स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम
जयपुर। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में दादा भाई के नाम से विख्यात गिरिराज प्रसाद शास्त्री का 93 वर्ष की आयु में 13 मार्च को सुबह करीब चार बजे यहां एपेक्स अस्पताल में निधन हो गया। उनके निधन पर संघ में शोक है। अनेक संगठनों, सामाजिक संस्थाओं और नेताओं ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया है। उनकी सहज और प्रभावशाली कार्यप्रणाली के बहुत लोग कायल थे। वे अध्ययनशील और अनुशासनप्रिय थे। उनके निधन पर शोक व्यक्त करने वालों का कहना है कि हिंदू समाज के कल्याण, उसे संगठित करने के प्रयासों और संघ में उनके योगदान को चिरकाल तक याद रखा जाएगा।
गिरिराज प्रसाद शास्त्री (दादा भाई) का मूल जन्म स्थान कांमा, जिला-भरतपुर है। उनका जन्म 9 सितंबर 1919 को अनंत चतुदर्शी को हुआ था। उनके पिता आनंदीनारायण आचार्य थे। उन्होंने 6वीं तक आंग्ल विद्या में अध्ययन किया। प्रवेशिका, साहित्य उपाध्याय, शास्त्री, अंग्रेजी में एक विषय में इंटरमीडिएट की परीक्षा दी। वेद में भी यजुर्वेद की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे रथ खाना विद्यालय जयपुर में अध्यापक थे। नथमलजी के कटले में कभी-कभी संघ की शाखा लगती थी, सन् 1942 में उस समय के बीएससी के छात्र शिवकुमार के कहने पर उन्होंने इस शाखा में जाना प्रारंभ किया। अलवर जिले के किशनगढ़ बास के मूल निवासी रामेश्वर शर्मा एक वर्ष के लिए विस्तारक बनकर जब जयपुर आए, तो उन्होंने नथमलजी के कटले में नियमित शाखा शुरू कर दी, दादा भाई भी इसी शाखा में नियमित और सक्रिय हो गए, यहां उनका अच्छे और प्रतिभावान छात्रों से संपर्क हुआ। संघ में दादा भाई के नाम से विख्यात गिरिराज प्रसाद शास्त्री ने सन् 1943 में मेरठ (उत्तर प्रदेश) से प्रथम वर्ष, 1944 में मेरठ से ही द्वितीय वर्ष और सन् 1945 में नागपुर से तृतीय वर्ष का शिक्षण प्राप्त किया था। दादा भाई, जुलाई 1946 से दिसंबर 1946 तक सीकर के नगर प्रचारक, जनवरी 1947 से 1948 तक सीकर के जिला प्रचारक, 1948 से जून 1950 तक सीकर, झुंझुनूं जिले के प्रचारक रहे, उसके पश्चात जयपुर वापस लौट गए।
बाबा साहब आप्टे की संस्कृत की पत्रिका निकालने की प्रेरणा से दादा भाई ने संस्कृत में भारती मासिक पत्रिका निकाली। विद्वानों के मध्य उनका परामर्श और संस्कारिक स्तर इतना ऊंचा था कि भारती पत्रिका निकालने के लिए भी पंडितों की एक सभा बुलाई गई और सन् 1950 की दीपावली से इसका शुभारंभ किया गया। सन् 1942 में संघ के मुख्य शिक्षक, 1943 में मेरठ से प्रथम संघ शिक्षा वर्ग करके लौटने के बाद 3 शाखाओं के कार्यवाह, 1944 में द्वितीय वर्ष करके आने के बाद चार-पांच शाखाओं की जिम्मेदारी, 1945 में तृतीय वर्ष करके आने के बाद जयपुर के नगर कार्यवाह का दायित्व दिया गया और उसके बाद उन्हें विभाग कार्यवाह बना दिया गया। बाबा साहब आप्टे ने दादा भाई को जयपुर का नगर कार्यवाह बनाया। जुलाई 1950 से 1951 तक जयपुर नगर के नगर कार्यवाह, 1951 से 1952 तक जयपुर जिला कार्यवाह, 1952 से 1953 तक जयपुर विभाग कार्यवाह, 1953 से 1992 तक राजस्थान के प्रांत कार्यवाह, 1992 से 1995 तक राजस्थान क्षेत्र के संपर्क प्रमुख, 1995 से 1998 तक राजस्थान क्षेत्र के प्रचार प्रमुख और 1998 से 1999 तक क्षेत्र की कार्यकारिणी के सदस्य रहे। दादा भाई पाथेय कण संस्थान के अध्यक्ष भी रहे।
संघ में उनसे जुड़े अनेक प्रसंग हैं, जो उन्हें अत्यंत लोकप्रिय बनाने के साथ- ही साथ उनके चहुंमुखी व्यक्तित्व का विस्तार करते हैं। उनसे जुड़े प्रसंगों की संघ में हमेशा चर्चा होती आई है और उनके आज देहावसान के बाद उनकी स्मृतियों की फिर चर्चा हो रही है। दादा भाई को कहीं जाना होता था जो वे रामेश्वर शर्मा विस्तारक से शाखा से जाने की अनुमति लिया करते थे। सन् 1943 में मेरठ के प्रथम वर्ष में उन्होंने कहा था कि संगठन और मेले में अंतर होता है, मेले में तो लोग आते हैं और चले जाते हैं, परंतु संगठन में अनुशासन, आज्ञा पालन, संस्कार आदि होता है और इसी से संगठन उत्तरोत्तर बढ़ता भी है।
पंडित बच्छराज व्यास, दादा भाई के चाचा के ससुर लगते थे। दादा भाई दो महीने किशनगढ़ में विस्तारक रहे। सन् 1948 में वेदप्रकाश के साथ एक-डेढ़ माह तक मसूरी में रहे, उसके बाद वापस आ गए। बाबा साहब आप्टे ने पूछा कि वापस कैसे आ गए, तो दादा भाई ने मां के देहावसान का कारण बताया। पिताजी ने उन्हें एमएस कटरे के पास ले जाकर कहा कि इसने शास्त्री की पढ़ाई की है, अंग्रेजी में इंटरमीजिएट किया है, संघ वालों के चक्कर में चढ़ गया है, उन्होंने सहानुभूति का भाव दिखाकर दादा भाई को 1 वर्ष के लिए नौकरी दे दी। दादा भाई का प्रारंभ से ही संध्या करने का नियम था, जो अंतकाल तक बराबर चलता रहा है। लगभग 38-39 साल पहले दादा भाई से एक सज्जन मिले, उन्होंने शिवजी की पार्थी पूजा का महत्व बताया, उसके बाद से दादा भाई ने वह भी लगातार प्रारंभ कर दिया। दादा भाई का यह प्रयास रहता था कि प्रातः के साथ-साथ सायंकाल भी संध्या हो जाए। दादा भाई शिवजी और भगवती देवी का पाठ एवं स्तोत्र करते थे। गुरूजी ने उन्हें सोहन जाप का संकेत किया था, वह भी बराबर करते रहे।
सन् 1952-53 में जलमहल, जयपुर में प्रांतीय शिविर था। वहां सब लोग जब भोजन पर बैठ गए तो दादा भाई का श्रीगुरूजी के साथ में बैठना रखा गया। दादा भाई संकोच करने लगे, तब श्रीगुरूजी बोले कि चारों ओर पर्वत श्रंखला है और तुम गिरिराज क्यों संकोच करते हो, चलो बैठो और दादा भाई बैठ गए। पंडित बच्छराज व्यास आए तो उन्होंने इनका नाम बदलकर दादा भाई नाम रखा। दादा भाई एक कुशल जिम्नास्ट थे और व्यायाम भी करते थे, इस कारण नाम दादा भाई पड़ा। उनके लिए सर्व समाज में अनुकूलता थी। वे कहा करते थे कि हिंदू संगठित हों, यह उनकी प्रबल इच्छा थी, जाति-पाति का उनमें भेद नही था। घरवालों का विरोध जरूर रहता था। एक बार जयपुर नगर का विजयदशमी का उत्सव था, उसमें लाला हरिश्चंद्र (महानगर संघचालक दिल्ली) आए हुए थे। लालाजी बहुत पैसे वाले भी थे। कार्यकर्ताओं से जब परिचय कर रहे थे, उन्होंने लालाजी ने उनके चरण छू लिए। उस घटना से उनके पिताश्री में एकदम से परिवर्तन आ गया, फिर उन्होंने दादा भाई को शाखा में जाने से कभी नही रोका।
अजमेर से लिमएजी (प्रचारक) जब आते थे तो वह दादा भाई को आने की पूर्व सूचना अवश्य देते थे। वे भी उन्हें लेने पहुंच जाया करते थे। इतनी तत्परता और जागरूकता उनमें थी। वे खेलों में भी बड़े जोश से खेलते थे। प्रांतीय बैठक श्रीगुरूजी आए थे। दादा भाई कार्यवाह थे। रात को गणवेश पहनकर सोते थे। श्रीगुरूजी ने सबको कहा कि संघ के विचार पढ़ा करो, विचार अंदर आएंगे। उन्होंने कहा कि स्वाध्याय नित्य होना चाहिए, स्वाध्याय से ही आचरण में संस्कार आते हैं। सन् 1975 में आपातकाल के समय दादा भाई पुलिस वालों की पकड़ में नहीं आए। सन् 1992 के बंदी काल में दादा भाई नहरौली थाने में 15 दिन तक जेल में रहे। वे प्रातः से लेकर रात्रि सोने तक सारा कार्यक्रम करते थे। उनका यह एक तरीके का प्रशिक्षण भी था। छाता के विधायक आए और वहां उपस्थित जेल अधिकारियों से कहा कि ये हमारे मेहमान हैं, इनको कुछ हुआ तो तुम्हारी जेल को जला देंगे, तब जेल अधिकारियों ने उनसे कहा कि ऐसा कुछ भी नही होगा।
सन् 1952-1953 में जनसंघ की अखिल भारतीय बैठक के समय पैसा एकत्र करने की जिम्मेदारी दादा भाई के ऊपर थी। दादा भाई और रामराज व्यास पैसा एकत्र करने के लिए आसाम में जोराहट, गोहाटी और दुबडी तक गए। दादा भाई का विभिन्न दायित्व निभाते हुए जीवन में सहज ही बहुत बड़े-बड़े लोगों से संपर्क हुआ। वो भारती पत्रिका के लिए कलकत्ता भी गए और उस समय वहां रामकृष्ण मिशन के तत्कालीन मंत्री से मिले, उन्होंने दादा भाई से कहा कि गिरिराजजी एक ही देवता की पूजा करना, अनेक की पूजा ठीक नही है। माधवानंद महाराज एक दो साल में जयपुर आते रहते थे, उनसे जब दादा भाई मिले और पता लगा कि वो भारती पत्रिका निकाल रहे हैं, तो वह बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उन्हें अपने ट्रस्ट आजीवन सदस्य बना दिया। संघ के क्षेत्र प्रचार प्रमुख संजय कुमार सहित कार्यवाह और प्रचारकों, भाजपा नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है।