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‘बस यही स्वप्न, बस यही लगन’

विमोचन और पुस्तक समीक्षा

दिनेश सिंह

पुस्तक-book

‘बस यही स्वप्न, बस यही लगन’ उस दिन की शाम लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान के भव्य परिसर में प्रवेश करते ही सबसे पहले इसी शब्द श्रृंखला ने अति विशिष्ट, विशिष्ट अतिथियों का और हमारा स्वागत किया। एक नौकरशाह में भावनाओं की ऐसी प्रधानता कहां देखने को मिलती है? मगर यह कार्यक्रम था-कर्तव्य और भावुकता के दृढ़ निश्चय के एक साथ प्रदर्शन का, जिसमें स्वप्न और लगन की सार्थकता का संदेश वहां के वातावरण में विद्यमान था। हाल के बाहर की कवितामय सज्जा को निहारते हुए अंदर पहुंचे तो फूलों से सुसज्जित अलौकिक मंच, सामने कुर्सियों पर विराजमान कविता, साहित्य से जुड़े महानुभावों, वर्तमान और पूर्ववर्ती नौकरशाहों, राजनेताओं, सामाजिक क्षेत्र में विशिष्ट काम करने वालों को आग्रहपूर्वक अपना स्‍थान ग्रहण कराते हुए दिखाई दिए जय शंकर मिश्र ‘जय’।
जय शंकर मिश्र एक नौकरशाह के रूप में जाना पहचाना नाम है, क्योंकि इस रूप में उन्हें लगभग सभी विशिष्ट क्षेत्रों के लोग जानते हैं, मगर उनके भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहते हुए यह बहुत ही कम लोग जानते थे, कि उनके हृदय में एक कवि भी बसता है, जो एक लोकसेवक के कर्तव्य निर्वहन के साथ, अपने भीतर की भावनाओं को उत्कृष्ट कविताओं का रूप भी देता है। जय शंकर मिश्र के दोस्तों और शुभचिंतकों को मालूम रहा है कि वे एक श्रेष्ठ रचनाकार हैं और उन्हें अपनी रचनाओं को जयशंकर मिश्र-jai shankar mishraसाकार रूप देने के लिए उनके मित्र, शुभचिंतक और उनका परिवार भी उन्हें प्रेरित करता रहा है। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप उस दिन लखनऊ वासियों के सामने जय शंकर मिश्र के कवि जीवन का परिचय भी हुआ। लोगों ने अभी तक उन्हें एक सफल नौकरशाह के रूप में देखा है और अब वे उनसे कवि रूप में रू-ब-रू हैं। ‘बस यही स्वप्न, बस यही लगन’ कृति का उस दिन राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विमोचन किया और मुंबई से आए उस्ताद रा‌शिद खां जैसे बड़े कलाकारों ने उनकी रचनाओं को स्वर और संगीत देकर श्रोताओं को आत्मविभोर किया। जय शंकर मिश्र, इस कार्यक्रम के सफल आयोजन का श्रेय अपने पुत्र प्रोफेसर अभिषेक मिश्र को देते हैं, जिन्होंने अपने कवि पिता का एक विशिष्ट अंदाज़ में उपस्थित महानुभावों से परिचय कराया।
जेएस मिश्र यानि जय शंकर मिश्र यानि ‘जय’ ने उत्तर प्रदेश सरकार और भारत सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है। पिछले कुछ वर्षों तक भारतीय खादी ग्रामोद्योग आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिशासी के पद पर कार्य करते हुए हाल ही में अवकाश ग्रहण किया है। जय शंकर मिश्र ने जिन कविताओं की रचना की हैं, उनमें कोई ऐसी नहीं है, जो औरों की तरह एक लीक में चली हो और नाही उन्होंने ऐसा अवसर दिया है कि कहीं श्रोता या पाठक को अपना ध्यान हटाने का समय मिले। इन कविताओं में भाषा, शैली और प्रस्तुतिकरण उत्कृष्ट है और वह शोधार्थियों के लिए भी एक अच्छा विषय है। एक नौकरशाह जिसके पास समय का अत्यंत अभाव होता है, उसके मन में कविता के भावों की भी प्रधानता एक विलक्षण व्यक्तित्व का परिचय कराती है।
संस्कृति एवं साहित्य की अनेक विधाओं से समृद्धशाली जय शंकर मिश्र की कविता एक जीवन के अनुभव से निकलती है और शांत बहती हुई नदी की तरह से चलती है। इसमें भावनाओं और कर्तव्यों की प्रधानता है। कवि का सिद्धांत ही एक स्वप्न देखता है और उसे पूरा करने के लिए लगन को संघर्ष में उतार देता है। इसमें प्रेम और प्रणय की अनुभूति और प्राकृतिक सौंदर्य की उपमाओं को रच-रच कर प्रकट किया गया है। ‘बस यही स्वप्न, बस यही लगन’ ऐसे ही मनोरम गीतों का संग्रह है। जय शंकर मिश्र ने इस कृति में कुल 41 गीत संग्रहीत किए हैं। सभी गीत उनके विशाल एवं शांत हृदय में उर्मियों के समान हैं, जिनमें निश्छल मन की सुमधुर अभिव्यक्ति है और पाठकों के अंर्तमन को छूने की सामर्थ्य। जय शंकर मिश्र उन्मुक्त भाव से लिखते हैं-
अधरों से बरबस गीत मुखर,
उपवन में जब कोयल गाए
मन में उमंग तन में तरंग,
चल दूर गगन तक उड़ आएं।

जय शंकर मिश्र का उनकी रचनाओं में सौंदर्य बोध भी अद्भुत और वास्तविक है। वे उस सौंदर्य को श्रेष्ठ नहीं मानते जो क्षरणशील है। वास्तविक सौंदर्य में समय के साथ किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आती। वह सौंदर्य आंतरिक होता है, वही शिवत्व से मंडित होता है तथा वही दिव्य आनंद की अनुभूति भी कराने में समर्थ होता है-
जो दिव्य है, जो परम है,
आनंदमय नित प्रीतिमय है,
है वही सुषमा, वही अभिराम,
शिवमय वही सौंदर्यमय है।

जय शंकर मिश्र के अनुरागी और कवि के प्रेम से परिपूर्ण एक सच्चे हृदय में विषम परिस्थितियां भी कोई अप्रिय हलचल उत्पन्न नहीं कर पातीं हैं, क्योंकि कवि कहता है कि जो अप्रिय हलचलें हैं, वे केवल क्षणिक प्रभाव ही डालती हैं। यहां कवि की भावुकता के साथ ही उसकी अपनी विचारशीलता भी मुखरित हुए बिना नहीं रहती, क्योंकि वह जानता और मानता है कि यह संसार परिवर्तनशील है और अगला पल भी अनिश्चित है। प्रकृति‌नटी के अनेक रंग रूप साधारण व्यक्ति के मन में सहसा भय की सृष्टि कर सकते हैं, परंतु विचारशील लोग यह जानते हैं कि प्रकृति के ये रूप कभी स्‍थायी नहीं होते-
यद्यपि परिवर्तनशील विश्व,
अगला पल पूर्ण अनिश्चित सा,
पर प्रकृतिनटी के रंग रूप,
भय उपजाएं मन भी भाए।

जय शंकर मिश्र ने जीवन को भलीभांति समझने और उसे रचना में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उनका दृढ़ विश्वास है कि जीवन की सार्थकता उसके अस्तित्ववान होने में है, अतः झंझावातों में भी वह अपनी आशा के दीप को जलाए रखता है और जो कुछ भी लिखता या करता है वह उसकी अपनी प्रकृति के अनुकूल ही होता है, क्योंकि बनावटीपन या कृत्रिमता उसके स्वभाव का अंग नहीं है। उसके जीवन का यह आशावाद उसके गीतों में भी सर्वत्र उभरता दिखाई देता है-
निज प्रकृति छोड़ उत्साह हीन,
जीवन-यापन क्या जीवन है?
झंझावाती अंधी निशि में नित,
दीप प्रज्जवलन जीवन है।

इस उद्धरण से एक बात जो उभर कर आती है, वह यह है कि वे आशावादी मनोवृत्ति के नायक हैं और पल-पल इसी के सहारे अपने जीवन में आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं। उनके विचार में स्वप्न देखना यौवन का प्रतीक है। युवा मन निरंतर नए स्वप्न देखता है और तदनुरूप वह अपने जीवन को साकार बनाने का प्रयत्न करता है-
यह जीवन उनका ही सार्थक,
जो स्वप्न बुनें, जो स्वप्न रचें,
पलकों पर स्वप्न लिए सोएं,
हर प्रातः स्वप्न के संग जगें।

उपर्युक्त पंक्तियों में जो प्रेरणा भाव है, निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढ़ने का जो उत्साह है और जीवन जीने का जो सही ढंग है, उसी को उन्होंने बड़े कम शब्दों में सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया है। यह सत्य है कि किसी के जीवन में न तो केवल दुख ही दुख रहते हैं और न ही केवल सुखों का ही साज सजा रहता है। ज़िंदगी की अपनी गति होती है, अपनी लय होती है। कभी ये उफनती हुई नदी के प्रबल वेग की भांति उद्दाम होती है तो कभी सागर के उतरते हुए ज्वार के समान शांत होती है। जय शंकर मिश्र ने ज़िंदगी के विविध रंगों को काव्य की भाषा में जो अभिव्यक्ति दी है, वह पूरी तरह मौलिक एवं अभू‌तपूर्व है-
गीत है, छंद है, गद्य है, पद्य है,
इस धरा का यही साज श्रृंगार है,
बढ़ चले, चढ़ चले तो गगन चूम ले,
भटक जाए तो मात्र व्यापार है।

एक बात और स्पष्ट रूप से उभरती है कि उनके गीत उनके मन में उठने वाली तरंगों से प्रभावित हैं। मन में जो भाव उठते हैं, वही उनके गीतों की श्रृंखला रूप में प्रकट हो जाते हैं। वाह्य जगत में जो कुछ घटित होता है, उससे वे बहुत अधिक प्रभावित नहीं हैं। वाह्य समाज में ‌घटित घटनाओं को वे गीतों का विषय भी नहीं बनाते। वास्तव में वे केवल भावनाओं और आत्मिक आनंद में खोए रहने वाले अंतर्मुखी रचनाकार हैं, इसीलिए उनके गीतों में जो आनंद की सृष्टि होती है, उससे पाठक अभिभू‌त हुए बिना नहीं रह सकता। सुंदर प्रवाह, शब्दों का चयन भावानुकूल है, भाषा लालित्य गुण से परिपूर्ण है। भाषा का लालित्य और गीतों का संगम उन्हें उन तमाम रचनाकारों से अलग करता है, जो गीतों की रचना में हृदय की अपेक्षा बुद्धि को और प्रचलित वैचारिक आंदोलनों को अधिक महत्व प्रदान करते हैं।
वे सच्चे अर्थों में ऐसे गीतकार हैं, जो अपने हृदय की गहराई से उद्भूत होने वाले मनोरम भावों की सरस अभिव्यक्ति के से श्रोता को अभिभूत करने की सामर्थ्य रखते हैं। गीतों का अनुशीलन करने के उपरांत दावे के साथ यह कहा जा सकता है कि आज के तमाम गीतकारों की भीड़ में वे एक अकेले विलक्षण और ऐसे रचनाकार हैं, जिनके गीतों में मधुरता और लयात्मकता दृष्टिगोचर होती है। संगीत की कसौटी पर भी ये गीत पूरी तरह खरे उतरते हैं। इन्हें संगीतबद्ध करके साफ सुथरी फिल्मों में पिरोया जा सकता है। यह कविता संग्रह कवि का एक दर्पण है, कवि के भीतर जो है उसे जिस भावना और सच्चाई से प्रकट किया गया है यह हर किसी के वश की बात नहीं है। यह सच्चाई अन्य विख्यात रचनाकारों के सामने बड़ी चुनौती भी पेश करती है।
भारतीय वाड्मय, उपनिषदों एवं दार्शनिक ग्रंथों के अध्ययन में जय शंकर मिश्र की गहरी अभिरूचि है। पूर्व में प्रकाशित चार काव्य-संग्रहों के अतिरिक्त उनकी अंग्रेजी भाषा में ‘ए क्वेस्ट फॉर ड्रीम सिटीज’,‘महाकुंभः द ग्रेटेस्ट शो ऑन अर्थ’,‘हैप्पीनेस इज ए चॉइस चूज टू बी हैप्पी’ एवं इसका हिंदी भावानुवाद ‘24x7 आनंद ही आनंद’ आदि प्रकाशित हो चुकी हैं। ये रचनाएं भी अत्यधिक अभिरूचि एवं आह्लाद के साथ लोकप्रिय हुई हैं। ‘बस यही स्वप्न, बस यही लगन’ भी एक ऐसा ही काव्य संग्रह है, जोकि एक श्रेष्ठ कृति है। जय शंकर मिश्र ने इसे अपने पाठकों के साथ-साथ अपनी सुपुत्री प्रशस्ति और दोनों पुत्रवधुओं स्वाति एवं नेहा को स्नेह और आशीष सहित अर्पित किया है। यह सुंदर कृति जरूर पढ़िएगा! प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।

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