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नई दिल्ली। सत्तानवीं जेनेटिक इंजीनयरिंग अप्रूवल कमेटी (जेईसी) की बैठक में देश में बीटी बैंगन को हरी झंडी दे दी गई है। हालॉकि कमेटी में शामिल सुप्रीम कोर्ट के आब्जर्वर और मशहूर वैज्ञानिक डा पीएम भार्गव इसके पक्ष में नहीं थे। जेईसी की हरी झंडी के बाद अब यह मामला व्यवसायिक उत्पादन की अनुमति के लिए केंद्र सरकार को जाएगा। जीएम बैंगन को अनुमति मिल जाने के बाद 56 अन्य जेनेटिक्ली माडीफाइड (जीएम) फसलों की खेती और बिक्री के लिए राहें खुल जाएंगी।
देश के 41 हजार लोगों के आनलाइन जेनेटिक्ली माडीफाइड (जीएम) खाद्यान्न का विरोध किये जाने के बावजूद जनता के स्वास्थ्य हितों की अनदेखी करके कमेटी ने यह कदम उठाया है। जून 2009 में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि वह जीएम को बढ़ावा देने के पक्ष में नहीं हैं। देश के हज़ारों लोग अब तक उन्हें फैक्स और ई-मेल करके जीएम का विरोध कर चुके हैं।
ज्ञात हो कि 16 सदस्यी इस कमेटी की एक और सब कमेटी गठित है। इन कमेटियों में इंडियन वेजेटेबिल इंस्टीट्यूट के निदेशक डा मथुरा राय और केंद्रीय फिशरीज इंस्टीटयूट के डा दिलीप कुमार जैसे लोग हैं, जिनके बीटी बैगन के विकास के लिए महको कंपनी से पहले से ही अनुबंध है। कमेटी का ऐसा किया जाना पहले से ही संभावित नज़र आ रहा था। अब यह देश की पहली जेनेटिक्ली माडीफाइड (जीएम) फसल होगी। दुनिया के किसी भी देश में अब तक जीएम सब्जी का प्रयोग नहीं हुआ है। अभी तक बीटी काटन भारत में व्यावसायिक रूप से उपलब्ध अकेली फसल है लेकिन अब स्थिति बदल रही है।
जनवरी 2009 में प्रो गाइल्स एरिक सेरेलानी ने इंडिपेंडेंट रिसर्च कमेटी फ्रांस को अपनी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि महको-मानसेंटो कंपनी ने जीएम बेंगन के उत्पादन को मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा ठहराया है। फिर भी इसी के साथ हम और हमारे परिवार के लोग प्रयोगशाला के चूहों के सदृश्य जीन्स तब्दीली से संबंधित प्रयोगों के लिए साधन बन जाएंगे। यह अनुमति सरासर भारतीयों की सेहत से खिलवाड़ है।
ग्रीनपीस के कैम्पेनर राजेश कृष्णन ने कहा कि कृषि क्षेत्र में जेनेटिक तब्दीली (जीएम) जोखिम भरा है क्योंकि यहां प्रयोग सुरक्षित प्रयोगशाला में नहीं होते बल्कि ऐसे प्राकृतिक वातावरण में होते हैं जिस पर इंसान का कोई वश नहीं है। मक्का की फसल का ही उदाहरण ले लीजिए! जेनेटिक रूप से परिवर्तित मक्का की फसल के पराग कण हवा से, कीटों और जानवरों के माध्यम से चारों तरफ फैलते हैं। उनके असर से न दूसरे पौधे बच पाते हैं और न वहां की मिट्टी आदि। उन्होंने कहा कि जीएम बैंगन को लेकर अप्रूवल कमेटी की कार्यप्रणाली शुरू से ही शक के घेरे में है। अदालत में घसीटे जाने के बाद 30 माह में यह कमेटी महको कंपनी द्वारा इन्हें लाने की सुरक्षा नियमावली तय कर सकी। इससे इस कमेटी की लचर नियामक व्यवस्था का पता सहज ही चलता है।
राजेश कृष्णनन का कहना है कि सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि ज्यादातर जीएम खाद्य फसलों के परीक्षण खुले खेतों में चलने के बावजूद संबंधित सरकारी अथारिटी ने सभी फील्ड परीक्षणों के संबंध में सूचना देने से इंकार कर दिया। एक स्वतंत्र जांच एजेंसी ने बताया कि फील्ड परीक्षण के बाद इस्तेमाल में आए खाद्य पदार्थो को नष्ट न करके नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है। किसानों को फील्ड परीक्षणों की कोई जनकारी नहीं है जबकि वे जीएम खाद्यानों का उपयोग कर रहे हैं। साथ ही परीक्षण के बाद बचे खाद्य उत्पाद बाज़ार में भी पहुंच रहे हैं और बिक रहे हैं।