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लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार ने कर्मचारियों की पदोन्नतियों में आरक्षण तथा परिणामी ज्येष्ठता के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका संख्या-2608/2011 में 27 अप्रैल 2012 को पारित निर्णय के अनुसार कार्मिक अनुभाग-2 के शासनादेश संख्या-4/1/2002 टीसी-का-2/2012 8 मई 2012 तथा 13 मई 2012 से आरक्षण समाप्त कर दिया गया है, लेकिन बताया जाता है कि विधान परिषद सचिवालय में सरकार के शासनादेशों के लागू होने के बाद भी परिषद के प्रमुख सचिव प्रताप वीरेंद्र कुशवाहा नियमों की अपने तरीके से व्याख्या करके अनुसूचित जाति के एक अत्यंत कनिष्ठ अनुसचिव की इसी आरक्षण के अंतर्गत प्रोन्नति करने पर बज़िद हैं।
विधान परिषद की वास्तविक ज्येष्ठता सूची के वैभागिक आदेश संख्या-3480/विप, 18 दिसंबर 1991 तथा वैभागिक आदेश संख्या-1246/विप, 30 जून 1994 में अंकित अधिकारियों, कर्मचारियों की प्रोन्नतियां नहीं की जा रही हैं, क्योकि अनुसूचित जाति के एक अत्यंत कनिष्ठ कर्मचारी बृजेश चंद्र, जोकि वरिष्ठता क्रम में एकल पात्रता सूची के अनुसार 31वें क्रमांक पर अंकित हैं, को प्रोन्नति देने के लिए उन्हें क्रमांक दो पर लाते हुये प्रमुख सचिव ने अपने नेतृत्व में, अपने ही निजी सचिव को चयन समिति का सदस्य बनाते हुए उसका अनुमोदित करा लिया जोकि अवैधानिक माना जाता है। इस चयन समिति के अन्य सदस्य, जो अनुभाग अधिकारी स्तर के हैं और वे चयन समिति के सदस्य हो ही नहीं सकते हैं, को चयन समिति का ‘सहयोगी समिति सदस्य’ नामित कर दिया है जबकि छोटे पद का अधिकारी अपने से उच्च पदों पर चयन की प्रक्रिया में शामिल ही नहीं हो सकता है।
उत्तर प्रदेश विधान परिषद सचिवालय तृतीय श्रेणी कर्मचारी संघ के अध्यक्ष राकेश कुमार पांडेय ने कहा है कि विधान परिषद में चयन प्रक्रिया के भी दो मापदंड अपनाये गये हैं। निजी सचिव संवर्ग की प्रोन्नतियों में किसी भी प्रकार की चयन समिति का गठन नहीं किया गया है और बिना चयन समिति के रामनरेश, कृष्ण चंद्र, महेंद्र नारायण सक्सेना, समर सिंह, बाल कृष्ण आदि जैसे सभी अनारक्षित कर्मचारियों को प्रोन्नति आदेश जारी कर दिये गये, जबकि दूसरे संवर्ग (अनुसचिव/अनुभाग अधिकारी संवर्ग) में अवैध चयन समिति का गठन करके चयन का कार्य किया गया, अर्थात एक संवर्ग में चयन समिति का गठन हुआ, जबकि दूसरे संवर्ग में चयन समिति का गठन नहीं किया गया।
उल्लेखनीय है कि विधान सभा सचिवालय में समान परिस्थितियों के रहते हुए विधान सभा के प्रमुख सचिव प्रदीप कुमार दुबे ने शासनादेश के अनुसार विज्ञप्ति/प्रकीर्ण संख्या-713, 714, 715, 716, 718,719, 720, 721, 722, 723 तथा 725/विस-6/97, 15 मई 2012 से ज्येष्ठता के आधार पर प्रोन्नतियां प्रदान कर दी, जबकि विधान परिषद के प्रमुख सचिव प्रताप वीरेंद्र कुशवाहा राज्य सरकार के शासनादेशों का उल्लंघन कर रहे हैं। प्रमुख सचिव विधान परिषद के इस अड़ियल रूख पर विधान परिषद के कर्मचारियों की यूनियन का कहना है कि अजीब बात है कि विधान परिषद के सभापति के निर्देशानुसार शासन के कार्मिक विभाग की राय प्राप्त होने के बाद भी प्रमुख सचिव विधान परिषद शासनादेश के विरूद्ध कार्य कर रहे हैं। इस संबंध में कई विधान परिषद के सदस्यों ने मुख्यमंत्री को भी पत्र लिखे हैं। मुख्यमंत्री के सचिव आलोक कुमार ने 29/30 मई 2012 को शासनादेशों के अनुसार 3 दिन में एकल पात्रता सूची बनाकर प्रोन्नतियां करने के निर्देश भी दिये, किंतु मुख्यमंत्री के निर्देशों की अवहेलना करते हुये प्रमुख सचिव वीरेंद्र कुशवाहा ने कोई कार्यवाही नहीं की।
सचिवालय के अधिकारियों, कर्मचारियों ने एक दिन के सांकेतिक विरोध स्वरूप काली पट्टी बांधकर कार्य किया, लेकिन प्रमुख सचिव विधान परिषद पर इस लोकतांत्रिक विरोध का भी कोई प्रभाव नहीं दिखा। विधान परिषद सचिवालय की विडंबना यह है कि इस उच्च सदन के सदस्य मुख्यमंत्री स्वयं हैं, फिर भी शासनादेशों के विपरीत और सेवानिवृत्ति के बाद दो वर्ष जून 2013 तक के लिए संविदा पर नियुक्त प्रमुख सचिव प्रताप वीरेंद्र कुशवाहा अपनी पूर्ववर्ती सरकार के प्रतिनिधि बनकर पिछली सरकार का एजेंडा लागू करवा रहे हैं। राकेश कुमार पाण्डेय ने क्षोभ व्यक्त किया है कि वर्तमान सरकार के शासनादेशों से विधान परिषद के कर्मचारी लाभान्वित होने से वंचित हैं, अत्यंत निराश व हताश हो रहे हैं। यह निराशा व हताशा बजट सत्र में बहुत जल्द विस्फोटक हो सकती है, जिसके लिए मुख्य रूप से विधान परिषद सचिवालय के प्रमुख सचिव प्रताप वीरेंद्र कुशवाहा ही जिम्मेदार होंगे।