भोलानाथ त्यागी
बीमार होने की कल्पना उम्र के किसी भी हिस्से में कष्टदायक है और यदि किसी देश और काल में शिक्षा व्यवस्था को ही बीमार स्वीकारते हुए, अधिकृत प्रवचन किये जायें तो स्थिति विस्फोटक लगती है। हाल ही में उच्च शिक्षा को ‘बीमार बच्चा’ की संज्ञा से विभूषने गले ‘पार्थ’ - देश के ‘सारथियों’ में शामिल हैं। इसी क्रम में यदि उनसे प्रति प्रश्न किया जाये कि ‘बेसिक शिक्षा’ को वह क्या कहेंगे, तो शायद उत्तर मिले ‘अविकसित भ्रूण’।
नाबालिग विचारों की इस बालिक होती परंपरा में, हमारा देश उन्नति कर रहा है, और आत्म मुग्ध मुद्रा में नेतृत्व इस स्थिति पर खीसें निपोर रहा है। ‘सत्ता सेतु’ को सुरक्षा प्रदान करते हुए, आस्थाओं के सेतु पर गंभीर कुठाराघात कर संविधान की धर्म निरपेक्ष छवि को, नवीन परिभाषा दी जा रही है।
बैसाखियों पर टिके ‘अंगद’ की तरह दृढ़ निश्चय का प्रदर्शन करते-करते, साझा सरकार के सरोकारों को स्वीकार करने की मुद्रा, हास्यास्पद विद्रूप को जन्म देती है। यह स्थिति महान होते राष्ट्र की नियति बन गई है। चरवाह संस्कृति के पुरोधा चार्ली चैप्लिन की भाव भंगिमा में, प्रबंधन गुरू सिद्ध होने की चाह लिये, विचर रहे हैं और चारा बनता देश सिहर रहा है।
‘चरित्र और नैतिकता’ को बेताल बना हमेशा के लिये पेड़ पर उलटा टांग दिया गया है। सुरो का विश्वयुद्ध ‘बेसुरे’ अंदाज में संपन्न होता है। ‘तानसेन’ का स्मरण, अतीत में खो गया है, और संगीत को बलात टोपी पहना दी गई है। ठेले पर हिमालय ढोते देश में, उच्च शिक्षा गली कूंचों में बिक रही है। पठित मूर्खों के आंकड़े, संसैक्स की तरह, नित्य नवीन छलांग लगा रहे हैं और नीति नियंता इस गति (र्दु) से प्रसन्न है। तालियां पीट रहे हैं।
‘ताली बजाने’ वालों की जमात में खूब बढ़ोत्तरी हो रही है। ‘गाण्डीव’ का सनातन महत्व उसके ‘शिखण्डियों’ के हाथों पड़ जाने से, अर्थहीन हो चुका है और ‘छक्को’ पर छककर तालियां बजाई जा रही है। फिर भी, खेल के इस मैदान में, दुर्गति से निजात मिलती नहीं दिखती।
अनर्थ के द्वारा ‘अर्थ’ संजय की भावना पराकाष्ठा प्राप्त कर चुकी है और इस कला में पारंगत लोगों का प्रताप - अखण्ड बना रहता है। यदि प्रान्त विशेष की बात करें तो ‘यहां है इसलिये दम क्योंकि इसका प्रताप अखण्ड है हर दम’ बीमारी से निजात पाने के लिये, ‘दो बूंद जिंदगी की’ पीता हमारा देश, व्यवस्थित ढंग से अव्यवस्थित हो चुका है। सुधार की समस्त संभावनाएं ‘पोलियो ग्रस्त’ हो चुकी हैं। जिंदगी आंकड़ों की भूल भुलइयां में सिसक रही है।
बीमार बच्चे की बात करते-करते जीवन के अंतिम अध्याय की संवारते, पार्थ की निगाह, फेको पद्धति से भी उपचारित होने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि जीवन संग्राम में अब कोई पार्थसारथी उपलब्ध नहीं है। बालिक होते बच्चे की बीमारी, वास्तव में लाइलाज बन चुकी है।