सियाराम पांडेय 'शांत'
पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ का पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह हिंदुस्तान में जीरो और पाकिस्तान के हीरो बन गए हैं। पाकिस्तान की सरजमीं पर जहां उनकी तारीफ के कसीदे पढे़ जा रहे हैं। वहां के अखबार और लेखक उनकी ऐतिहासिक समझ को जहां दाद दे रहे हैं, वहीं भारत में वे साढ़े तीन दशक की सेवा के बाद भी अपने ही दल में अस्पृश्य हो गए हैं। कल तक उनके साथ रहने वाले नेता उनसे कुछ इस तरह बगलें झांकने लगे हैं जैसे उनके विचारों से ही नहीं, उनसे भी उनका कभी रिश्ता-नाता ही न रहा हो। इसमें शक नहीं कि विवादों में रहना जसवंत सिंह का शगल रहा है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही समान भाव से उनकी आलोचना कर रहे हैं।
जुलाई 2006 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा 'ए कॉल टू ऑनर: इन सर्विस ऑफ इमरजेंट इंडिया' भी चर्चा के केंद्र में रही थी। इस किताब में उन्होंने इस बात का दावा किया था कि पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल में प्रधानमंत्री निवास में एक ऐसा भेदी था जो अमेरिका को प्रधानमंत्री निवास की गुप्त जानकारियां प्रदान किया करता था। इसे लेकर पूरे देश में राजनीतिक स्तर पर काफी बावेला हुआ था और जसवंत ने उस भेदी का नाम बताने की भी बात कही थी। यह अलग बात है कि कांग्रेस के तमाम प्रतिरोधों के बावजूद वे उस भेदी का नाम बता पाने में विफल रहे थे। कुछ इसी तरह की कारस्तानी उन्होंने कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना पर किताब लिखकर अंजाम दे दी है और इस एक घटना ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शांत आशियाने में बम विस्फोट जैसा काम किया है।
भाजपा को सपने में भी उम्मीद नहीं रही होगी कि वर्ष 2001 में बेहतरीन सांसद चुने गए जसवंत सिंह उसकी अपनी विचारधाराओं के उलट व्यवहार कर सकते हैं। यह अलग बात है कि भाजपा में हाशिए पर आ गए जसवंत सीधे तौर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर करना चाहते लेकिन उन्होंने इतना तो कह ही दिया है कि बगैर उन्हें पढ़े हनुमान से रावण बना देना न्यायोचित नहीं है। कभी भाजपा के थिंक टैंक रहे केएन गोविंदाचार्य की भी कमोवेश यही राय है। उनका मानना है कि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के पहले उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया। यह इस बात का प्रमाण है कि भाजपा से चिंतन का तत्व गायब हो गया है।
जसवंत उन नेताओं मे शुमार रहे हैं जिन्होंने पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा की हार के बाद पार्टी के बड़े नेताओं को घेरने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। हार पर चिंतन करने की बजाय अपना गला बचाने की चिंता भाजपा को कहां ले जाएगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। राजनाथ एंड कंपनी इस संकट से उबरने के अनेकानेक प्रयास तो कर ही रही थी लेकिन वह जसवंत को भी देख लेना चाहती थी। बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया और जसवंत सिंह अपने ही बुने मकड़जाल में उलझकर रह गए। बिना कोई वक्त गंवाए राजनाथ एंड कंपनी ने उन्हें दूध की मक्खी की तरह पार्टी से निकाल बाहर किया। अकेले भाजपा के कुछ बड़े नेता ही जसवंत को अपनी आंखों की किरकिरी मानते रहे हों, ऐसा नहीं है। वे कभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भी पसंद नहीं रहे।
कांधार विमान अपहरण कांड को लेकर तो उनकी राष्ट्रीय स्तर पर किरकिरी हुई थी। वे कुछ खूंखार आतंकवादियों को छोड़ने पाकिस्तान गए थे। भले ही यह उनकी मजबूरी रही हो लेकिन इतना तय है कि इससे भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई थी। कहना न होगा कि इस बार के चुनाव में कांग्रेस ने कांधार मामले की कमजोर नस दबाकर भाजपा को सियासी पटकनी देने का कोई मौका नहीं छोड़ा। पार्टी की पराजय के लिए बड़े नेताओं को घेरने वाले जसवंत इस सत्य को भूल गए कि राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया के खिलाफ मुहिम चलाने वालो में वे पूरे परिवार के साथ तल्लीनता से जुटे थे। उनकी पत्नी और बेटे मानवेंद्र सिंह तक ने वसुंधरा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। अगर राजस्थान में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी तो इसके लिए जसवंत सिंह भी कम जिम्मेदार नहीं थे।नीति कहती है कि जाहि निकारो गेह ते कस न भेद कहि देइ। जसवंत पर यह बात अक्षरश: लागू हो रही है। जिन्ना के बहाने वे एक तीर से कई निशाने कर रहे हैं। कांधार मामले में उन्होंने आडवाणी के साथ ही नरेंद्र मोदी को भी लपेटे में ले लिया है। उनका कहना है कि अटल बिहारी बाजपेयी गुजरात दंगा प्रकरण में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्रवाई करना चाहते थे। लेकिन आडवाणी ने उनका बचाव किया था। जाहिर है कि इस तरह का बयान देकर वे अटल जी की सहानुभूति का लाभ लेना चाहते हैं। यही नहीं जार्ज फर्नांडीज से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दोस्ती गांठ कर उन्होंने भाजपा के नहले पे दहला रख दिया है।
जसवंत सिंह के पार्टी से निष्कासन के बाद दूसरा सवाल यह उठता है कि जसवंत के बाद कौन? वैसे भी पार्टी आला कमान ने अरुण शौरी और अरुण जेटली को जिस तरह फटकार लगाई है, उससे नहीं लगता कि वह अपनी विचारधारा के इतर एक भी असंतुष्ट को बर्दाश्त करे। सवाल उठता है कि क्या पराजय के लिए भाजपा की लानत-मलामत कर रहे अरुण शौरी को भी बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा। शिमला में चल रही भाजपा की चिंतन रैली इसमें संदेह नहीं कि जसवंत की पुस्तक 'जिन्ना: इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस' को लेकर पार्टी के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी भी विरोध की लपेट में आ गए हैं। शिवसेना प्रमुख बालठाकरे ने जसवंत की जिन्ना संबंधी पुस्तक को आडवाणी की विचारधारा का विस्तार करार दिया है और आडवाणी के जिन्ना की मजार पर दिए गए वक्तव्य कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे, की मुखर आलोचना की है। उन्होंने कहा है कि अगर जिन्ना इतने ही धर्मनिरपेक्ष थे तो लालकृष्ण आडवाणी पाकिस्तान में ही क्यों नहीं रहे। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी भाजपा को गुटबाजी खत्म करने और युवा नेतृत्व को कमान सौंपने की नसीहत दी है। गौरतलब है कि वे वर्ष 2003 से पार्टी में औसत आयु के नेतृत्व की तरफदारी करते रहे है। उनके मुताबिक पार्टी में औसत आयु 55 से 60 के बीच होनी चाहिए। अगर भाजपा संघ के दबाव में आती है और इस एजेंडे पर अमल करती है तो बहुत सारे दिग्गजों को संन्यास लेना पड़ जाएगा और मैं नहीं समझता कि इतनी कूव्वत किसी भाजपाई में है। रही बात जसवंत की तो उन्हें संघ परिवार के विरोध के चलते ही वित्त मंत्रालय छोड़ना पड़ा था और उनकी जगह यशवंत सिन्हा को वित्तमंत्री बनाया गया था।
तारीख गवाह है कि जिन्ना की प्रशंसा के बाद भाजपा के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी की भी राजनीतिक जमीन खिसक गई थी और इसका खामियाजा उन्हें अध्यक्ष पद छोड़कर भुगतना पड़ा था। उनकी जिन्ना विषयक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में राजनाथ सिंह को भी जाना था लेकिन जिस तरह समारोह का भाजपा नेताओं ने बायकॉट किया उसे देखते हुए नहीं लगता कि पार्टी में अब जसवंत के लिए कोई जगह बच गई है।
देश को किसने बांटा और क्यों बांटा? यह उतना मौजूं नहीं है जितना यह कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान को एक कैसे किया जाए। कैसे मतभेद की दीवारों को गिराया जाए। भाजपा अखंड भारत के दावे तो करती रही है लेकिन उसने कभी हिंदुस्तान-पाकिस्तान को जोड़ने की दिशा में सही काम नहीं किया। वह आगरा समझौता वार्ता की विफलता की दुहाई तो दे सकती है लेकिन उसके पास ऐसा कोई फार्मूला नहीं जो अंग्रेजों की सियासत का शिकार हो गए हिंदुस्तान और पाकिस्तान को एक कर सके। संघ परिवार की पीड़ा हो सकती है कि वह देश के विभाजन के लिए जिस जिन्ना को जिम्मेदार ठहराती रही है, उसे जसवंत सिंह की किताब में निर्दोष करार दे दिया गया है और जिस बल्लभ भाई पटेल को भाजपा राष्ट्र नायक करार देती रही है उसे जसवंत ने खलनायक करार दिया है।
सच तो यह है कि जसवंत सिंह की इस किताब ने जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभ भाई पटेल को एक ही तराजू पर तौल दिया है। अगर ऐसे में जसवंत सिंह पार्टी से हटाए न जाते तो गुजरात में नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी क्या मुंह दिखाते। शायद यही वजह है कि गुजरात में नरेंद्र मोदी ने जसवंत सिंह की किताब के विक्रय पर प्रतिबंध लगा दिया है। वह दिन दूर नहीं जब सभी भाजपा शासित राज्यों में इस पुस्तक पर प्रतिबंध लग जाए। यह अलग बात है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने इससे इंकार कर भाजपा की सोच को करारा झटका दिया है। इसे पार्टी विरोध के रूप में देखा जाएगा या फिर यूं ही हल्के लिया जाएगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तो तय है कि जिन्ना पर अपनी राय जाहिर कर जसवंत सिंह पाकिस्तानी नागरिकों के दिलों पर राज करने लगे हैं। कुछ ऐसा ही आडवाणी के साथ भी हुआ था लेकिन भारत में उनकी प्रतिक्रिया के बाद वे पाकिस्तानियों के बीच अपनी निष्पक्ष छवि बनाए नहीं रख सके। जो भी हो इस घटना ने एक बार फिर भारत-पाक विभाजन पर सोचने को बाध्य किया है। देश के हुक्मरानों को इस पर मंथन करना ही होगा कि भारत-पाक को नज़दीक लाने की दिशा में क्या कुछ नया किया जा सकता है।लेखक: अमर उजाला लखनऊ के मुख्य उपसंपादक हैं।