रजनीश सिंह
लखनऊ।उत्तर प्रदेश के खेल मंत्री अयोध्या प्रसाद पाल ने खेल को भी अपनी राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। बदनाम गुटबाज़ जातिवादी और राज्य के खेल परिसरों में अराजकतत्वों को बढ़ावा देकर खेल के वातावरण को लंबे समय से दूषित करते आ रहे खेल विभाग के कुछ अधिकारियों के साथ वे ऐसी गतिविधियों में लिप्त हैं जिनसे खेल का कोई भी विकास नहीं हो सकता है। खेल छात्रावासों के भोजनालयों को उन्होंने अपने बसपा कार्यकताओं का लंगर बना डाला है और खिलाड़ियों के खेल प्रतियोगिताओं में चयन को भी अवैध आमदनी का धंधा बना दिया है। उनके इन्हीं प्रकार के कृत्यों में प्रमुख रूप से शामिल खेल विभाग के एक क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी आरपी सिंह के भ्रष्ट कारनामों पर पर्दा डालने की कोशिश में बड़ी आर्थिक अनियमितताएं उजागर हुई हैं जिससे यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यहां तो बाड़ ही खेत को खा रही है। इस अधिकारी की वित्तीय जांच के लिए खेल निदेशालय पहुंची ऑडिट टीम को खेलमंत्री ने मात्र अपने ही आदेश से बगैर ऑडिट कराए वापस करा दिया। पेशेवर बेशर्मी की हद देखिए कि खेल मंत्री ने बाकायदा खेल सचिव को आदेश दे दिया कि क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी लखनऊ आरपी सिंह के लखनऊ के कार्यकाल की ऑडिट नहीं की जाएगी। सुना जाता है कि वित्तीय शिकायतों के आधार पर इनको इस पद से हटाने के लिए आख्या सहित मुख्यमंत्री कार्यालय से प्रस्ताव मांगा गया था मगर खेलमंत्री के इशारे पर खेल निदेशक कुंवर विक्रम सिंह ने इन्हे बचाते हुए वो खेल दिखाया कि यह प्रस्ताव आया गया हो गया।
ऑडिट एक ऐसा संवेदनशील मामला माना जाता है कि जिसमें आम तौर पर सरकार हस्तक्षेप नहीं करती है क्योंकि यह जनता के पैसे के सदुपयोग या दुरूपयोग से जुड़ा विषय है। कोर्ट का रूख भी ऐसे मामलों में कोई राहत देने में अत्यंत सख्त देखा गया है, लेकिन जब जनता के छब्बीस अरब रुपए चुटकियों में उड़ाए जा सकते हैं तो यह मामला उसके सामने कुछ भी नहीं है। खेलमंत्री अयोध्या प्रसाद पाल ने पहले तो आडिट रोकने के कोई आदेश देने से अनभिज्ञता जताई लेकिन तभी फिर तर्क भी दिया कि 'आरपी सिंह उनका अपना खास आदमी है, बसपा की मदद करता है, इसलिए उसकी मदद की है।' खेलमंत्री का कहना था कि उसके खिलाफ उनके पास कोई शिकायत नही है, तो फिर प्रश्न है कि शासन के वित्त विभाग से उनके कार्यकाल का वित्तीय ऑडिट कराने के आदेश क्या यूं ही हो गए? तब मंत्रीजी का कहना था कि 'हम ऐसे आदेशों की कोई परवाह नही करते हैं, हमें बहनजी का आशीर्वाद प्राप्त है, और कोई बात हो तो बताइए।' बात सही भी लगती है कि आखिर आरपी सिंह को उत्तर प्रदेश के तीन प्रमुख क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी मुख्यालयों लखनऊ फैजाबाद और इलाहाबाद की किसलिए जिम्मेदारियां दी हुई हैं? खेल को चौपट करने वाली खेलमंत्री की ये मेहरबानियां इस हद तक हैं कि आरपी सिंह को उन्होंने अपना पीआरओ कहलाने तक की छूट दी हुई है इसलिए वे किसी को फोन भी करते हैं तो अपने को खेल मंत्री का पीआरओ बताते हैं। ऐसा ही उन्होंने इस संवाददाता से भी मोबाइल पर बोला था कि 'वह खेल मंत्रीजी के पीआरओ हैं, जब उनसे कहा गया कि खेल मंत्रीजी से बात कराइएगा तो कहने लगे कि मैं क्षेत्रीय क्रीड़ाधिकारी लखनऊ हूं और इस समय मंत्रीजी नही हैं।' खेलमंत्री के ऑफिस और घर पर फोन करके इनके बारे में जानकारी की गई तो फोन उठाने वाले सज्जन ने कहा कि 'इस नाम का कोई व्यक्ति खेल मंत्रीजी का पीआरओ नही है, आरएसओ लखनऊ तो है।' आरपी सिंह की मोबाइल कॉल्स रिकार्ड में दर्ज हैं।
ज्ञातव्य है कि क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी आरपी सिंह के लखनऊ कार्यकाल की विशेष ऑडिट कराए जाने के लिए शासन के वित्त विभाग ने संख्या-आडिट 2272/दस/0-355(5)/09 दिनांक 6 अगस्त 2009 को निदेशक स्थानीय निधि लेखा परीक्षा विभाग इलाहाबाद को शासनादेश भेजा जिसकी प्रति सचिव खेल एवं निदेशक खेल को भी भेजी गई। शासनादेश में क्षेत्रीय क्रीड़ाधिकारी कार्यालय लखनऊ एवं उसके अधीन संचालित बालक/बालिका छात्रावास आदि की 30 सितंबर 1993 से 31मार्च 2009 तक के समस्त बजट आवंटन की विशेष संपरीक्षा (ऑडिट) तीन माह में पूर्ण कराए जाने को कहा गया है। वित्त विभाग के इस आदेश के पूर्व तत्कालीन खेल निदेशक विनोद कुमार खरबंदा ने क्षेत्रिय क्रीड़ाधिकारी लखनऊ आरपी सिंह की वित्तीय अनियमितताओं के संबंध में प्रारंभिक जांच की थी और लिखित रूप में इसकी रिपोर्ट खेल सचिव को दी थी। तत्कालीन खेल सचिव राजन शुक्ला ने इसे वित्त विभाग को भेजा जिसने रिपोर्ट का गहन परीक्षण करने के बाद स्थानीय निधि लेखा परीक्षा निदेशक को यह आडिट कराने का आदेश दिया। प्रश्न उठता है कि जब तत्कालीन निदेशक खेल और तत्कालीन सचिव खेल, क्षेत्रीय क्रीड़ाधिकारी आरपी सिंह की वित्तीय अनियमितताओं की जांच कर चुके हैं और अब ऑडिट के लिए शासनादेश हो चुका हो तो ऐसे हालात में यह ऑडिट की कार्यवाही को कैसे रोका जा सकता है और कैसे रोका गया? यह तब है जबकि अभी इसमे किसी के दंडित करने की अवस्था नही आई है और यह भी हो सकता है कि ऐसी अवस्था न आए, मगर खेलमंत्री ने आरपी सिंह को इस संभावित आफत से बचाने के लिए ऑडिट नही कराने का आदेश दे डाला। यह अलग बात है कि ऑडिट कराने का जारी हुआ यह शासनादेश वापस लेना, शासन में किसी के लिए भी आग से खेलने जैसा होगा है भले ही उसको टाला जाता रहे। इसके टालने में भी दस सवालों का सामना करना होगा। जिस तरह से क्षेत्रिय क्रीड़ाधिकारी आरपी सिंह अपने को बचाने की लॉबिंग कर रहे हैं उसे देखते हुए समझा जा रहा है कि यह कोई गंभीर वित्तीय अनियमितता का मामला है जिसे दबाने की पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं।
यही नहीं आरपी सिंह लगभग दस वर्ष से लखनऊ में जमे हुए हैं। विभाग में प्रश्न किया जा रहा है कि एक क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी को एक साथ इतनी जिम्मेदारियों के क्या मायने हैं? क्या खेल विभाग में एक यही सबसे योग्य खेल अधिकारी हैं, जिनके पास इतने सारे चार्ज हैं और जो एक साथ सभी जगहों पर समन्वय स्थापित करने की प्रतिभा रखते हैं? सरकार का भी यह कौन सा नियम है जिसमें कि गंभीर वित्तीय अनियमितता के आरोपों से घिरे किसी एक अधिकारी को एक साथ इतनी जिम्मेदारियां दी जा सकती हैं? क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी लखनऊ आरपी सिंह पर गंभीर वित्तीय अनियमितताओं और अनुशासनहीनता तक के आरोप हैं। लखनऊ में केडी सिंह बाबू स्टेडियम में उनके कार्यकाल में कराए गए कार्यों का ऑडिट होने से रोका गया है ऐसा कभी नहीं सुना गया। राज्य के वित्त विभाग ने प्रथम दृष्टया आरपी सिंह के कार्यों की वित्तीय अनियमितताओं की जांच करने के बाद ही निदेशक स्थानीय निधि लेखा परीक्षा विभाग, इलाहाबाद को क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी लखनऊ के कार्यकाल का विशेष आडिट करने के आदेश दिए थे जिनके तहत ऑडिट टीम खेल निदेशालय लखनऊ में जांच करने पहुंची लेकिन खेल निदेशक कुंवर विक्रम सिंह ने उस टीम को अपना काम शुरू किए बिना ही वापस कर दिया? खेल मंत्री ने शासन के खेल सचिव को यह ऑडिट रोकने के आदेश दिए थे ना कि खेल निदेशक को, जो कि शासन स्तर से अंतिम रूप से जारी भी नहीं हुए हैं, खेल निदेशक का केवल मौखिक रूप से ऐसी ऑडिट रोकने का क्या तात्पर्य है? इसलिए खेल निदेशक भी संदेह और जांच के घेरे में खड़े हुए हैं। जाहिर होता है कि खेल मंत्री एक अधिकारी की गंभीरतम शिकायतों और वित्तीय अनियमितताओं को नजरअंदाज करके ऑडिट जैसे महत्वपूर्ण मामले में भी हस्तक्षेप कर रहे हैं। यह ऐसा मामला है जिसमें ऐसी जांचें रोकने या किसी अधिकारी को वित्तीय शिकायतों में कोई राहत पहुंचाने में कोर्ट का रुख भी सख्त ही देखा गया है। खेल मंत्री अयोध्या प्रसाद पाल ने इस बात की कोई परवाह नहीं की है कि वे एक क्षेत्रिय क्रीड़ा अधिकारी को इस आधार पर बचाने में सारी हदें पार कर रहे हैं कि वह उनका आदमी है, न केवल सरेआम भ्रष्टाचार और जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं अपितु इसका खेल विभाग में भी गलत संदेश जा रहा है।
ध्यान देने वाली बात है कि केवल मंत्री के आदेश लिखकर भेज देने मात्र से ही कोई जांच प्रक्रिया रोकी, स्थगित या निरस्त नहीं की जा सकती है, जब तक कि उस पर विधिक रूप से विभागीय सचिव भी कोई आदेश पारित नहीं करता हो। विभागीय सचिव अपने मंत्री के आदेश के अनुपालन में या तो दिए गए आदेश को शासनादेश बनाकर उसे पालनार्थ संबंधित अधिकारी या निदेशालय को भेज देता है, और यदि वह उससे सहमत नही है तो वह संबंधित पत्रावली मुख्यसचिव को उनके संज्ञानार्थ एवं आदेशार्थ भेज सकता है। इस अवस्था में मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री ही संबंधित पत्रावली पर कोई निर्णय लेते हैं। इस मामले में अभी तक ऐसा कुछ भी नही हुआ है। वर्तमान खेल सचिव से उनका पक्ष जानने के लिए संपर्क करने पर पता चला कि वह विधानसभा चुनाव में पर्यवेक्षक के रूप में बाहर हैं। वर्तमान खेल सचिव से पहले खेल सचिव रहीं बीना रानी मीना, नए खेल सचिव को चार्ज देकर विदेश जा चुकी हैं। क्षेत्रिय क्रीड़ाधिकारी आरपी सिंह के कार्यकाल का ऑडिट रोकने के खेलमंत्री का आदेश सबसे पहले इन्हीं के पास आया था जो उन्होंने माना तो नहीं मगर उस पर कोई अगली कार्रवाई भी नहीं की। इससे पता चलता है कि खेलमंत्री ने ऑडिट रोकने के गलत आदेश दिए और खेलमंत्री के मौखिक आदेशों को मानकर ही खेल निदेशक ने ऑडिट टीम वापस कर दी। शासन में सचिव स्तर पर खेलमंत्री के आदेश ज्यों के त्यों ही पड़े हैं।
मौजूदा खेल मंत्री अयोध्या प्रसाद पाल के आज खास आदमी बने यही आरपी सिंह कल तक प्रतापगढ़ के बाहुबली मंत्री रहे रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भय्या के यहां चौबीस घंटे कप-प्लेट उठाते और उनके गुर्गों को खेल विभाग के जिम में फिज़िकल और मालिश करवाते दिखाई देते थे। इन्हें वास्तव में इसी रूप में जाना भी जाता है। बसपा की सरकार आने पर ये रातों-रात इस सरकार के खेल मंत्री अयोध्या प्रसाद पाल के घर के आदमी हो गए। बसपाई भी हो गए। अब ये अक्सर वहीं दिखाई देते हैं जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये तीन महत्वपूर्ण मंडलों और खेल निदेशालय में भी डिप्टी डायरेक्टर पद का चार्ज किस तरह देख रहे होगें? उस पर भी कुछ गुटबाज खिलाड़ियों, खेल अधिकारियों और कुछ मीडियावालों के बीच बैठकर हरबार कहा करते हैं कि 'खेल मंत्री तो मुझे और भी जिम्मेदारियां देना चाहते हैं मगर मैने ही उनसे मना किया हुआ है।' खेल विभाग के बाकी अधिकारियों में खेलमंत्री की इस अंधेरगर्दी पर भारी निराशा है और उनमे भी यह भावना उभर रही है कि जब एक क्रीड़ा अधिकारी अपना मूल कार्य और जिम्मेदारी छोड़कर हर सरकार में अपनी पैठ बनाकर ऐसे ही मौज मारता आ रहा है तो उन्हें भी खेल विभाग के बारे में सोचने की क्या जरूरत पड़ी है? आरपी सिंह अपने सहकर्मियों के बीच भी नकारात्मक छवि रखते हैं।
आरपी सिंह हॉकी के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी रह चुके हैं और वे इसी कोटे से खेल विभाग की सेवा में आए। सरकारी नौकरी में आने के बाद उनकी भूमिका जरूर बदल गई लेकिन खेल के प्रति उनकी जिम्मेदारियां नहीं बदलीं। उन्होंने हॉकी को प्रोत्साहन देने के अपने उत्तरदायित्व को भी किनारे कर दिया। उन पर जिम्मेदारी थी कि वे अपनी सरकारी जिम्मेदारियों के साथ-साथ नियमित रूप से हॉकी के नवोदित खिलाड़ियों को अपने अनुभवों का लाभ पहुंचाएंगे, लेकिन उन्होंने इसमें कभी दिलचस्पी नहीं ली। बल्कि वे अक्सर नेताओं मंत्रियों के यहां और सचिवालय में घूमते और चुगलखोरी करते जरूर देखे जाते हैं। कुछ मीडिया वालों के सामने माफियाओं और बदमाशों से अपने संबंधों का बार-बार बखान करने वाले इस क्षेत्रीय खेल अधिकारी की खेल के विकास में कभी कोई दिलचस्पी नजर नहीं आई। खिलाड़ियों के लिए जिम जैसी सुविधाओं का लाभ भी उनके बदमाश किस्म के लोग उठाते देखे जा सकते हैं। इस कारण उन्हें एक बार क्षेत्रिय क्रीड़ाधिकारी लखनऊ के पद से हटाकर आजमगढ़ जिले में स्थानांतरित भी किया जा चुका है।
तत्कालीन खेल निदेशक पद्मश्री केडी सिंह बाबू ने लखनऊ में उनके नाम से बने स्टेडियम में हाकी छात्रावास खोला था। उनमे निदेशक बनने के बाद भी नियमित रूप से खिलाड़ियों के बीच रहने और उन्हें टिप्स देने का जुनून रहता था। इनके बाद दूसरे तत्कालीन खेल निदेशक पद्मश्री जम्मन लाल शर्मा स्वयं फील्ड में जमकर हाकी का प्रशिक्षण दिया करते थे जिसमे उस समय नौ खिलाड़ी जूनियर इंडिया टीम में हुआ करते थे, परंतु हॉकी के अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी रहे आरपी सिंह स्वयं कभी भी फील्ड पर जाकर छात्रावास के बच्चों को प्रशिक्षण देते दिखाई नही दिए। इनसे भी आशा की जाती थी कि ये प्रदेश के हाकी के स्तर को ऊंचा उठाएंगे, मगर ये नेताओं, मंत्रियों के गुर्गों के मनोरंजन के लिए केडी सिंह बाबू स्टेडियम में बैडमिंटन जरूर खेलते दिखते हैं। कुछ रिपोर्टरों को बुलाकर उन्हें शराब मुर्गा ट्रैकसूट खेल के जूते उपलब्ध कराकर अपना गुणगान छपवाते हैं। अपने कार्यालय के बजाए अक्सर खेल मंत्री के कार्यालय और घर पर दिखाई देते हैं। खेलमंत्री भी इनके कहने पर प्रदेश के क्रीड़ा अधिकारियों को परेशान करते रहते हैं। यह भी एक जांच का विषय है।
ऐसे अधिकारी के उसी स्थान पर मौजूद रहते कोई जांच निष्पक्ष रूप से संभव हो सकती है? शायद नहीं। सुना गया है कि मुख्यमंत्री कार्यालय से खेल सचिव को पत्र लिखा गया था कि क्षेत्रिय क्रीड़ाधिकारी लखनऊ आरपी सिंह की वित्तीय एवं प्रशासनिक अनियमितताएं प्रकाश में आई हैं इसलिए इनका आख्या सहित स्थानांतरण प्रस्ताव तत्काल उपलब्ध कराया जाए। इस पर खेल निदेशक ने शासन को सूचित कर दिया बताते हैं कि आरपी सिंह की व्यक्तिगत पत्रावली माननीय खेल मंत्रीजी के पास उपलब्ध है, इसलिए पत्रावली के न होने के कारण इनके स्थानांतरण के संबंध में आख्या देना संभव नही है। इससे पता चलता है कि आरपी सिंह को बचाने की किस प्रकार और कैसी कोशिशें की जा रही हैं। एक पुरानी घटना है-तत्कालीन प्रमुख सचिव ने आरपी सिंह को खेल मैदान पर खिलाड़ियों के बीच उनके बाह्य व्यक्तित्व के प्रदर्शन के प्रति जागरूक करते हुए आदेशित किया था कि वे अपने को व्यवस्थित करें और खिलाड़ियों के सामने व्यक्तित्व का आदर्श प्रस्तुत करें मगर इन्होंने इसे अनसुना कर दिया। इनके आजमगढ़ तबादले का एक कारण यह भी था। ये सपा सरकार में मंत्री बने राजा भय्या के आशीर्वाद से करीब एक साल बाद फिर लखनऊ वापस आ गए। आजमगढ़ तैनाती के बावजूद ये लखनऊ में ही रहते थे। विभाग में इनका यही और एक ही बार तबादला हुआ है। इनसे बच्चे क्या अनुशासन और खेल भावना सीखेंगे?