द्वारिका प्रसाद
वसंत ऋतु भी अकेले नहीं आती है। वह अपने प्राकृतिक श्रंगार और सौंदर्य के साथ ऐतिहासिक त्योहारों को भी लाती है। इनमें होली का सबसे ज्यादा श्रृंगार और उन्माद का त्योहार होता है, जिसे भारत के लोग और भारतीय त्योहारों में आस्था रखने वाले दुनिया भर में विभिन्न प्राकृतिक रंगों अबीर गुलाल और फूलों से मनाते हैं। देश में होली मनाने के अलग-अलग तरीके हैं। कोलकाता में गुरूदेव के शांति निकेतन में इसे बसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है। पंजाब में आनंदपुर साहब में यह होली मोहल्ला के रूप में प्रसिद्ध है और कहीं इसे राम की होली, कृष्ण की होली राधा की होली और बनारस में भगवान शिव की होली के रूप में मनाया जाता है। होली पर अमावस्या की रात चांद की दूधिया रोशनी बिखेरती है, और अगले दिन चैत्र आ जाता है। दुनिया भर में होली की आध्यात्मिक मान्यताएं भी हैं और इसे साधना से भी जोड़ा जाता है।
श्रंगार और हंसी मज़ाक के गीतों एवं लोकगीतों से यह त्यौहार नई फसल के आगमन का स्वागत द्वार होता है। ‘जौ’ नाम के अनाज की बाली को होलिका दहन में भूनकर सगुन के लिए घर में रखा जाता है। ‘जौ’ वह अन्न है जो गेहूं और सरसों की बाली से पहले पकने लगता है और होली के त्योहार के आगमन से कुछ पहले ही इसकी बालियों में आया प्राकृतिक दूध अन्न का रूप ले लेता है। अन्न के रूप में यह नए मौसम की प्रकृति की सबसे पहली और अद्भुत संरचना है। होलिका दहन में ‘जौ’ की बाली को सामुहिक रूप से भूनने की यह परंपरा सभी जगह देखने को मिलती है। इस मौके पर कुछ और भी होता है। बालिकाएं गोबर से खिलौने और विभिन्न आकृतियां बनाकर उन्हें होलिका पर जाकर रखती हैं, तब फिर रात्रि के शुभ मुहुर्त में लोकगीतों की स्वर लहरियों में होलिका दहन की रस्म पूरी की जाती है। गांवों में इस परंपरा का आज भी बहुत महत्व है।
होली प्रतीक है, भाई-चारे का नएपन का और अनेकता में एकता का, जिसमें लोग-जाति भेद से ऊपर उठकर विभिन्न रंगों में डूबकर आनंद लेते हैं। बृज परिक्षेत्र में इसकी खास धूम होती है और देश के राज्यों में किसान अपनी लहलहाती अनाज की फसल को देखकर रंगों से इसकी खुशी को प्रकट करता है। यह समृद्धि का पर्व है जो खेत खलिहानों से आती है। इस समृद्घि के विभिन्न रंग जब एक जगह होते हैं तो इस त्यौहार की छंटा दुनिया भर को मंत्रमुग्ध करती है। कवियों ने होली के त्यौहार की विभिन्न तरीकों से व्याख्या की है। इसमें कहीं उन्होंने प्राकृतिक सौंदर्य को आधार बनाया है तो कहीं वसंत ऋतु के उन्माद को मन की गति और इच्छाओं से जोड़ा है। वन्य प्राणी जगत में भी वसंत ऋतु का उन्मादी प्रभाव देखने को मिलता है। होली का यह गुनगुना मौसम उन मधुमक्खियों के लिए बहुत ही मधुरकारक होता है जो विभिन्न फूलों से शहद खींचकर अपने छाते में लाती हैं और अपनी अगली पीढ़ी को अगले वसंत के लिए तैयार करती हैं।
कहतें हैं कि वसंत और होली के बीच में मनुष्य की कई अज्ञात शारीरिक व्याधियां नव वनस्पतियों के पर्यावरणीय प्रभाव और कुछ मामूली योगिक क्रियाओं से अपने आप ही ठीक हो जाती हैं। वसंत ऋतु और होली से वनस्पतियों का गहरा रिश्ता है। उस पर साहित्यकारों और कवियों ने ऐसी-ऐसी रचनाएं की हैं, जिनमें प्रकृति का वर्णन ऐसे महसूस होता है कि जैसे आप प्रकृति की गोद में बैठकर स्वर्ग जैसी अनुभूति कर रहे हों। स्वर्ग की कल्पना को सबसे ज्यादा प्रकृति ने साकार किया है और उसने उन प्राणियों को शानदार जीवन और उनकी पीढ़ी से समृद्ध किया है जिनके बीच में जाकर हम आनंद की अनुभूति करते हैं। इसलिए होली और वसंत की संगत किसी तानसेनी संगीत से कम नहीं है। यह वह मौसम है जब बंजर धरती उज्जवल सपने देखती है जिस पर भी बीज अंकुरित होने की क्षमता हासिल कर जाता है। पेड़ पौधों पर नई कोपलें शाकाहारी परजीवियों की प्रतीक्षा करती हैं और एक पथिक के लिए आने वाले मौसम की तेज गर्मी से बचाव के लिए घनी छाया का काम करती हैं।
अगर देखा जाए तो होली वसंत ऋतु का सम्मोहन लूटने का ही परंपरागत जश्न है जिसे समय और काल के हिसाब से विद्वानों इतिहासकारों और कवियों ने अपने-अपने अंदाज में व्यक्त किया। इससे इस या ऐसे त्योहारों की सामान्य परंपराओं में अंतर आता चला गया। कुछ लोग इस पर्व को मदिरा और ठंठाई की परंपरा से जोड़ते हैं। राजघरानों में खुशी के कार्यक्रमों में अबीर गुलाल और फूलों को सबसे ज्यादा अपनाया जाता है। इसलिए होली हमेशा लोगों के जीवन में रची बसी एक संस्कृति है जिसका सर्वाधिक प्रभाव फाल्गुन में दिखाई देता है। इसी में प्रकृति अपने पुराने परिधानों को त्याग कर नए परिधानों से आच्छादित होकर हम सब को रंग बिरंगी खुशियों के अवसर देती है। मगर विकास की तेज गति के सामने वसंत और होली कुछ बेबस नजर आ रहे हैं। प्राकृतिक रूप से उगने वाले पेड़ पौधों के लिए अब न तो वह बियाबान बचे हैं जहां प्रकृति उनका स्वयं पोषण करती हैं और न ही मनुष्य में प्रकृति को संवारकर उसका आनंद लेने की प्रवृत्ति बची है। विकास ने जैसे प्रकृति के शानदार प्रजनन का मार्ग रोक दिया है इसलिए जब वृक्ष ही नहीं होंगे तो टेसू जैसे फूल कहां होंगे जिनके संपर्क में आकर आनंद की अनुभूति होती है।
वसंत ऋतु और होली के आगमन पर यह भावना जरूर जागृत होती है कि इंसान इस समय को अपने मन की हलचलों से जोड़ता है और वह नैसर्गिक सौंदर्य का आनंद लेने के लिए विचारों कविताओं, भ्रमण और देशाटन को चुनता है। कवियों ने या साहित्यकारों ने होली वसंत और प्रकृति पर सबसे अधिक लेखन इसी ऋतु में किया है। इसकी अनुभूति को उन्होंने शब्दों में प्रकट करके एक ऐसे साहित्य की रचना की है कि जिसे पढ़कर और समझकर मनुष्य इस ऋतु के आने का इंतजार करता है। यह मनुष्य और प्रकृति के बीच का अदभुत संगम है जिसे पूरे वर्ष की सबसे अदभुत और शानदार क्रियाओं से सम्मोहित किया जाता है। आइए! वसंत ऋतु के साथ इस शानदार त्योहार होली और उससे समृद्धशाली उस मौसम का स्वागत करें जिसकी हम हर साल प्रतीक्षा करते हैं।