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जसवंत की गिरफ्तारी के कुछ और मायने!

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लखनऊ।उत्तर प्रदेश में प्रेस के हाथ पैर अब महफूज़ नहीं लगते हैं। किसी भी तरह मीडिया को काबू में रखने की मानो एक मुहिम चल रही है। जालौन में दर्जन भर पत्रकारों पर झूठा मुकदमा दर्ज किया गया। और भी जिलों में सत्ता पक्ष और माफियाओं के गुंडों की ओर से पत्रकारों के उत्पीड़न की शिकायतें जोरों पर हैं। इसी प्रकार पिछले दिनों नोएडा में भी वेब पोर्टल भड़ास के संचालक जसवंत सिंह के खिलाफ एक सुनियोजित एफआईआर पर उनकी गिरफ्तारी हुई। जालौन और नोएडा का मामला तो काफी गर्म है। नोएडा मामले में बात यह सामने आ रही है कि रंगदारी के अपराध पर कार्रवाई की ओट में अखिलेश सरकार एक समाचार चैनल को खुश करने की कोशिश कर रही है।
मायावती सरकार
में भी दिल्ली के एक वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह के खिलाफ लखनऊ के गोमती नगर थाने में ऐसी ही एफआईआर दर्ज की गई थी। वह भी एक समाचार पत्र समूह के कार्मिक से पचास लाख रूपए की फिरौती मांगने का मुकदमा दर्ज किया गया था और नोएडा का मामला एक समाचार चैनल के अधिकारी विनोद कापड़ी से बीस हजार रूपए की रंगदारी वसूल करने का मुकदमा है, जो लखनऊ के ही अंदाज में दर्ज हुआ है। फर्क इतना है कि नोएडा में पुलिस ने जसवंत सिंह की गिरफ्तारी की कार्रवाई को भी अंजाम दे दिया है। जितने विवादास्पद जसवंत उतना ही हद दर्जे का घटिया और सुनियोजित मुकद्मा माना जाता है, जिसकी भावना और भाषा बखूबी समझी जा रही है। इस एफआईआर का जिस तरह से इस्तेमाल हुआ है, उसका असली सच यही लगता है कि इस समाचार चैनल के पीछे खड़े होकर उत्तर प्रदेश सरकार ने वेब मीडिया को डराने और उस पर हमला करने की नाकाम कोशिश की है। किसी पत्रकार के खिलाफ ऐसी एफआईआर दर्ज होने का सीधा मतलब है कि मीडिया को किसी भी तरह काबू में किया जाए।
वेब पत्रकार
जसवंत सिंह के खिलाफ दर्ज इस एफआईआर की मंशा प्रथम दृष्टया ही प्रकट हो जाती है। हालांकि पत्रकारों में भी जसवंत को लेकर एक गतिरोध बना हुआ है, लेकिन नोएडा के पुलिस अधीक्षक प्रवीण कुमार ने जसवंत को जेल भेजने में जितनी एकतरफा तेजी दिखाई है, उससे यह ‘आपरेशन मीडिया’ बन गया है। जसवंत सिंह के मुकदमें में पुलिस की ऐसी दिलचस्पी तो ईनामी माफियाओं के खिलाफ छापामार कार्रवाई में भी नहीं देखी गई। जसवंत पर साइबर अपराध के तहत भी मुकदमा दर्ज हुआ है, इसलिए देखना है कि इसमें आगे क्या होगा? पर यहां से अब एक और नई ‘राजनीति’ शुरू होती दिखाई दे रही है, क्योंकि पुलिस या ‌अखिलेश सरकार को समाचार चैनल पर जितना एहसान करना था, उसने कर दिया, लेकिन नोएडा के एसपी प्रवीण कुमार अखिलेश सरकार के वेब मीडिया को काबू में करने के एजेंडे को कितनी सफलता दिला पाएंगे?
हम स्पष्ट
कर रहे हैं कि वेब पत्रकार जसवंत सिंह की विवादग्रस्त कार्यशैली की यहां कोई पैरवी नहीं है, चूंकि इस एफआईआर के पीछे की मंशा बिल्कुल किसी की आड़ लेकर वेब मीडिया पर हल्ला बोलने की है, इसलिए इस मामले के सारे पक्ष सामने होने चाहिएं। समाचार चैनल के अधिकारी विनोद कापड़ी और वेब पत्रकार जसवंत सिंह में क्या झगड़ा है और उनमें आपस में क्या-क्या बातें हुईं, जो नहीं हुईं या जो भी हुईं, नौबत एफआईआर तक पहुंची है। विनोद कापड़ी की ओर से नोएडा के थाने में एकतरफा एफआईआर दर्ज की जाती है। आरोप लगाया जाता है कि जसवंत सिंह उन्हें और उनकी पत्नी साक्षी जोशी को एसएमएस कर-करके उनसे बीस हजार रुपए की रंगदारी मांग रहे हैं। इसी तहरीर पर कार्रवाई होती है और तुरंत नोएडा पुलिस वहां के पुलिस अधीक्षक प्रवीण कुमार के निर्देशन में किसी बदमाश को घेरकर पकड़ने के अंदाज में जसवंत सिंह को ‌कहीं और घेराबंदी करके गिरफ्तार करना दिखाती है और गंभीर मुकदमें दर्ज कर डासना जेल भेज देती है।
मीडिया
में सब जानते हैं कि गंभीर आपराधिक मामलों को छोड़कर बाकी पत्रकारों के विवाद या मीडिया संस्थानों के बीच किसी विवाद की सीधे एकतरफा एफआईआर दर्ज करने की किसी एसपी या थानेदार की हिम्मत नहीं है। लखनऊ में भी पुलिस के अधिकारी जानते हैं कि मीडिया के ऐसे आपसी मामलों में सामान्यतया किस प्रकार की एहतियात बरती जाती है, जिसका सीधा सा मतलब है कि जरूर इस एफआईआर के पीछे ऊपर से प्राप्त किया हुआ कोई ‘आदेश’ हो सकता है, जिससे यह कार्रवाई हुई। सरकार के किसी मंत्री और निचले स्तर के किसी अधिकारी, जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक की भी इतनी हिम्मत नहीं है कि वह पत्रकारों के मामले में सीधे ऐसी एफआईआर दर्ज करा सकें। घटनाक्रम से प्रतीत होता है कि यह एफआईआर दर्ज करने का आदेश देने से पहले इसके नफे नुकसान पर जरूर मंथन हुआ और इसे सरकार का फायदा बताकर ‘आप्रेशन वेब मीडिया’ को हरी झंडी दे दी गई।
मुख्यमंत्री
की राजनीतिक और प्रशासनिक सफलता के लिए उनके सामने रोज ऐसे ही घटिया फार्मूले पेश करने वाले कुछ चाटुकार पत्रकार या कुछ अफसर इसी तरह मुख्यमंत्री को उलझा कर उनकी किरकिरी कराते रहते हैं। इस मामले में तो एकतरफा एफआईआर दर्ज हुई है, गिरफ्तारी हुई है और जसवंत सिंह की तहरीर भी नहीं ली गई है, इसलिए इसे दर्ज करने में सरकार में शीर्ष स्तर पर सहमति नहीं हुई हो, ऐसा हो नहीं सकता, अगर नोएडा की पुलिस कह रही है कि सब कुछ ऊपर के आदेश से है, तो पत्रकारों को यह संदेश जरूर पकड़ना चाहिए कि यह आदेश कहां से हो सकता है।
पत्रकारों
एवं अखबारी संस्थानों के आपसी और हिंसक विवादों के कई उदाहरण हैं। जसवंत भी इन विवादों को अपने पोर्टल पर छापते हैं। जब भी पत्रकारों एवं समाचार संस्थानों के बीच व्यवसायिक प्रतिद्वंद्विता या पेशेवर विवाद या आपसी झगड़ों के मामले राज्य के प्रमुख शहरों या राजधानी के थानों तक पहुंचे, तो संबंधित अधिकारियों ने सबसे पहले राज्य के शीर्ष सत्ता नेतृत्व से ही मार्गदर्शन प्राप्त किया, तभी उसमें कोई कार्रवाई आगे बढ़ सकी। काफी समय पूर्व राजधानी के दो तीन प्रकाशन समूहों की अखबार की टैक्सियों को रोकने, अखबारी बंडल छीनने को लेकर झगड़े-झंझट में सरकार तटस्थ ही देखी गई और बाद में सुलह से ऐसे मामले समाप्त कर दिए गए। इस मामले में किसी समाचार चैनल को इस तरह से खुश करने की घटिया रणनीति सामने आई है।
मीडिया
को यह पता लगाना बहुत जरूरी हो जाता है कि नोएडा पुलिस किसके इशारे पर दो पत्रकारों के मामले में इतनी तेजी दिखा रही है। काश! नोएडा पुलिस की यह कार्रवाई और कई गंभीर मामलों में भी इस तरह से सामने आई होती। मीडिया को यह समझ लेना चाहिए कि इस एफआईआर को नज़र अंदाज करने के कई बड़े खामियाजे हो सकते हैं, क्योंकि इसमें पुलिस का रिपोर्टकर्ता विनोद कापड़ी को न्याय प्रदान करने का उद्देश्य कम, बल्कि इसकी आड़ में मीडिया को हड़काने और सबक सिखाने का उद्देश्य ज्यादा प्रकट होता है। बिखरे पत्रकारों को इस एफआईआर ने कुछ सोचने को मजबूर कर दिया है। इस घटनाक्रम का एक महत्वपूर्ण पहलू और भी है, जो कहीं न कहीं पत्रकारों की जिम्मेदारियों और पेशेवर कुशलता पर गंभीरता से सोचने की ओर ले जाता है।
स्पष्ट है
कि जिसे कहीं छिपाने की कोशिश की जा रही है, वह ही समाचार है, चाहे वह किसी से भी संबंधित क्यों न हो। अगर आप के पास कोई तथ्यात्मक जानकारी है तो आप उसे लिखिए। पाठकवर्ग को साफ-साफ बताना ही होगा कि सच क्या है। ऐसा सच भी उजागर करने से कोई लाभ नहीं है, जिसकी आंच समाज संप्रदाय या किन्हीं की सुरक्षा को खतरे में डालती हो। जिसे हम खबर मान रहे हैं, वह पाठकों के लिए कितनी उपयोगी है और पाठकों से उसके कहां तक सरोकार हो सकते हैं, इसे भी देखना होगा। जब ऐसी बहुउद्देश्ययी एफआईआर दर्ज होंगी, तो कल्पना की जा सकती है कि मीडिया को किनसे और कहां से ख़तरा है?

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