सुनील कुमार
नई दिल्ली। लंदन का लार्ड्स का मैदान। भारत के सामने करो या मरो की चुनौती। छक्के और चौके के लिए विख्यात भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान और बल्लेबाज महेंद्र सिंह धोनी की शर्मनाक विफलता यानि भारत का ट्वेंटी ट्वेंटी विश्वकप से बाहर होना, पूरी दुनिया ने देखा। धुरंधरों पर जो थू-थू हो रही है, उसकी सारे मीडिया वाले अपनी तरह से व्याख्या कर रहे हैं। भारत के सेमीफाइनल में प्रवेश के लिए आखिरी ओवर में 19 रन के विजय लक्ष्य का पीछा करते हुए उम्मीद की जा रही थी कि धोनी के बल्ले से अब सिक्स निकलेगा और अब चार रन निकलेंगे और फिर दो सिक्स, जिससे कि भारत विश्व कप की लड़ाई में लड़ता हुआ, सेमीफाइनल के मैदान में पहुंच जाएगा। लेकिन आखिरी ओवर में भारतीय ऑल राउंडर युसूफ पठान ने जैसे ही सिक्स लगाया तो भारत की हारती हुई लड़ाई, जीतती नजर आई। लेकिन जैसे ही बैटिंग के छोर पर धोनी लौटे और चार गेंदें बाकी थीं तो उन्हें खेलते हुए देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे धोनी की भुजाएं जवाब दे गई हों, बल्ला कुंद हो गया हो और वह हार मानकर अपनी टीम के साथ पैवेलियन लौट जाना चाहते हों। वही हुआ भी। सचमुच लगा कि वह महेंद्र सिंह धोनी नहीं बल्कि कोई चूका और थका हुआ खिलाड़ी खेल रहा है जो केवल दिखाने के लिए ही हाथ पांव फेंक रहा है।
भारत ट्वेंटी ट्वेंटी के इस विश्वकप से बाहर हो चुका है। बहुतों को इस सच्चाई ने रात भर सोने नही दिया। कई तो अपने 'नुकसान' के सदमें में ही नींद की गोलियां खा रहे होंगे। यूं तो इस मैच का रोमांच उसी समय समाप्त हो गया था जब विश्वकप से आस्ट्रेलिया और उसके बाद आयरलैंड बाहर हो गया था। आयरलैंड भी इस वर्ल्डकप में पूरी आक्रामकता से खेला और यदि उसकी किस्मत साथ दे गई होती तो उसने इस वर्ल्ड कप से वेस्ट इंडीज को भी बाहर कर दिया था। आस्ट्रेलिया का बाहर होना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह विश्वकप का विजेता है। जिस प्रकार से दुनिया भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिक्रियावादी मैच देखने के लिए उत्सुक रहती है, वही स्थिति आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच भी रहती है। अगर इंग्लैंड की धरती पर आस्ट्रेलिया नहीं खेल रहा है तो इंग्लैंड वालों के लिए यह उस तरह है कि जैसे कि भारत-पाकिस्तान के बीच मैच न लगने का कोई मजा नहीं है। यदि पाकिस्तान और भारत के बीच मैच नहीं हो रहा है, तो बहुतों के लिए विश्वकप सूना सा लगता है। ये चार देश, क्रिकेट के ऐसे सिरमौर हैं कि अगर इनमें से दो में से कोई एक भी नहीं है तो भी कोई क्रिकेट पर सट्टा लगाने को तैयार नहीं होगा। भारत और आस्ट्रेलिया का विश्वकप से बाहर होना अब केवल इस विश्वकप की हार-जीत की रस्म अदायगी कही जाएगी। यहां खिलाड़ियों के रनों की बौछार और हिरन की तरह से चौकड़ी भरकर उछलकर कैच पकड़ते खिलाड़ी के पराक्रम और साहस पर रोमांचित होकर वैसी तालियां बजाने वाले मौजूद नहीं होंगे। दर्शक यह भी देखना और अनुभव करना चाहते हैं कि मैदान में मैच का किस-किस अंदाज में लुत्फ उठाया जा रहा है।
भारतीय टीम की रणनीतियां, खिलाड़ियों के पराक्रम और भारतीय पराजय पर पूरा देश और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड जब भी जो भी मंथन करेगा, लेकिन भारत इस विश्वकप से तो बाहर हो ही गया है। इसका 2011 के लगते ही होने वाले विश्वकप पर बुरा असर पड़ना लाजिम है। भारतीय टीम का पहले जैसा साहस और पराक्रम क्यों जवाब दे रहा है? क्या यह टीम किसी अदृश्य और अनचाहे दबाव का सामना कर रही है? टीम में पिछले दिनों कुछ विवाद के स्वर सुनाई दिए थे क्या उनका असर टीम पर है? खोए हुए साहस को पुर्नजीवित करने के लिए भारतीय टीम के पास ट्वेंटी ट्वेंटी विश्वकप जैसा अब कोई अवसर भी तो नहीं है। कई भारतीय खिलाड़ियों पर इस विश्वकप की विफलता की गाज गिरेगी भी तो क्या? यह पूरा साल भारतीय टीम को इस हार के सदमे से उबरने में ही लग जाएगा। आईपीएल में अपने खराब प्रदर्शन के बाद भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी खराब प्रदर्शन के अवसाद से गुजर रहे हैं, इसलिए उन्हें और ज्यादा भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की खरी-खोटी का भी सामना करना पड़ेगा। टीम में खिलाड़ियों में भी कुछ ऐसे हैं जो इस विश्वकप की रणनीतियों में फिट नहीं बैठ रहे थे और एक दूसरे की अंदरखाने आलोचना में मशगूल थे। सवाल पूछा जा रहा है कि वीरेंद्र सहवाग से क्या झगड़ा हुआ? आरपी सिंह को गाड़ी में किसलिए घुमा रहे थें-किसी को नीचा दिखाने के लिए? मैच खेलने गए हैं या राजनीति करने?
ट्वेंटी ट्वेंटी विश्वकप से बाहर होना जहां भारत के लिए एक शर्मनाक खीझ है वहीं कई और भी प्रश्न उत्तर मांग रहे हैं। महेंद्र सिंह धोनी अति उत्साह में इंग्लैंड से तो नहीं हार गए? उनके पास पांच विकेट और 19 बॉल शेष थीं और यह लक्ष्य जीत के दायरे में था। इससे हार का खतरा था तो मगर धोनी इसे क्यों नहीं भांप पाए? और जब उन्हें पता था कि उनके पास अभी पांच खिलाड़ी मौजूद हैं तो फिर वह अपने स्वाभाविक खेल का प्रदर्शन क्यों नहीं कर सके? दूसरा यह है कि उन्होंने बल्लेबाजी का क्रम क्यों बदला? क्योंकि जब और जहां प्रतिष्ठा दांव पर हो तो वहां प्रयोग को आज्ञा नहीं दी जा सकती। धोनी ने ऐसा आत्मविश्वास क्यों जगाया कि जैसे कि उन्हें यह यकीन हो गया हो कि जय हो से ही विश्वकप जीतकर आ जाएंगे। वेस्टइंडीज से हार जाने के बाद भी उन्हें अक्ल नहीं आई कि आगे और भी बड़े खतरे होंगे इसलिए गंभीर रणनीति की जरूरत होगी। लेकिन कहा करते हैं कि अति उत्साह और अत्यधिक क्रोध में जिस प्रकार आदमी अपनी वास्तविकता भूल जाता है वैसा ही धोनी के साथ हुआ। कल तक जिस धोनी से बड़ी उम्मीदें की जा रही थीं, आज वही धोनी भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की नजर में भारी आलोचना का शिकार हो गया है। यह आलोचना केवल भारत में ही नही बल्कि अन्य क्रिकेट प्रेमी देशों में भी हो रही है जहां क्रिकेट प्रेमी निष्पक्ष भाव से खेल का विश्लेषण करते हैं।
बेशक यह एक खेल है, जिसमें हार और जीत होनी ही है। एक को जीतना दूसरे को हारना है। कभी भी किसी एक से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह ही तारणहार बन जाएगा। यहां भावुकता सबसे कमजोर और एक ताकतवर कमजोरी है, जो कि महेंद्र सिंह धोनी में नज़र आई है। अब महेंद्र सिंह धोनी के खेल की आलोचना शुरू हो चुकी है। इस हार के लिए सभी लोग किसी न किसी पक्ष को जिम्मेदार मान रहे हैं। ऐसा क्रिकेट के मास्टर ब्लास्टर कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर के साथ भी होता रहा है। फिर भी यदि इस खेल को केवल खेल की दृष्टि से देखा जाए तो इस हार से मिले जख्मों को जल्दी से भरने में मदद मिलेगी, इस वक्त इसकी बहुत जरूरत है क्योंकि अगला विश्वकप सर पर है। यदि यह मुद्दा बहुत आगे बढ़ा तो आने वाले विश्वकप को खेलने जाते समय भी भारतीय टीम हार की आशंका से डरी रहेगी। उसे जीत की अनुभूतियां कम ही होंगी। भारत के विश्वकप से बाहर होते ही महेंद्र सिंह धोनी खेल प्रेमियों से इस हार के कारण माफी भी मांग चुके हैं, जिससे क्षमाशील क्रिकेट प्रेमी उन्हें माफ तो कर ही देंगे। आवश्यकता इस बात की है कि लार्ड्स के मैदान पर इस हार को पकड़कर न बैठा जाए और आगे के विश्वकप की जोरदार तैयारियां की जाएं। उम्मीद की जाती है कि भारत 2011 के विश्वकप में ट्वेंटी ट्वेंटी विश्वकप की हार का बदला लेकर जीत का परचम लहराएगा।