डॉ पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
भारतीय उपमहाद्वीप में समाज और स्वयं को विकारों एवं विकृतियों से संरक्षित रखने के लिए ही आदिकाल से नियमित रूप से सत्संग की महत्ता पर जोर दिया जाता रहा है, परंतु देखने और अनुभव में आ रहा है कि सत्संग को एक चालाक वर्ग ने अपने निजी स्वार्थों से जोड़ दिया और सत्संग का अर्थ झूंठी-सच्ची धर्म में लपेटी हुई पौराणिक कथाओं की झूंठी-सच्ची चर्चा करने तक सीमित कर दिया, इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज ऐसा कथित सत्संग भी मानव मन पर कोई सकारात्मक या सुखद असर नहीं छोड़ पा रहा है। सच्चा सत्संग दुर्लभ हो रहा है, ऐसे में उसका सकारात्मक असर कैसे दिख सकता है?
सत्संग का वास्तविक अर्थ है सत्य का संग। सत्य के संग का तात्पर्य है ऐसे सच्चे, सजग, सद्भावी, शांत और सकारात्मक लोगों का संग, जो उनसे मिलने वाले लोगों में सत्य, आस्था, विश्वास, स्नेह, प्रेम, सृजन, आत्मीयता, आशा, संतुलन, खुशी, तृप्ति, उत्साह, शांति और ऐसे ही अनन्य सकारात्मकता तथा आस्थावान तत्वों का बीजारोपण कर सकें, दु:खद तथ्य यह है कि आज ऐसे सच्चे और पवित्र सत्संगी महापुरुषों की संख्या बहुत कम है, विरले ही ऐसे संत या महापुरुष हैं, जिन्हें पहचान कर, उनका सामिप्य प्राप्त करना आम व्यक्ति के लिए अत्यन्त दुर्लभ होता जा रहा है। सच्चे सत्संगी, धन या झूठे दिखावे से प्रभावित होकर अपना आशीष, मार्गदर्शन या अपनी कृपा या अपना स्नेह नहीं बरसाते हैं, बल्कि वे तो सच्ची सेवा, स्नेह, आस्था और विश्वास के परिपूर्ण पात्र लोगों पर ही अपनी कृपा करते हैं।
बहुत कम लोग जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति अपने आपका निर्माण खुद ही करता है। हम प्रतिदिन अपने परिवार, समाज और अपने कार्यकलापों के दौरान बहुत सारी बातें और विचार सुनते, देखते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन जब हम उन बातों और विचारों में से कुछ, जिनमें हमारी अधिक रुचि होती है, को ध्यानपूर्वक सुनते, देखते, समझते और पढ़ते हैं तो ऐसे विचार या बातें हमारे मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेती हैं। जिन बातों और विचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क अधिक सजग, सकारात्मक और संवेदनशील होता, जिन बातों और विचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क मोह या स्नेह या लगाव पैदा कर लेता है, उन सब बातों और विचारों को हमारा मस्तिष्क गहराई में हमारे अंदर स्थापित कर देता है। उस गहरे स्थान को हम सरलता से समझने के लिए ‘अंतर्मन’ या ‘अवचेतन मन’ कह सकते हैं। जो भी बातें और जो भी विचार हमारे अंतर्मन या ‘अवचेतन मन’ में सुस्थापित हो जाते हैं, वे धीरे-धीरे संपूर्ण व्यक्तित्व पर अपना गहरा तथा स्थायी प्रभाव छोड़ना शुरू कर देते हैं। जिससे हमारे जीवन का उसी दिशा में निर्माण होने लगता है।
यदि हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में स्थापित विचार नकारात्मक या विध्वंसात्मक हैं, तो हमारा व्यक्तित्व और व्यक्तित्व नकारात्मक, विध्वंसात्मक और आपराधिक विचारों से संचालित होने लगता है। हम न चाहते हुए भी सही के स्थान पर गलत और सृजन के स्थान पर विसृजन, सहयोग के स्थान पर असहयोग, प्रेम के स्थान पर घृणा, विश्वास के स्थान पर संदेह को तरजीह देने लगते हैं। परिणामस्वरूप हमारा संपूर्ण व्यक्तित्व इसी प्रकार से गलत दिशा में निर्मित होने लगता है। जैसा नकारात्मक हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता है, दैनिक जीवन में उसी के मुताबिक हम परिवार में तथा बाहरी लोगों से दुर्व्यवहार करने लगते हैं, इससे हमारी, हमारे अपने परिवार तथा आत्मीय लोगों बीच हमारी कुंठायुक्त पहचान निर्मित होने लगती है। हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में बैठकर हमें संचालित करने वाली धारणाओं से हमारा व्यवहार और सभी प्रकार के क्रियाकलाप निर्मित और प्रभावित होते हैं। हम जाने-अनजाने और बिना अधिक सोचे-विचारे उन्हीं नकारात्मक तथा रुग्ण विचारों के अनुसार काम करने लगते हैं। हमारे कार्य हमारे अंतर्मन में स्थापित हो जाते हैं।
वर्तमान में अधिकतर लोगों के साथ ऐसा ही हो रहा है। अधिकतर लोगों के अंतर्मन में प्यार, विश्वास, स्नेह और सृजनात्मकता के बजाय संदेह, अशांति, घृणा, वहम, वितृष्णा, क्रूरता और नकारात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई है। इन सब क्रूर और असंवेदनशील विचारों के कारण हमारा व्यक्तित्व नकारात्मक दिशा में स्वत: ही संचालित होता रहता है। हमारी रुचियां भी हमारे इसी नकारात्मक और रुग्ण व्यक्तित्व के अनुरूप बनने लगती हैं। हम अपनी नकारात्मक और रुग्ण रुचियों के अनुरूप बातों और विचारों में से फिर से कुछ जिनमें हमारी अधिक रुचि होती है, को ध्यानपूर्वक सुनने, देखने, समझने और पढ़ने लगते हैं और जो विचार या बातें हमारे मस्तिष्क तथा अंतर्मन को फिर से प्रिय लगने लगती हैं, उन्हें हम फिर से अपने मस्तिष्क में ससम्मान स्थान देना शुरू कर देते हैं, बल्कि हम ऐसी बातों का आदर के साथ स्वागत करने लगते हैं।
दुष्परिणामस्वरूप हम और-और गहरे में, अपने अंतर्मन में नकारात्मक और विध्वंसात्मक विचारों को संजोना और संवारना शुरू कर देते हैं। इस प्रकार यह अनंत और अमानवीय दुष्चक्र चलता रहता है। इसी के चलते हमें पता ही नहीं चलता है और हम मानव से अमानव हो जाते हैं और हमारे आपसी आत्मीय संबंध हमारी इन मानसिक विकृतियों के कारण पल-पल अपनी ही मूर्खताओं के कारण टूट-टूट कर बिखरने लगते हैं, जिसके चलते आज करोड़ों लोग घुट-घुट कर मर रहे हैं। लाखों-करोड़ों परिवार पल-पल बिखर रहे हैं। परमात्मा के अनुपम उपहार मानव जीवन की जीने के बजाय लोग काटने को विवश हैं। संपूर्ण समाज खोखला होता जा रहा है और इसी के दु:खद दुष्परिणामस्वरूप अंतत: हमारा राष्ट्र भी कमजोर होता जा रहा है।
नकारात्मक परिस्थितियों के उलट यदि हम सकारात्मक और सृजनात्मक तरीके से सोचना, विचारना, समझना और दैनिक कार्य करना शुरू कर देते हैं तो हमारा मस्तिष्क सकारात्मक और सृजनात्मक बातों को ग्रहण करने लगता है और उनमें जो बातें हमारे मस्तिष्क को अधिक-सुखद और ग्राह्य लगती हैं, उन्हें वह हमारे अंतर्मन में स्थापित कर देता है, परिणामस्वरूप हमारा अंतर्मन सही, सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा में कार्य करना शुरू कर देता है, जिससे हमारा संपूर्ण व्यक्तित्व प्रेममय, विश्वासमय, स्ननेहमय और ताजगी तथा ऊर्जा से भरा हुआ पुलकित होने लगता है। इससे न केवल हमारा अपना निजी जीवन, बल्कि हमारा संपूर्ण परिवार और हमारे आसपास का माहौल खुशियों से भर जाता है।
हमें यहां-वहां और सर्वत्र प्रसन्नता और खुशी ही खुशी नजर आने लगती है, जीवन सार्थक और संपूर्ण नजर आने लगता है, जीवन जीने का सच्चा आनंद और गहरी शांति का अनुभव होने लगता है, हमें बिना प्रयास के सुखद, गहरी और पर्याप्त नींद आने लगती है, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य एकदम सही रहने लगता है, लोग हमारे पास बैठकर और हमसे बातें करके खुशी का इजहार करने लगते हैं, लोगों को हमारा साथ पसंद आने लगता है, हमारे मित्रों और शुभचिंतकों की संख्या लगातार बढ़ने लगती है, जिन लोगों से हमारा दूर का भी रिश्ता नहीं होता है, वे भी हमें और उनको हम करीबी और स्वजनों की भांति अपने प्रतीत होने लगते हैं।
इस सबके होते हुए भी हमारे जीवन में एक बड़ी और दुरूह व्यवहारिक समस्या भी है। चूंकि आज के समय में संपूर्ण समाज धन और भौतिक सुखों के पीछे आंख बंद करके भाग रहा है और एन-केन प्रकारेण धन संग्रह करने की मानव प्रवृत्ति हजारों मानवीय बुराईयों को जन्म दे रही है, जिसके चलते समाज नकारात्मक, मानसिक रूप से रुग्ण और अस्थिर लोगों से भरा पड़ा है। लोग अविश्वास, अनिच्छा, वहम, ढोंग, घृणा, वितृष्णा, अशांति जैसी नकारात्मक मनोवृत्तियों से भरे पड़े हैं। ऐसे रुग्ण और अस्थिर लोगों के आस-पास हमेशा नकारात्मक और रुग्ण भावनाएं जन्म लेती रहती हैं।
ऐसे लोगों के मन और शरीर से विकृतता, रुग्णता, विध्वंस और विसृजन को बढ़ावा एवं जन्म देने वाली दूषित किरणें निकलती रहती हैं, जिसका गहरा प्रभाव उनके आस-पास कार्य करने वाले सामान्य लोगों के साथ-साथ, निर्मल, सच्चे, सकारात्मक तथा सृजनशील लोगों पर भी पड़ता है। इससे ऐसे लोगों के जीवन पर कुप्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है। व्यक्ति कब सकारात्मक से नकारात्मक हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता है। मानव मनोविज्ञानी इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि आज के नकारात्मकता से भरे हुए समाज में सही एवं सकारात्मक बातों या विचारों की तुलना में गलत या नकारात्मक बातें जल्दी से अपना असर छोड़ती हैं, इसलिए सही और सकारात्मक लोग भी ऐसे गलत, रुग्ण एवं नकारात्मक लोगों के प्रभाव में आकर नकारात्मक होते जा रहे हैं।
यदि किसी सच्चे और निर्मल हृदयी व्यक्ति को संयोग से या प्रारब्ध से सच्चे सत्संगियों का साथ या सामिप्य प्राप्त हो जाए, तो ऐसे व्यक्ति को स्वयं को सौभाग्यशाली समझना चाहिए और ऐसे अवसर को गंवाना नहीं चाहिए। बल्कि उस संयोग से मिले अवसर को अपना सच्चा सौभाग्य बना लेने के लिए संपूर्ण प्रयास करने चाहिए, जिससे कि अमूल्य मानव जीवन को सही, सजीव, सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा मिल सके। जीवन में शांति के साथ सच्चा सुख और स्वास्थ्य मिल सके। हमेशा याद रहे कि जिस दिन जीवन को सही दिशा मिल जाएगी, उसी दिन, बल्कि उसी क्षण से जीवन की दशा और परिस्थितियां स्वत: ही सुधर जाएंगी, परमात्मा की कृपा अपने आप बरसने लगेगी तथापि परमात्मा सभी को सच्चा-सुख, शांति और स्वस्थ जीवन प्रदान करे।