक 18.11.10 को प्रस्तुत किया। इस पर न्यायाधीश कुक ने यह कहकर अपना बचाव किया कि इस दौरान उनकी माँ कैंसर से पीड़ित थीं और अंततः उनका देहावसान भी हो गया, अतः वह समय पर ब्यौरा प्रस्तुत नहीं कर सके। तब भी न्यायिक आयोग ने यह अनुशंसा की कि न्यायाधीश कुक पर 132 दिन की चूक के लिए 6600 डॉलर अर्थदंड और 332.5 डॉलर खर्चा लगाया जाना चाहिए।
लुइसाना सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के मद्देनजर बाद में होफ्मन आदि के मामलों में न्यायिक आयोग ने अपनी अनुशंसा को संशोधित करते हुए मात्र 200 डॉलर अर्थदंड संशोधित कर लिया। अब सुप्रीम कोर्ट के पास विचारार्थ मुद्दा यह था कि क्या न्यायाधीश कुक ने जानबूझकर और साशय यह चूक की है? प्रकरण के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीमकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि यह कृत्य जानबूझकर और साशय नहीं है, अपितु उपेक्षापूर्वक किया गया है, अतः इन्हें 200 डॉलर के अर्थदंड से दंडित किया जाता है।
ध्यान देने योग्य है कि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीश कुक की माँ की कैंसर पीड़ा और मृत्यु की विकट परिस्थितियों के बावजूद उन्हें लापरवाही का दोषी मानते हुए एक दंडित किया, जबकि भारत में तो ऐसी परिस्थितयों में और वह भी एक न्यायाधीश को दंडित करना असंभव ही है। प्रधानमंत्री पीवी नृसिंह राव के समय में भारत में एक न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग पारित करने के सवाल पर संसद ही बंट गई थी, जिससे न्यायाधीश, महाभियोग से बच गए। हमारे यहां तो वकील बनावटी बहानों से आम आदमी को भी दंड से बचा लेते हैं, यद्यपि न्यायाधीश यह सब जानते हैं, फिर भी वे संवैधानिक बाध्यताओं के कारण ऐसे दोष के भागीदार बनने से नहीं बच पाते। अमेरिका में अन्य प्रकरणों में न्यायाधीश मियर्स को 500 डॉलर के अर्थदंड से, न्यायाधीश थ्रीट को 300 डॉलर के अर्थदंड से और न्यायाधीश ला ग्रेंग को 500 डॉलर के अर्थदंड से दंडित किया गया।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इतने छोटे से कदाचार के मामले में अमेरिका में न्यायाधीशों को भी दंडित कर दिया जाता है और दूसरी ओर महान भारत है, जहां स्पष्ट भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे अनेक न्यायाधीशों को भी अभयदान दे दिया जाता है। जनप्रतिनिधियों और न्यायाधीशों को क्या नहीं चाहिए कि वे न्यायपालिका के लिए उच्च मानकों वाली आचार संहिता का निर्माण कर उसे निष्ठा पूर्वक लागू करें?