दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम ने पंद्रहवी लोकसभा के चुनाव पर विश्लेषणात्मक टिप्पणी में साफ-साफ कहा था कि भारी राजनीतिक जटिलताओं के बावजूद देश में यूपीए सरकार की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। इसके कई कारण रहे हैं जिनमें कुछ राजनीतिक दलों का धन-बल, अपराधियों, माफियाओं के कंधों पर बैठकर चुनाव में उतरना, भ्रष्टाचार से आजिज आम मतदाताओं का प्रतिक्रियावादी मतदान एवं देश में लोकसभा का नया परिसीमन प्रमुख रूप से शामिल है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में जिंदा हुई और उत्तर प्रदेश में जातिवादी, भ्रष्टाचारी, अहंकारवादी मायावती को मतदाताओं ने सबक सिखाया। ब्लैकमेलरों और अवसरवादियों को भी ठिकाने लगाया। कांग्रेस को भी एक चेतावनी दी कि उसे जो अवसर दिया जा रहा है वह इसलिए है कि ताकि वह अपनी गलतियों से सबक ले और उन्हें सुधारे। मतदाताओं की इस लोकसभा चुनाव में यह भरसक कोशिश सामने आई है कि कांग्रेस को अवसर दिया जाए लेकिन कहीं-कहीं पर राजनीतिक समीकरण और क्षेत्रीय दलों की प्रबलता के कारण कांग्रेस बड़े कम अंतर से पीछे रह गई। मीडिया वालों और किंगमेकरो को धता बताते हुए मतदाताओं ने साबित किया कि वह ही असली किंगमेकर हैं।
इस चुनाव के चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में मीडिया के बड़े-बड़े लंबरदार भी बेनकाब हुए हैं। किसी को गिराने और किसी को उठाने की लाबिंग करने वाले समाचार चैनलों का चेहरा सामने आया। समाचार पत्रों में खबरों के नाम पर चुनाव विश्लेषणों के रूप में छापे और दिखाए गए विज्ञापन नाकाम हुए। इस तरह वे समाचार पत्र भी पाठकों के नजरों से गिरे जो ऐसा गंदा काम कर रहे थे। देश के कई प्रमुख समाचार पत्र और चैनल दावा करते हैं कि उनके आगे कोई नहीं है और वे ही सबकुछ हैं तो यह भी साबित हुआ कि उन्होंने किस गैरजिम्मेदाराना तरीके से पाठकों को मनोवैज्ञानिक और पेशेवर हथियारों से गिरफ्त में लेना चाहा। ये समाचार पत्र और न्यूज चैनल भूल बैठे कि अब वह पाठक नहीं है जो उनकी सुनकर चुप हो जाता था या उनकी सही-गलत मान लेता था। अब यह वो पाठक वर्ग है जो उनके अति-उत्साही रिपोर्टरों, विशेष संवाददाताओं से भी ज्यादा जागरूक और तुरंत ही झूठ पकड़ने वाला है। इसीलिए इस लोकसभा चुनाव में संचार माध्यमों का मतदाताओं पर कोई असर नहीं पड़ पाया जिसमें कि यह सच सर चढ़कर बोल रहा है कि जिस कांग्रेस को मीडिया वालों ने सत्ता की दौड़ से बाहर कर दिया था वास्तव में वह जोरदार तरीके से वापस आ रही है। यह सच किसी अखबार और न्यूज चैनल ने बढ़-चढ़कर नहीं बताया इससे कुछ दलालटाइप विश्लेषणकर्ताओं और प्रायोजित विचारों को प्रचारित करने वालों की पोल भी खुल गई।
कहना न होगा कि मतदान के दौरान और अंतिम चरण समाप्त होने और मतगणना की पूर्व संध्या पर न्यूज चैनलों पर जो मजमें लगाए गए थे उनसे एक बार तो ऐसा लग गया था कि इस बार किंगमेकरों की चांदी बन आई है। यहां मीडिया वालों ने कई ऐसे लोगो की महान राजनीतिज्ञ चाणक्य से तुलना करके उनको भी कलंकित करने से नहीं बख्शा। जागरूक नागरिकों ने कहा भी कि चाणक्य एक सफल रणनीति और कूटनीतिकार थे, उन्होंने हद दरजे़ की घटिया जोड़-तोड़ से नहीं बल्कि शासन प्रणाली से साम्राज्य बदले और ऐसी लोकप्रिय व्यवस्था कायम करने का काम किया जिसका आज तक कोई भी मुकाबला नहीं है। मगर मीडिया वालों ने इतने सारे चाणक्य पैदा कर दिए जिन्हें चारण और भाट कहना भी उचित नही होगा।
लोकसभा के लिए पांचों चरण का मतदान और उसके नतीजों पर जिस तरह सट्टेबाजी और बहस शुरू हुई थी उससे यह सवाल लगने उठ खड़ा हुआ था कि प्रधानमंत्री के पद की दावेदारी पेश किए जाने के बावजूद देश की बागडोर किसके हाथ में होगी? इसका फैसला राजनीतिक जोड़तोड़ से ही होना है, सिद्धांतों नैतिक मूल्यों, नीतियों और निष्ठाओं से नहीं होगा। सरकार के गठन के पहले ही सरकार में शामिल होने के लिए जो पेशबंदियां शुरू हुईं उनको देखकर एक बार लगा कि इस बार भी यह लोकसभा किसी बिल के पारित होने के लिए एक एक वोट के समर्थन के लिए तरसती नजर आएगी, क्योंकि जैसी तस्वीर दिखाई दे रही थीं, उसे देखते हुए इस लोकसभा में भी न जाने कितने ऐसे चेहरे होंगे जो जेल जाने के भय से सौदेबाजियां करेंगे और सरकार अल्पमत के डर से मूकदर्शक होकर उनकी हां में हां मिलाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएगी।
विश्व समुदाय की नजर में भारत एक महान लोकतांत्रिक देश है। विश्व पटल पर एकाधिकार जमाने वाले बड़े देश भारत में बहुत दिलचस्पी रखते हैं और इस देश की सरकार के गठन में भी उनकी दिलचस्पी होती है जैसे कि अमरीका की पूरी नजर भारत सरकार के गठन पर है। इसका कारण कोई आर्थिक एजेंडा नहीं, बल्कि आतंकवाद है जो अमरीका जैसे देशों की नाक में दम किए हुए है और उससे निपटने के लिए उन्हें भारत की बहुत जरूरत है। अमरीका अपने लिए भारत की कुर्बानी चाहता है समृद्धि नहीं। कुर्बानी भी इस शर्त पर कि पाकिस्तान के मामले पर उससे कोई सवाल-जवाब न हो लेकिन जब अमरीका का मामला फंसे तो भारत अपनी तोपों के साथ उसके लड़ाकू हवाई अड्डों पर खड़ा मिले। अमरीका की पूरी कोशिश होती है कि भारत में कम से कम उसकी नीतियों से अलहदा सोचने वाली सरकार न हो, खासतौर से उसमें उनकी भूमिका न हो जिन्होंने न्यूकिलेयर डील पर बहुमत हासिल करने के लिए भारत की संसद में सरकार को नाको चने चबवा दिए थे। अब अमरीका को भी संतोष हुआ होगा कि नई सरकार में उसके सबरदस्ती के विरोधियों का पत्ता साफ हो गया है। इस सरकार में ब्लैकमेलर राजनीतिज्ञों की अब ज्यादा नहीं चल पाएगी, यह अलग बात है कि कांग्रेस के भीतर भी कुछ लोग इस भूमिका में नजर आएंगे।
देश की जनता ने देख लिया है कि किस प्रकार से लोकसभा का चुनाव हुआ है और किस प्रकार के लोगों ने चुनाव में भाग लिया, कैसे राजनीतिक दलों ने समझौते किए और तोड़े। कैसे चुनाव आयोग कहीं किसी को मुर्गा बनाए हुए था और कहीं किसी के कुकर्म पर अपनी आंखें फेरे हुए था। इस बार चुनाव आयोग की निष्पक्षता और कार्य प्रणाली पर भी आंच आई है। सख्ती के कारण बड़ी चुनावी हिंसा तो नहीं हो पाई लेकिन जिस राज्य में जिस दल की सरकार थी उसकी मनमानी को भी वह नहीं रोक पाया। उत्तर प्रदेश में ऐसा खूब हुआ। यहां मतदाता परिचय पत्र होने के बावजूद बहुत जगहों पर गांवों और मोहल्लों में मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब थे। यह शिकायत हर जगह सुनने को मिली कि मतदाता सूची में उनका नाम नहीं है इसलिए मतदान परिचय पत्र होने के बावजूद मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सके। चुनाव नतीजों पर इसका असर देखने को मिला इसलिए चुनाव आयोग को चुनाव व्यवस्था में क्लीन चिट नहीं दी जा सकती।
इस बार राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष नेताओं के चुनाव प्रचार में सबसे ज्यादा चिंताजनक हालात देखे गए। उनके नेताओं ने सारी मान मर्यादाएं तार-तार कर दीं। राजनीतिक दलों ने न केवल गुंडों समाज और राष्ट्रविरोधी तत्वों को चुनाव लड़ाया अपितु उनके जीतने के लिए उनके नेता उन्हें सार्वजनिक रूप से महिमामंडित करने से भी नहीं चूके। एक रिकार्ड के अनुसार करीब एक हजार एक सौ चौदह दागियों ने लोकसभा में पहुंचने के लिए अपनी किस्मत आजमाई थी जिनमें अधिकांश चुनाव में धराशायी हुए। राजनीतिक दलों के प्रमुखों को देखिए तो वह और भी आगे निकल गए। लालू यादव तो वरुण गांधी पर बुलडोजर चलवाते नजर आए। राबड़ी देवी नीतिश कुमार की चरित्र हत्या पर ही उतारू हो गईं। वरुण गांधी ने भड़काऊ भाषण दिया तो उत्तर प्रदेश के रामपुर संसदीय सीट पर घटिया किस्म के बयानों की झड़ी ही लग गई। यहां कल्याण सिंह के बहाने सपा के महासचिव आजम खां ने अमर सिंह से दुश्मनी का बदला जया प्रदा से चुकाने की नाकाम कोशिश की जिसमें वह धराशायी हो गए। इस तरह के कई उदाहरण हैं जिनका मतदाताओं ने अपने तरीके से करारा जवाब पेश किया।
यूपीए के नेतृत्व में फिर से यूपीए का मार्ग प्रशस्त हुआ और मनमोहन सिंह को दोबारा से भारत के प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त हुआ। स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम ने लोकसभा चुनाव में अतिरेक से बचकर वही प्रस्तुत करने की कोशिश की जो कि सच या सच्चाईयों के करीब रहा है। विश्लेषणों के कुछ लिंक यहां शामिल हैं जिनमें हमारे अनुमान सटीक साबित हुए जिनमें हमने यह बात बहुत पहले ही प्रकट कर दी थी कि यूपीए की फिर से सत्ता में वापसी होगी।