भाग्यश्री काले
मुंबई। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और दहिहंडी का उत्सव मनाने के बाद मुंबई और पुणे में गणेशोत्सव की तैयारियां शुरू हो गई हैं। शुभ कार्यों को निर्विघ्न संपन्न करने के लिए गणपति की तीनों लोक में वंदना होती है, उनके यशगान और अभिषेक के लिए मुंबई और इसके आस-पास के उपनगरों में गणपति की मूर्तियां बनाने का भी काम शुरू हो चुका है। यहां ज्यादातर मूर्तियां पेन शहर से आती हैं, जहां के लोग गणेश की मूर्तियां बनाने के विशेषज्ञ हैं। यहां के बाजारों में कुछ लोग अपने हाथ से भी मूर्तियां बनाते हैं, किंतु इस वक्त यहां का मौहाल बदल गया है। हर इलाके में गणेश मूर्ति विक्रेताओं ने अपना मंडप बांधा है। गणेश मूर्तियां खरीदने के लिए छोटी ऊँचाई के मूर्तियों से लेकर बड़ी ऊँचाई की मूर्तियां यहां उपलब्ध हैं।
मुंबई और इसके आस-पास के उपनगरों में हर साल करीबन 15,000 सार्वजनिक गणेशोत्सवों का आयोजन किया गया है। यहां गणपति की सजावट के साथ-साथ विद्युत, मंडप और सामाजिक कार्यक्रमों की भी बड़ी प्रसिद्धी मिलती है। हालॉकि इनके अलावा घरों में भी गणेश मूर्तियां बिठाई जाती हैं, लेकिन उनका आंकड़ा मिल पाना मुश्किल है। गणेशोत्सव के छोटे, मध्यम और बड़े बजट मंडलों की संख्या करीबन 3500 से 6000 तक है। मुंबई में एक से 25 फुट तक की गणेश मूर्तियों को मंडलों में लगाया जाता है। बड़ी मूर्तियां सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल में दिखाई जाती हैं, जबकि गणेश की छोटी मूर्ति यहां के घरों में स्थापित की जाती है। शहर के विभिन्न क्षेत्रों में गणेश की प्रतिमाएं सजाई जाती हैं। शहरवासी गणपति महोत्सव मनाने के लिए अभी से प्रतिमाएं खरीदने आने लगे हैं। गणपति महोत्सव के लिए बाजार में नई डिजाइन की प्रतिमाएं भी आई हैं। इन मूर्तियों का आकार कुछ भी हो, मगर ये मूर्तियां लगभग एक जैसी ही रहती हैं।
गणेश उत्सव न केवल महाराष्ट्र में सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है, बल्कि संपूर्ण भारत में इसे राष्ट्रीय पर्व के रूप में सम्मान प्राप्त हो चुका है। देश में अन्य राज्यों के अलावा उत्तर प्रदेश के विख्यात चंदौसी नगर में भी यह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है और मुंबई में तो इसकी धूम ही होती है। यहां के लिए गणेशोत्सव का बड़ा ही महत्व है। इस अवसर पर लोग धार्मिक आयोजनों के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी करते हैं। संगीत, भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि से सारे मुंबई में अत्यंत भावुक वातावरण बन जाता है और इस प्रकार राष्ट्रीय एकीकरण की भावना को भी बल मिलता है।
हिंदू पंचांग के अनुसार यह उत्सव भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष के चौथे दिन प्रमुखता से मनाया जाता है, जब गणेशजी की पूजा होती है। इस पूजन को विनायक चतुर्थी अथवा गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। महाराष्ट्र में ‘गणपति बाप्या मोरया, मंगलमूर्ति मोरया’ के उद्घोष से सारा महाराष्ट्र गूंज उठता है। पारंपरिक पूजा के बाद विभिन्न आकार और रूप की भगवान गणेश की मूर्तियां पंडालों में स्थापित की जाती हैं। श्रद्धालु ढोल नगाड़ों और पटाखों की आवाजों के साथ गणेशजी को स्थापित करते हैं और उन्हें पसंदीदा करंजी और मोदक का भोग लगाते हैं। इस पर्व की तैयारी में हर वर्ग और आयु के लोग शामिल होते हैं। सुबह होते ही लोग नए-नए परिधानों में बाजार जाकर गणेशजी की मूर्तियां खरीदते हैं। यह मूर्ति घर में कितने दिन रखी जाएगी, यह उस घर की परंपरा पर निर्भर होता है। किसी के घर में डेढ़ दिन, किसी के घर में पांच दिन, किसी के घर में सात दिन, नौ दिन या फिर पूरे दस दिन यानी अनंत चतुर्दशी तक गणपति की मूर्ति घर में विशेष पूजा के लिए रखी जाती है।
गणेशोत्सव महाराष्ट्र के गणेशोत्सव मंडल में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र में मुंबई का लालबाग का राजा पूरे विश्वभर में प्रसिद्ध है। पुणे में श्रीमंत दगडूसेठ हलवाई गणपति बड़े पैमाने पर प्रसिद्ध है, जहां लाखों भक्त गणेशजी के दर्शन के लिए आते हैं। महाराष्ट्र में इसे मंगलकारी देवता के रूप में और मंगलमूर्ति के नाम से पूजा जाता है। दक्षिण भारत में इनकी विशेष लोकप्रियता कला शिरोमणि के रूप में है। गणेश हिंदुओं के आदि आराध्य देव हैं। हिंदू धर्म में गणेश को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। कोई भी धार्मिक उत्सव, यज्ञ, पूजन इत्यादि सत्कर्म हो या विवाहोत्सव, शुभ रूप में गणेश की पूजा सबसे पहले की जाती है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सन् 1893 में मुंबई में गणेशोत्सव को एक नया स्वरूप दिया था। उन्होंने यहां सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरआत की थी। इससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गए।
गणेश पूजा पहले यहां परिवार तक ही सीमित थी, लेकिन बाद में बाल गंगाधर तिलक के प्रयास से गणेश पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप मिला, जिन्होंने इसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छूत-अछूत दूर करने, समाज को संगठित करने तथा आम आदमी के ज्ञानवर्धन का जरिया बनाकर एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य का दर्जा कम करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वर्ष 1893 में तिलक के आह्वान पर पुणे में पांच और मुंबई में एक सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत हो गई थी। पुणे में स्वयं बाल गंगाधर तिलक ने तत्कालीन गायकवाड वाडा में स्थापित गणपति के साथ नानासाहेब खाजगीवाले, भाऊ रंगारी, घोटावाडेकर एवं श्रीमंत दगडूसेठ हलवाई ने सार्वजनिक गणेशोत्सवों का आयोजन शुरू किया, तो मुंबई की केशवजी नाईक चाल में तिलक के दो अन्य सहयोगियों नरहरि शास्त्री गोडसे एवं रावबहादुर लिमये ने मिलकर इस उत्सव की शुरआत की थी।
महाराष्ट्र में अब केवल ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल हैं। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल हैं। देश के कुछ हिस्सों में मूर्तियों को लाकर घर में अत्यंत मनोहारी ढंग से सजावट की जाती है। इस त्योहार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस अवसर पर लगभग हर मोहल्ले में सार्वजनिक गणपति की स्थापना होती है। इसकी मान्यता इस बात से लगाई जा सकती है कि कहीं-कहीं सार्वजनिक गणपति की ऊंचाई 35 फुट तक पहुंच जाती है। कई घरों में गौरी पूजन भी करने की प्रथा है। गणेशोत्सव पर सारा शहर सुबह से ही सिद्धी विनायक के जयकारों से गूंज जाता है। कहीं गणपति बप्पा मोरिया के जयकारे सुनाई देते हैं तो कहीं देवा ओ देवा गणपति देवा जैसे गीत सुनाई देते हैं। पूरा शहर गजानन की भक्ति में रम जाता है।