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लंदन। 'जिस लाहौर नहीं वेख्या?नाटक?राजनीतिक नाटक नहीं है। हां यह संभव है कि विभाजन की पृष्ठभूमि होने के कारण राजनीति की अण्डरटोन सुनाई दे जाती हों, किंतु कहीं भी राजनीति इस नाटक का मुख्य स्वर नहीं है।' यह कहना था हिंदी के प्रख्यात नाटक लेखक डा असग़र वजाहत का, जो नाटक की बीसवीं वर्षगांठ पर नेहरू केंद्र में आयोजित कथा यूके एवं एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स के समारोह में बोल रहे थे।
डा वजाहत ने कहा कि 'यह नाटक दिखाता है कि आम आदमी, जिसका प्रतिनिधित्व नासिर काज़मी, मौलवी साहब या मिर्ज़ा साहब करते हैं, ठीक-ठाक और अच्छा-भला है। समस्या है राजनीतिज्ञों की या फिर उस तबके की जो कि साम्प्रदायिकता को अपना मज़हब मानती हैं, बुरे लोग कम हैं, मगर शक्तिशाली हैं।' इस नाटक का आयोजन अमरीका, आस्ट्रेलिया और भारत के बहुत से शहरों में किया जा रहा है।
समारोह के मुख्य अतिथि विरेंद्र शर्मा (एमपी) ने कथा यूके एवं एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स को धन्यवाद दिया कि उसने उन जैसे राजनीतिज्ञ को इतने महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्यक्रम में शामिल होने का मौक़ा दिया। उन्होंने असग़र वजाहत को बधाई देते हुए कहा कि यह नाटक भाई-चारे, आपसी प्यार, धार्मिक सहनशीलता का संदेश देता है। आम आदमी सांप्रदायिक नहीं होता। छोटे क्षेत्रों में आज भी हिंदू मुस्लिम मिलजुल कर रहते हैं। हिंदू वो नहीं जो मस्जिद तोड़े और न ही वो मुसलमान है जो मंदिर तोड़े। विरेंद्र शर्मा ने नाटक के वीडियो क्लिप एवं पाठ की बहुत सराहना की।
नाटक के इतिहास को समेटने वाली पुस्तक - २ डिकेड्स ऑफ़ ए प्ले (वाणी प्रकाशन) का काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी ने लोकार्पण किया और कहा, 'असग़र वजाहत ने जिस लाहौर नहीं वेख्या... को सिर्फ़ मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं रखा है, बल्कि दोनों समुदायों की सोच को समझने का प्रयास किया है। नाटक हमें यह बताता है की दोनों समुदायों के बीच ऐसा क्या हुआ जिससे सांस्कृतिक एकता, मोहल्लेदारी, प्रेम, विश्वास, भाईचारा सब ख़तम हो गए थे। लेखक ने यह दिखाया है की समाज विरोधी तत्व किस तरह से मज़हब का फायदा उठाते हैं। पात्रों का चित्रण तार्किक है तथा नाटक में पंजाब और लखनऊ की संस्कृति की मानवीय स्तर पर तुलना बहुत संवेदनशील है।'
कथा यूके के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा ने अतिथियों का स्वागत करते हुए इसे मंच के लिये त्रासदी बताया कि मूल हिंदी नाटकों की हमेशा से कमी महसूस की गई है। ऐसे में किसी हिंदी नाटक के बीस वर्षों में भिन्न भारतीय भाषाओं में बारह सौ से भी अधिक शो होना नाटक की महानता का जीता जागता सबूत है। असग़र वजाहत ने इस नाटक में केवल विभाजन की त्रासदी का चित्रण ही नहीं किया है। उन्होंने इस समस्या को आर्थिक, सामाजिक एवं साम्प्रदायिकता के स्तर पर प्रस्तुत किया है। एक लेखक के तौर पर 'जिस लाहौर नहीं वेख्या..' असग़र वजाहत के साहित्यि की सर्वोच्च उपलब्धि है। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का अद्भुत नमूना।
प्रोफ़ेसर मुग़ल अमीन ने नाटक पर गंभीर चर्चा करते हुए कहा, 'जिस लाहौर नहीं वेख्या.... की सादग़ी के पीछे यह सबक़ छिपा हुआ है कि सरवाइवल की जिस जंग में इंसान पैदा होता है, उसका तकाज़ा है कि ख़ुद ज़िंदा रहने के लिये ज़रूरी है कि दूसरों को ज़िंदा रखा जाए। ये सबक़ मेरा भी और तेरा भी।'
बीबीसी हिंदी रेडियो सेवा की पूर्व अध्यक्ष अचला शर्मा ने नाटक के एक दृश्य को श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया। नाटक के इस ड्रामाई पाठ में रवि शर्मा (पहलवान), बदी-उ-ज़मां (अलीम) एवं तेजेन्द्र शर्मा (नासिर काज़मी) ने भाग लिया। अचला शर्मा का कहना था, 'किसी रचना या किसी पुस्तक का सही मूल्यांकन शायद दस-बीस बरस बाद ही किया जा सकता है क्योंकि कालजयी रचना की पहचान समय, संदर्भ और परिस्थियां बदल जाने के बाद ही होती है। असग़र वजाहत का नाटक- जिस लाहौर नहीं वेख्या- की प्रासंगिकता मेरी नज़र में, मज़हब को लेकर फैली भ्रांतियों और आम आदमी के मन में व्याप्त विभ्रम पर वह बहस है जो आज भी उतनी ही अहम है जितनी विभाजन के समय या बीस वर्ष पहले रही। बहस आज भी जारी है, भले ही संदर्भ, परिदृश्य और पात्र बदल गए हैं।'
शमील चौहान ने अपनी गहरी आवाज़ में नाटक में इस्तेमाल की गई नासिर काज़मी की एक ग़ज़ल गा कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। पत्रकार अजित राय ने कार्यक्रम के दौरान असग़र वजाहत से बातचीत की।
कार्यक्रम में भारत से मनोज श्रीवास्तव (कवि-भोपाल), प्रीती वाजपेयी (कवियत्री-लखनऊ), आनन्द कुमार ( हिंदी एवं संस्कृति अधिकारी), आईएस चुनारा, ललित मोहन जोशी, विजय राणा, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, केसी मोहन (पंजाबी), केबीएल सक्सेना, महेन्द्र दवेसर, कादम्बरी मेहरा, डा हबीब ज़ुबैरी, मंजी पटेल वेखारिया, उर्मिला भारद्वाज, अनुज अग्रवाल (प्रकाशक) आदि मौजूद थे।