दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। दूसरों से बेमेल समझौतों और अपने थके हुए सलाहकारों की नाकामियों से जूझती कांग्रेस कभी-कभी अपने भले के भी काम कर जाती है, जिनकी उससे कम ही उम्मीद होती है, चाहे वे जाने में हो जाएं या अनजाने में। उत्तर प्रदेश के मामले में कांग्रेस ने मुंह की खाने का काम किया है तो उसने दलितों के मामले में अपने दिग्गज दलित नेता बाबू जगजीवन राम का कर्ज उतारने का प्रयास करते हुए, उनकी पुत्री और सासाराम (बिहार) से सांसद मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी देकर देश में महिला आरक्षण की मांग पर कई बार उठे तूफान को प्रभावहीन करने की रणनीति भी अपनाई है। मीरा कुमार से कम से कम तीन लक्ष्य सध रहे हैं, एक- मीरा कुमार दलित हैं, देश के दिग्गज नेता बाबू जगजीवन राम की पुत्री हैं, कुशल राजनयिक और अत्यंत शिष्ट महिला और राजनीतिक रूप से परिपक्व हैं। जब देश में दलित राजनीति को लेकर और भी कई राजनेता हाथ पांव मार रहे हों और बसपा जैसे राजनीतिक दल और उसकी अध्यक्ष मायावती, जातीय आधार पर दलितों पर एक छत्र राज करने की कोशिशों में लगी हों, तब मीरा कुमार का अपने पिता की परंपरागत सीट सासाराम से जीतकर आना और लोकसभा अध्यक्ष पद पर आसीन होना, मायावती सहित उन लोगों को हमेशा मुश्किल में खड़ा रखेगा जो दलित राजनीति और महिलाओं की उपेक्षा का राग अलापकर देश में राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करते आ रहे हैं।
पिछली लोकसभा में महिला आरक्षण का मुद्दा हर सत्र में और लोकसभा के बाहर जितनी बार भी उठा और उसे लेकर संसद में गतिरोध आया वह किसी न किसी रूप से शांत तो किया जाता रहा लेकिन उसका समाधान कोई राजनीतिक दल नहीं कर पाया। महिलाओं को कितना आरक्षण मिले इस विवाद ने किसी भी राजनीतिक दल को निष्कर्ष तक नहीं पहुंचने दिया। विभिन्न अवसरों पर राजनीतिक दलों की बैठकें हुईं और समितियों के गठन और उनकी रिपोर्ट के बाद मामला ठंडे बस्ते में ही गया। मुद्दा इस बार भी उठेगा लेकिन उसके तेवर अब शायद ही उतने तीखे रह पाएं क्योंकि मीरा कुमार की लोकसभा अध्यक्ष पद पर पदस्थापना से कांग्रेस और उसके सहयोगी महिला मामलों में तीखे हमलों से राहत पा गए हैं। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान बसपा का हुआ है जो कि दलितों की उपेक्षा के नाम पर अनर्गल आरोप लगाने में माहिर है और इकलौती दलित नेता बनकर दलित वोटों का राजनीतिक सौदा करती आ रही है। कदाचित अब दलित समाज मायावती के आरोपों को उतना महत्व नहीं देगा और यह भी कि यदि मायावती मीरा कुमार पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हमले करती हैं तो उसे भी बर्दाश्त नहीं करेगा।
मीरा कुमार के राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रबंध की कोई तुलना नहीं है। उन पर ऐसे आरोप भी नहीं है जो उन्हें बाकी समाज से अलग-थलग करते हों। बिजनौर के लोकसभा चुनाव में मीरा कुमार ने राजनीति में कदम रखा था। उनके सामने बिहार के ही दलित नेता राम विलास पासवान और आज दलितों की पुरोधा कही जाने वाली मायावती भी मुकाबले पर थीं। दलित मतों का विभाजन इन्हीं के बीच हुआ जिसमें राम विलास पासवान ने लोकदल के प्रत्याशी के रूप में मीरा कुमार को जबर्दस्त टक्कर दी इस चुनाव में मायावती की जमानत जब्त हो गई थी। मीरा कुमार को लगभग हर वर्ग समुदाय का वोट मिला था जबकि मायावती को केवल दलित वोटों पर ही संतोष करना पड़ा। मायावती को यह वोट भी जातीय नफरत पैदा करके ही मिला था जो कि आज सर्वजन हिताय और समतामूलक समाज की बात करती हैं। मीरा कुमार बिजनौर के बाद फिर दिल्ली चली गईं और दिल्ली से अपने पिता की परंपरागत सीट सासाराम पहुंची और इस बार वहां से जीतकर लोकसभा में आई हैं। मीरा कुमार ने अपने को राजनीति में सफल बनाने के लिए काफी संघर्ष किया है यह संघर्ष इसलिए भी मायने रखता है क्योंकि उनके सामने कई सजातीय नेताओं ने भी अपने मोर्चे खोले हुए हैं। बाबू जगजीवन राम के बाद दलितों में जबर्दस्त निराशा का दौर आया था जिसका लाभ बसपा के संस्थापक कांशीराम ने उठाया लेकिन वे भी उत्तर प्रदेश के बाहर इसका लाभ नहीं उठा सके।
इस राजनीतिक घटनाक्रम के बाद अब बसपा के दलितों में भी मायावती के अलावा मीरा कुमार के रूप में एक विकल्प सामने आ गया है इसीलिए कहा जा रहा है कि मीरा कुमार का लोकसभा अध्यक्ष बनना कम से कम उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के लिए चिंताजनक जरूर है। मीरा कुमार के सामने मायावती कहीं भी नहीं टिकती हैं भले ही फिलहाल दलितों का एक बड़ा वर्ग मायावती के भ्रम में उलझा हुआ है। योग्यता के मामले में भी मायावती, मीरा कुमार के सामने जीरो हैं। मीरा कुमार भारतीय विदेश सेवा से इस्तीफा देकर राजनीति में आई हैं जबकि मायावती ने बसपा के संस्थापक अध्यक्ष कांशीराम की विरासत पर जिस प्रकार कब्जा किया है उसे सभी जानते हैं। मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनाने का लाभ कांग्रेस को जरूर मिलेगा इससे विश्व समुदाय में भी एक संदेश गया है कि भारतीय लोकतंत्र जिन विशेषताओं के लिए जाना जाता है उनमें एक सच यह भी है कि वहां रंगभेद के लिए कोई स्थान नहीं है। भारत में समय-समय पर इस सच्चाई की पुष्टि भी हुई है जब देश के सर्वोच्च पदों पर दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक समाज के लोगों ने राजनीतिक अवसरों का लाभ उठाया है। एक तरफ जब पश्चिम देशों में आज भी रंगभेद कायम है तब भारत जैसे विशाल देश में ऐसे राजनीतिक फैसले भारत की राजनीतिक विश्वसनीयता को और मजबूत करते हैं।
चौंसठ वर्षीय मीरा कुमार ने 1985 में भारतीय विदेश सेवा की नौकरी छोड़कर राजनीति में प्रवेश किया था। विधि स्नातक और अंग्रेजी में मास्टर डिग्री प्राप्त मीरा कुमार 1973 में भारतीय विदेश सेवा के लिए चुनी गई थीं। उन्होंने स्पेन, ब्रिटेन और मारीशस में भारतीय राजदूत के रूप में अपनी सेवाएं दीं।भारतीय विदेश सेवा की नौकरी छोड़कर राजनीति में कदम रखने वाली मीरा कुमार देश की पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष बनीं हैं। राजनयिक से राजनेता बनीं मीरा कुमार पहली बार 1985 में कांग्रेस से उत्तर प्रदेश के बिजनौर लोकसभा क्षेत्र से सदस्य चुनी गईं थीं। पूर्व उप प्रधानमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता बाबू जगजीवन राम और इंद्राणी देवी की संतान मीरा कुमार सबसे पहले पीवी नरसिंह राव सरकार में उपमंत्री बनाई गईं। इसके बाद वर्ष 2004 के चुनाव में संप्रग के सत्ता में आने पर सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग की कैबिनेट मंत्री बनीं। कांग्रेस में विभिन्न पदों पर काम कर चुकीं मीरा कुमार का 2002 में कांग्रेस नेतृत्व से मतभेद हो चुका है, लेकिन, दो साल बाद वह फिर कांग्रेस में लौट आईं। मीरा कुमार दो बार दिल्ली की करोलबाग संसदीय सीट का भी प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। इकतीस मार्च 1945 को पटना में जन्मीं मीरा कुमार ने दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कालेज और मिरांडा हाउस से उच्च शिक्षा हासिल की। एक बेटे और दो बेटियों की मां मीरा कुमार एक निशानेबाज भी हैं और शूटिंग की विभिन्न स्पर्धाओं में कई पदक जीत चुकी हैं। मीरा कुमार के पति मंजुल कुमार सर्वोच्च न्यायालय के वकील हैं।
सरकार की तरफ से लोकसभा उपाध्यक्ष पद के लिए निमंत्रण मिलने के बाद भाजपा ने यह पद आदिवासी वर्ग के नेता और खूंटी के सांसद करिया मुंडा को दिया है। कांग्रेस की सांसद मीरा कुमार का लोकसभा अध्यक्ष के लिए नाम तय होने के बाद भाजपा को अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा है। पहले भाजपा इस पद के लिए किसी महिला को ला रही थी लेकिन यूपीए से मीरा कुमार का नाम तय हो जाने से भाजपा को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। उसने मीरा कुमार के कार्ड का उत्तर देते हुए एक आदिवासी को अवसर दिया। परंपरानुसार सभी सरकारें इस पद को मुख्य विपक्ष को देती रही हैं, इसलिए इस बार यह पद भाजपा के खाते में गया। भाजपा को औपचारिक निमंत्रण देने के बाद इस मामले पर केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री पवन कुमार बंसल ने विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात कर इस मामले पर चर्चा भी की, लेकिन पार्टी से साफ किया है कि इसे वह अपने पास ही रखेगी। इस पद के लिए भाजपा में जो दो नाम सबसे ऊपर थे उनमें रायपुर के सांसद रमेश बैस पिछड़ा वर्ग से व खूंटी के सांसद करिया मुंडा आदिवासी हैं। दोनों ही कई बार सांसद रह चुके हैं।