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निंदा बड़ा रस देती है!

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

निंदा बड़ा रस देती है। निंदा के लिए कभी शब्दों की कमी नहीं पड़ती। निंदक शिक्षित हो तो क्या कहना? वह तरह-तरह के उदाहरण खोज लाता है, निंदा के पक्ष में, लेकिन निंदा से निंदक की ही क्षति होती है। वह निंदा का लती हो जाता है। बुराई के प्रति उसका आकर्षण बढ़ता है। वह जीवन के शुभ्र पक्षों की उपेक्षा करता है, उनके भीतर भी निंदनीय तत्व खोजता है। वह अच्छे की भी निंदा में रस लेता है। हमारी राजनीति का मुख्य तत्व ही निंदा है। एक दूसरे की तीखी निंदा ही लोकतंत्र हो गया है। राजनेता भिन्न विचार वाले राजनेता की कोई प्रशंसा नहीं करते। उसकी योग्यता, मेहनत, मिलनसारिता, जमकर काम करने की निष्ठा आदि की भी नहीं। सब एक दूसरे के निंदक हैं।

प्रशंसा करे कौन? इसलिए राजनेता स्वयं अपनी ही प्रशंसा करते हैं। राजनेता का मन अशांत रहता है। अशांत मन तमाम उपद्रव कराता है। अशांत चित्त तनावग्रस्त रहता है। कहते हैं, पतंजलि योग विज्ञानी थे। वे राजा पुष्यमित्र शुंग के प्रधानमंत्री थे। राजनीति के भीतर थे। उनके योगसूत्र मन की बेचैनी के उपचार हैं। लिखा है-प्रसन्न व्यक्ति के प्रति मैत्री मित्र भाव, दुखी के प्रति करूणा पुण्यवान के प्रति मुदिता और पापी के प्रति उपेक्षाभाव रखने से मन प्रशांत होता है। (योगसूत्र 1.33)
पतंजलि का यह सूत्र बड़ा प्यारा है, लेकिन हमारे मन का स्वभाव ऐसा नहीं होता। इसीलिए मन अशांत रहता है। प्रसन्न व्यक्ति को देखकर मैत्री भाव नहीं उगता। मन की लत दूसरी है। हम प्रसन्न को देखकर प्रसन्न नहीं सन्न हो जाते हैं। सो प्रसन्न को देखकर ईर्ष्या भाव उगता है। तरह-तरह के विचार उगते हैं। फिर इसी भाव को शब्द देने के लिए निंदा शुरू होती है। हम भी प्रसन्न के प्रति प्रसन्न हों तो ईर्ष्या की जरूरत नहीं होगी और न ही निंदा की। प्रसन्न की प्रसन्नता में साझा न करने से पैदा दुख की भरपाई के लिए ईर्ष्या भाव आता है और ‘निंदा रस’ प्रसन्नता का विकल्प बनता है। प्रसन्नता प्रकृति का प्रसाद है। दुख बोध हमारा विषाद है। प्रकृति प्रसन्नता से भरी पूरी है। हम जितना प्रसन्न होना चाहें हो लें। कोई रोक नहीं, लेकिन हम प्रसन्न को देखकर प्रसन्न होते ही नहीं। इसीलिए विषाद आता है और अंततः अवसाद भी।
मित्रता का मनोभाव ही इसका उपचार है। मित्रता की मनोवृत्ति हमें तनाव मुक्त बनाती है। मैत्रीभाव ही हमारी प्रसन्नता का मुख्य कारण है। मैत्रीभाव सम्बंधों का नया संसार गढ़ता है। समूची सृष्टि प्रकृति के प्रति मित्रभाव का आनंद बड़ा है। इसी से करूणा भी पैदा होती है। दुखी के प्रति संवेदनभाव का नाम करूणा है। करूणा भी मित्रभाव है, लेकिन उससे ज्यादा गहरा है। दुखी को देखकर उसके दुख की गहराई तक दुखी हो जाने वाले मैत्रीभाव का ही दूसरा नाम करूणा है।
करूणा बड़ा गहन मनोभाव है। यह दया या अनुकंपा नहीं है। दुखी व्यक्ति के दुख के तल पर गहरे उतरना ही करूणा की अनुभूति है। भारत के सारे अवतार ‘करूणावतार’ कहे गये हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण और बुद्ध, महावीर। यहां पूरी जीवन ऊर्जा ही करूणा में बदल गयी है। करूणामय व्यक्ति का जीवन तनावपूर्ण नहीं होता। हो भी नहीं सकता। प्रसन्नता के प्रति मैत्री और दुखी के प्रति करूणा दोनो ही प्रशांत मन के कारक हैं, लेकिन मंजिले और भी हैं। पुण्यवान के प्रति मुदिता और पापी के प्रति उपेक्षा भाव के पतंजलि सूत्र भी विचारणीय हैं। पुण्यवान प्रसन्न से बड़ा है और पापी दुखी व्यक्ति से भी नीचे अधोगति में है।

पाप और पुण्य भारतीय चिन्तन की खूबसूरत संपदा है। ऊपर अनंत आकाश उसकी यात्रा है, लेकिन नीचे और नीचे लगातार अधोगमन पापी की गति है। पुण्यवान को देखकर आनंदित होने का भाव हमारे चित्त को आशा से भरता है, लेकिन पापी को देखकर हमारा मन स्वयं को श्रेष्ठ समझने की गलती करता है। पापी इसी समाज का अंग है। उनके प्रति निंदा या शत्रुभाव उनसे जोड़ता है। उपेक्षाभाव असम्बद्ध करता है।
प्रशांत चित्त सबकी इच्छा है। लेकिन मन के स्वभाव तंग करते हैं। जीवन दृष्टि को सकारात्मक बनाने से ही सफलता मिलती है। निंदा स्तुति से मुक्त मन ही प्रशांत होता है। प्रशांत मन सृजनात्मक होता है और अशांत मन विध्वंसक। हमारे मन की अशांति हमारे रोजमर्रा के कार्यो पर असर डालती है। हम सभ्यता के झूठे आवरण में होने के कारण प्रियजनो परिजनों पर गुस्सा उतारते हैं। बहुधा निर्जीव वस्तुओं पर। चाय का कप तोड़ देते हैं। मैं स्वयं पेन तोड़ देता रहा हूं। ढेर सारे पेन तोड़े होंगे मैंने। अशांत मन से न सत्य सधता है और न शिव सुंदर।

विष्णु भारतीय लोकजीवन के निराले देवता हैं। वे ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक छाये हुए हैं। वे रामायण में रामावतार हैं और महाभारत में कृष्णावतार, लेकिन उनका मूल चरित्र ‘शांताकार’ है। मजेदार बात यह है कि वे सांपों पर लेटते हैं-भुजगशयनं। घर में सांप की आशंका भी अशांत बनाती है, लेकिन विष्णु सांप पर लेटकर भी ‘शांताकारं’ हैं। इसी का परिणाम है कि लक्ष्मी उनके पैर दबाती हैं। हम शांत हों तो लक्ष्मी पैर दबाएंगी, लेकिन हम सब अशांत हों तो लक्ष्मी के पैर दबाने के लिए अभिशप्त हैं। हाय लक्ष्मी हाय लक्ष्मी की धुन में सदा दुखी हैं।
पतंजलि मनसविद् थे। वे सिंगमंडल फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक नहीं थे। फ्रायड ने मन की गहराइयों को तो जांचा, लेकिन उसके पास कोई उपचार नहीं था। फ्रायड का ‘साइकोएनालिसिस’ अद्भुत है, लेकिन मनोविश्लेषण के आगे की यात्रा नहीं है। पतंजलि के पास तमाम उपचार थे। प्रसन्न के प्रति मैत्री, पुण्यवान के प्रति मुदिता, दुखी के प्रति करूणा और पापी के प्रति उपेक्षा के भाव नहीं बनते तो भी यहां विकल्प है। बताते हैं “श्वास निकालने और रोकने से भी मन शांत होता है।” यहां सीधी शारीरिक कार्रवाई हैं शरीर का ही सूक्ष्म हिस्सा मन है। अराजक मन को व्यवस्था देने का काम ‘प्राण’ करता है।

प्राण का आयाम व्यवस्थित करने से भी मन प्रशांत होता है। यही प्राणायाम हैं योग गुरू रामदेव पतंजलि के अनुयायी हैं। वे ऐसे प्रयोगों के विशेषज्ञ हैं ऐसे प्रयोगों से ढेर सारे लोगों को शारीरिक लाभ हुआ है लेकिन मनः शांति तो भी दूर की कौड़ी है। मन की समूची कार्रवाई को ही बदलना बड़ा काम है। ऐसी कार्रवाई में कोई ‘शार्ट कट’ नहीं होता। एक-एक कदम, सधा हुआ कदम उठाकर ही अंर्तयाद पूरी होती है। बेशक व्यक्तिगत रूप में यह अंर्तयात्रा है, लेकिन इससे शांत हुआ चित्त अनेक सृजनात्मक सामाजिक परिणाम देता है।
हम केवल शरीर मन या बुद्धि ही नहीं है, इसके परे एक दिव्य चेतना हैं। शरीर, मन और बुद्धि उसी चेतन की सहायता से गति करते हैं। उपनिषद् के ऋषि उसे ज्योतिर्मय-प्रकाश बता गये हैं। वह दिव्य है, हिरण्यरूप ज्योतिरूप है। उसी की आभा, प्रभा से हमारा तेज ओज है। अष्टावक्र ने भी उस परम प्रकाश तेजरूप को नमस्कार किया है। पतंजलि ने उसकी ओर ध्यान देने का निर्देश दिया है। विशोका वा ज्योतिष्मती-वह आंतरिक ज्योतिर्मयता सभी दुखों से परे है। रोग शरीरी है, शोक मानसिक है, अशांति मन पर है, अज्ञानता बुद्धिगत है, लेकिन अंदर की वह ज्योति शोक ग्रस्त नहीं होती, अशांत भी नहीं होती। प्रकाश ही प्रकाश है, हमारे अंतर्मन में। विश्व की परम ऊर्जा से दीपित है यह अन्तःक्षेत्र। अष्टावक्र उसे नमस्कार करते हैं।

उपनिषद् के ऋषि उसकी आराधना करते हैं और पतंजलि उसी पर ध्यान लगाने के सूत्र देते हैं। भारत के अतीत में समग्र मानवता को मुद मोद प्रमोद में रहने की तमाम विधियां थीं। मन के परे आनंद आकाश तक उड़ने के तमाम सूत्र थे। आज केवल ‘मनोरंजन’ है और मनोरंजन चित्त को प्रशांत नहीं करता। नतीजा अशांत विश्व मानवता है।

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