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छठ पूजा अर्थात सूर्य की आराधना !

पंडित दयानंद शास्त्री

छठ पूजा/chhath puja

छठ हिंदुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह पूजा उत्तर भारत एवं नेपाल में बड़े जोर-शोर और संपूर्ण रीति रिवाज से की जाती है। छठ की पूजा बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में अत्यंत लोकप्रिय है। यह दीपावली पर्व के छठे एवं सातवे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी एवं सप्तमी को की जाती है। छठ, षष्टी का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ हिंदू पंचांग की छठवीं तारीख है। कार्तिक शुक्ल षष्टी को सूर्य षष्टी नाम से जाना जाता है ।
छठ, सूर्य की उपासना का पर्व है। वैसे भारत में सूर्य पूजा की परंपरा वैदिक काल से ही रही है। मान्यता है कि लंका पर विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की, सप्तमी को सूर्योदय के समय अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया। तब से छठ पूजा की जाती है।
यह भी माना जाता है कि छठ या सूर्य पूजा महाभारत काल से की जाती रही है। छठ पूजा की शुरुआत सूर्य पुत्र कर्ण ने की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वे प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया करते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। महाभारत में सूर्य पूजा का एक और वर्णन मिलता है। पांडवों की पत्नी द्रौपदी अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं। 
इसका सबसे प्रमुख गीत 'केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मे़ड़राय काँच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए' है।

सूर्य, ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है। इस कारण हिंदू शास्त्रों में सूर्य को भगवान मानते हैं। सूर्य के बिना कुछ दिन रहने की जरा कल्पना तो कीजिए ! संपूर्ण जन-जीवन के लिए इनका रोज उदित होना परम आवश्यक है। कुछ इसी तरह की परिकल्पना के साथ पूर्वोत्तर भारत के लोग छठ महोत्सव के रूप में इनकी आराधना करते हैं।
लोक आस्था का पर्व सूर्य षष्ठी यानी छठ पर्व कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से षष्ठी तिथि के बीच मनाया जाता है। इस बार यह तिथि आ रही है, तीस अक्टूबर से एक नवंबर 2011 के बीच। भारत में सूर्य उपासना के कई प्रसिद्ध लोकपर्व हैं, जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं। सूर्य षष्ठी के महत्व को देखते हुए इस पर्व को सूर्यछठ या डाला छठ के नाम से भी संबोधित किया जाता है। इस पर्व को बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल की तराई समेत देश के उन तमाम महानगरों में मनाया जाता है, जहां-जहां इन प्रांतों के लोग निवास करते हैं। यही नहीं, मॉरिशस, त्रिनिडाड, सुमात्रा, जावा समेत कई अन्य विदेशी द्वीपों में भी भारतीय मूल के प्रवासी छठ पर्व को बड़ी आस्था और धूमधाम से मनाते हैं। डूबते सूर्य की विशेष पूजा ही छठ का पर्व है, चढ़ते सूरज को सभी प्रणाम करते हैं। 
छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है, जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और दक्षिणायन के सूर्य की अल्ट्रावॉइलट किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं, क्योंकि इस दौरान सूर्य अपनी नीच राशि तुला में होता है। इन दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट, स्किन आदि पर पड़ता है। इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि न पहुंचे, इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है।
इसके साथ ही घर-परिवार की सुख- समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है। इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ है। सुहागिन स्त्रियां अपने लोक गीतों में छठ मैया से अपने ललना और लल्ला की खैरियत की ख्वाहिश प्रकट करती हैं।
छठ पर्व की सांस्कृतिक परंपरा में चार दिन का व्रत रखा जाता है। ये व्रत भैया दूज के तीसरे दिन यानि शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से आरंभ हो जाते हैं। व्रत के पहले दिन को नहा-खा कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, स्नान के बाद खाना। इस दिन पवित्र नदी में श्रद्धालु स्नान करते हैं। वैसे तो यह पर्व मूल रूप से गृहिणियों के लिए है, लेकिन आजकल पुरुष भी इसमें गृहिणियों को समान रूप से सहयोग देते हैं।
पहले दिन के व्रत में गंगा अथवा जो भी पवित्र नदी, गांव या घर के आस-पास बह रही हो, वहां पर स्नान के बाद जल को घर में लाया जाता है और उस पवित्र जल से सारे घर को शुद्ध किया जाता है। इस व्रत में सायंकाल ही कद्दू की सब्जी के साथ शुद्ध भोजन ग्रहण करना पड़ता है।
दूसरा दिन खरना कहलाता है, जो पंचमी के दिन पड़ता है। इस दिन भी घर की महिलाएं और पुरुष पूरे दिन उपवास रखते हैं और सांयकाल सूर्यास्त के बाद ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस दिन का मुख्य प्रसाद चावल की खीर होती है। पूरी, हलवा आदि भी केले की सब्जी के साथ खाए जाते हैं। इस दिन का प्रसाद परिवार में इष्ट मित्रों के साथ मिलकर ग्रहण किया जाता है। इसके उपरांत अगले 36 घंटों तक निर्जल रहना पड़ता है।
तीसरे दिन छठ पूजा होती हैं। जब सायंकाल के समय डूबते सूरज को चलते पानी में अर्घ्य दिया जाता है। इस पूजा के दौरान महिलाएं और पुरुष कार्निवल की तरह अपने आशियानों से निकलते हैं। सिर में पूजा की सामग्री, दीपक, गन्ना, धूप-अगरबत्ती सहित फूल-फल आदि एक टोकरी में लेकर छठ के गीत गाते हुए महिलाएं पूजा के घाटों पर पहुंचती हैं। वहां पर पंडित और पुरोहित संकल्प को मंत्रोच्चार के बाद सूर्य भगवान को विदाई के वक्त अर्घ्य दिलाते हैं। मान्यता है कि डूबते सूरज को पूजने से ही उनके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। इस दिन गन्ने का प्रसाद बांटना विशेष पुण्यदायक होता है, साथ ही घर में आकर धूप दीप और दीवाली की तरह रोशनी करके पूरी रात उपवास करते हुए भक्ति संगीत और गाना-बजाना होता है।
चौथे दिन को परना यानी विहान अर्घ्य कहते हैं। इस दिन प्रातः काल उगते सूरज को अर्घ्य देने के लिए पुनः नदी तट पर एकत्रित होते हैं। आज के दिन अंतिम पूजा की रस्म निभाई जाती है। सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के बाद लोग अपने परिजनों और इष्ट मित्रों से मिलते हैं और एक दूसरे को प्रसाद देते है। नदी तट पर पूरा बाजार लगा होता है।
छठ का पौराणिक महत्व अनादिकाल से बना हुआ है। रामायण काल में सीता ने गंगा तट पर छठ पूजा की थी। महाभारत काल में कुंती ने भी सरस्वती नदी के तट पर सूर्य पूजा की थी। इसके परिणाम स्वरूप उन्हें पांडवों जैसे विख्यात पुत्रों का सुख मिला था। इसके उपरांत द्रौपदी ने भी हस्तिनापुर से निकलकर गडगंगा में छठ पूजा की थी। छठ पूजा का संबंध हठयोग से भी है, जिसमें बिना भोजन ग्रहण किए हुए लगातार पानी में खड़ा रहना पड़ता है, जिससे शरीर के अशुद्ध जीवाणु परास्त हो जाते हैं।
चार दिनों के इस पर्व में आखिरी दो दिन ही ज्यादा चहल-पहल वाले होते हैं। आज के शहरीकरण के कारण लोग अपने मूल प्रांतों से अन्य शहरों में प्रवास करने लगे हैं। छठ पूजा पर अनेक प्रवासी अपने-अपने गांव-घरों को जाने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन प्रत्येक परिवार के लिए यह संभव नहीं हो पाता है। इसके अलावा हर बड़े महानगर में बहती नदी का भी अभाव है। दिल्ली में यमुना किनारे छठ पूजा के समय विशाल जनसमूह एकत्रित होता है। इसी तरह मुंबई, पुणे, बेंगलुरु और चेन्नै में भी लोग छठ पूजा के लिए उत्साहित होकर नदी और तालाबों की खोज करते हैं। वैसे तो चलते हुए पानी में ही छठ मनाने की परंपरा है, लेकिन लोगों की भीड़ को देखते हुए आज-कल शहरों में छोटी-छोटी बावड़ी और तालाबों में लोग उतर जाते हैं। इससे पूजा की रस्म अदायगी मात्र होती है, बाकी उन इलाकों में कूड़ा-करकट और जल-प्रदूषण बढ़ जाता है। समुद्र और नदी की पवित्रता को बचाए रखने के लिए छठ पूजा के लिए विशेष घाट आदि के बंदोबस्त किए जाते हैं, लेकिन इन सबके बावजूद छठ का त्योहार उन सबके लिए एक जरूरी पर्व है, जिन्हें अपनी परंपराओं से प्यार है।
वैसे तो प्रत्येक पर्व में ही स्वच्छता एवं शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता है, पर इस पर्व के संबंध में धारणा है कि इसे असावधानी से मनाना वर्जित है। इसलिए इसमें जीवन के सभी पक्षों को लेकर पूरी सावधानी बरती जाती है, यहां तक कि पूजा के निमित्त लाए गए फल- फूल भी अशुद्ध नहीं होने पाएं। इस पर्व के नियम बड़े कठोर हैं। सबसे कठोर अनुशासन बिहार के दरभंगा में देखने को मिलता है। संभवत: इसीलिए इसे छठ व्रतियों का सिद्धपीठ भी कहा जाता है। ऐसा समझा जाता है कि इस पूजा के दौरान अर्घ्यदान के लिए साधक जल पूरित अंजलि ले कर सूर्याभिमुख होकर जब जल को भूमि पर गिराता है, तब सूर्य की किरणें उस जल धारा को पार करते समय प्रिज्म प्रभाव से अनेक प्रकार की किरणों में विखंडित हो जाती हैं। साधक के शरीर पर ये किरणें परा बैंगनी किरणों जैसा प्रभाव डालती हैं, जिसका उपचारी प्रभाव होता है।
इस पर्व के संबंध में और भी कई कहानियां प्रचलित हैं। एक कथा यह है कि लंका पर विजय के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटे तो दीपावली मनाई गई। जब राम का राज्यभिषेक हुआ तो राम और सीता ने सूर्य षष्ठी के दिन तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना की। इसके अलावा एक कथा यह भी है कि सूर्य षष्ठी को ही गायत्री माता का जन्म हुआ था। इसी दिन ऋषि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र फूटा था। पुत्र की प्राप्ति के लिए गायत्री माता की भी उपासना की जाती है। एक प्रसंग यह भी है कि अपना राजपाट खो चुके और जंगलों में भटकते पांडवों की दुर्दशा से व्यथित दौपद्री ने सूर्यदेव की आराधना की थी।
कोशी भरने की मान्यता
इस अवसर पर पुत्र प्राप्ति या सुख-शांति और वैभव प्राप्ति या कोई भी इच्छा पूर्ति हेतु जो छठ मां से मन्नत मांगता है, वह पूरी होने पर कोशी भरी जाती है। इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा, जिस पर छ: दिए होते हैं, देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है। नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है, उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। छठ माता का एक लोकप्रिय गीत है–
केरवा जे फरेला गवद से ओह पर सुगा मंडरायउ
जे खबरी जनइबो अदिक से सुगा देले जुठियाएउ
जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरझायउ
जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ ना सहायउ
सूर्य भगवान का शुभ्‍ आशीष सभी को प्राप्त हो।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]