दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। सावधान! सुरसा के फैले मुंह की तरह यूपीए सरकार का बजट सत्र आ गया है। देश के लोकसभा चुनाव में जनता का वोट लूटने के लिए यूपीए सरकार ने पिछले साल जो लोक लुभावन बजट बनाया था, उसकी पूरी कीमत इस बजट में वसूल की जाएगी। बजट के पहले ही पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा कर बता दिया है कि भारत की जनता सस्ते तेल के मुगालते में न रहे। इन पूरे पांच साल में से चार साल तक एक-एक की खाल उतार ली जाएगी। नए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी अभिजात्य वर्ग को छोड़कर बाकी जनता के लिए कोई राहत नहीं दे सकते हैं। यही बजट की असली सच्चाई है। संकट ही ऐसा है और वे किन्ही मामलों में राहत देंगे भी तो दूसरे मामलों में हिसाब बराबर कर लिया जाएगा। सरकार के सामने एक और मुश्किल आ गई है और वो यह है कि देश में मानसून ने आंखें दिखा दी हैं बाकी काम बजट में पूरा हो जाएगा। इसलिए देश की जनता जो है, उसी में संतोष रखकर आगे के संघर्ष के लिए तैयार हो जाए।
भारत की जनता के लिए बजट काफी प्रतीक्षोन्मुख होता है जिसका एक बड़ा पक्ष घर के रसोई के दृष्टिकोण से देखा जाता है। रसोई अभिजात्यवर्ग से लेकर फुटपाथ पर जीवन यापन करने वाले के लिए समान महत्व रखती है। रसोई के उपभोग की वस्तुएं और खाद्यान्न का उपयोग सभी करते हैं जिस पर कि अधिक प्रकाश डालने की आवश्यकता नही है। प्रश्न ये है कि जन उपयोगी वस्तुएं बाज़ार में सस्ती मंहगी इन दोनों वर्गों के जीवन स्तर को देखकर मिलती हैं? इन तीन दशक में बजट का स्वरूप हर बार बिगड़ैल और तीखा दिखाई दिया है। बजट ने रूला दिया है और न जाने कितनों को भूखे सोने और मरने को भी मजबूर किया है। जो भूखे सोते हैं उनकी संख्या भारी है और दिन महीने साल में बजट उन्हीं पर ही सबसे ज्यादा कोड़े चलाता है।
पिछले साल लोकसभा चुनाव की चर्चाओं के बीच देश का बजट जब संसद में पेश होने की बात हो रही थी तो हर किसी को यह एहसास था कि तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम जो बजट लाएंगे वह बहुत ही मनमोहक और प्रशंसा अर्जित करने वाला होगा लेकिन चुनाव बाद जो बजट आएगा वह महाभयानक और आगे के लिए और ज्यादा त्रास देने वाला होगा। जनआंदोलनों में जितनी बसें फूंकी गई हैं, रेलगाड़ियां जलाई गई हैं, सरकारी और गैरसरकारी संपत्तियों का नुकसान किया गया है, हड़ताले की गई हैं, सरकारी कर की धड़ल्ले से चोरियां हो रही हैं, कर्ज माफी हुई है, नकली नोट चल रहे हैं, हमले हुए हैं, ऊर्जा और देश की कानून व्यवस्था के नाम पर जो खरबों रूपए का नुकसान हुआ है और राजकोष को उप्र की मुख्यमंत्री मायावती के अंदाज में ठेकेदारों को लुटाया गया है, उसकी भरपाई क्या कहीं और से होगी? सब वसूली जनता से होगी, यानि करे कोई और भरे कोई और।
वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी भी कोई रहस्यात्मक तरीके से देश का बजट मनमोहक बनाने से रहे। मंदी की मार ने देश को खूब तोड़ा है। भले ही यह दावा किया जा रहा हो कि मंदी का दौर खत्म हो रहा है। बाकी कसर सत्यम कंप्यूटर जैसे भ्रष्टाचारी गिरोहों ने पूरी कर दी है। सारे कुओं में ही भांग घुली है। यदि उम्मीद की भी जाए कि बजट, रसोई के अनुकूल होगा तो उससे जनित वस्तुएं क्या बाज़ार में मुफ्त मिलेंगी? यह केवल एक भ्रम है। वित्त मंत्री के सामने बहुत बड़ी चुनौती है, सबको भरपेट भोजन देने और पीने का पानी देने की। कपड़ा और मकान अब बजट से बाहर जा रहे हैं। एक वर्ग अमीर होता चला जा रहा है और दूसरा वर्ग गरीब होता जा रहा है। प्रणव मुखर्जी के पास अगर इस दूरी को कम करने का कोई फार्मूला हो तो वह पेश करें, जनता आप के चरण धोकर पिएगी, अन्यथा संसद में अन्य वित्त मंत्रियों की तरह से उस ब्रीफकेस के साथ बजट पेश करने न आएं जो कि कुछ समय के लिए देश की धड़कने रोककर सनसनी पैदा किए रहता है। वित्त मंत्री को इस ब्रीफकेस की लोक दिखावा संस्कृति से मुक्त करना होगा क्योंकि ब्रीफकेस का मतलब ही बदल रहा है।
बजट पूर्व सर्वेक्षण में देश की अर्थव्यवस्था को लेकर बड़े दावे किए गए हैं, और आर्थिक सुधारो के प्रयासों की बड़बोली बात की गई है जो मौजूदा राजनीतिक माहौल से कतई मेल नहीं खाती है। यह तो तब भी संभव नहीं हो सका जब केंद्र में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार थी, आज तो आप संसद में एक-एक वोट के मोहताज हैं। वास्तविकता तो यह है कि बजट जैसे शब्द का अभी तक सम्मानजनक उपयोग नहीं हो सका है और अब तो इसके जानकार भी नहीं मिल पा रहे हैं। लोगों को और ज्यादा भ्रम में रखने से काम नही चलेगा, इससे निराशा होगी और उसकी प्रतिक्रिया में जनाक्रोश पनपेगा।जनता अपनी अर्थव्यवस्था का सच और उसके विकारों का समाधान चाहती है। वह बाज़ार में रोज के भारी उतार चढ़ाव से तंग आ चुकी है। वह संसद में और बाहर भी लच्छेदार कविता और शायरी से सजे-दार्शनिक वाक्यों को सुनते सुनते ऊब चुकी है। उसे साफ-साफ बताया जाए कि भारत की अर्थव्यवस्था वास्तव में कैसी है। टैक्सों को लगा कर बजट घाटा पूरा करने की कोशिश कितनी सफल हुई है?
कारपोरेट जगत का देश के विकास में ज्यादा से ज्यादा सहयोग देने के लिए और क्या किया गया? कुछ ही औद्योगिक घराने हैं जो बजट में घोषित योजनाओं का भरपूर लाभ उठाते हैं बाकी के लिए बजट है ही कहां? केंद्र की भारी बजट वाली जनकल्याण की नरेगा जैसी योजनाएं राज्य सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के लिए आदर्श और वरदान बन गयी हैं क्या इसका उपचार भी है कि नहीं? फिजूलखर्ची और केंद्र के धन का दुरूपयोग रोकने के कितने मामलो में कार्रवाई की गई? भारत में विदेशी पूंजीनिवेशकर्ताओं में असुरक्षा की भावना पैदा हो रही है इसके लिए क्या किया गया है? कई ऐसे सवाल हैं जिनका कि बजट में कभी भी ईमानदारी से जवाब नहीं मिलता है।
स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम ने लोकसभा चुनाव के पहले लिखा था 'वोट लेने के बाद खाल खींच लेने वाला यह बजट' आज वह दिन आ गया है और बजट इस लाइन पर ही आधारित है। इसमें जो कोशिशें सामने आएंगी वह जल्दी ही अपनी सच्चाईयां उगलेंगी। सच तो यह है कि देश की इन राजनीतिक दलों और इन सरकारों में बैठे अधिकांश नेताओं और अफसरों को बजट की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट की चिंता है, कहीं मंदिर और मस्जिद की चिंता है या कहीं उन मुद्दों की जरूरत है जो संसद में पांच साल तक नेताओं को सुर्खियों में बनाए रखें ताकि अगली लोकसभा के लिए अपना बुढ़ापा सुधारने का मौका मिल जाए। स्वतंत्र आवाज़ ने जो एक साल पहले लिखा था उसका फिर से लिंक यहां पर दिया जा रहा है आप चाहें तो उसको भी पढ़ सकते हैं।