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‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’

अमित शर्मा

हमें कभी कभी अप्रत्याशित स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते, क्या कारण है? समझने वाली बात यह है कि कर्म सिद्धांत अकाट्य और सुनिश्चित है। संसार भर में सारे प्राणियों के जो सुख-दुःख, अच्छी-बुरी परिस्‍थिति जो कुछ भी हम देख पाते हैं, वह हमारे ही पिछले कर्म का प्रतिसाद है। हमारा केवल यही एक जन्म नहीं है, हमारे साथ असंख्य पूर्वजन्मों के कर्म संस्कार संचित हैं।
लेकिन कुछ मान्यताएं बतलाती हैं कि सिर्फ यही एक जन्म है और मृत्यु के बाद एक लंबे इंतजार के बाद न्याय का समय आएगा, जिस दिन सारे प्राणियों का हिसाब किताब होगा, जबकि न्याय की भावना और प्रत्यक्ष दिखने वाली स्थितियों में यह सिद्धांत टिक नहीं पाता है। अगर वर्तमान जन्म ही प्रथम और अंतिम है तो फिर सभी प्राणियों को एक साथ और एक ही परिस्थितियों में जन्म लेना चाहिये था; जबकि हम देखते हैं कि ऐसा बिलकुल नहीं है। क्यों कोई शारीरिक रूप से अपंग जन्म लेता है, या अपंग हो जाता है? क्यों कोई परम धनी या परम फ़कीर होता है?
सच तो यह है कि अगर गर्भाशाय में बालक भी किसी प्रकार दुःख प्राप्त कर रहा है तो उसका सीधा सीधा मतलब है कि उसके पूर्वजन्म के कर्म ही फलदायी हो रहे हैं। जन्म लेते ही कितने ही बच्चे भयंकर परिस्थितियों का सामना करते हैं, मर जाते हैं, यह किस कारण से? साफ़ है पिछले कर्मनुबंध से। नहीं तो कोई कारण नहीं है कि कोई भी प्राणी संसार में असमान रूप से सुख-दुःख भोगे।
न्याय सिद्धांत तो इसी प्रकार घटित होता है कि संसार एक अनवरत और शाश्वत प्रक्रिया है, सारा जीव समुदाय उसका अंग है और अपने कर्मानुसार जगत में फलोपभोग करता है, जो कुछ भी घटित होता है उसके लिए हम किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकते हैं, भले ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी परिस्थिति के लिए उत्तरदायी दिख रहा हो, पर वह हमारे सुख-दुःख का मूल कारण बिलकुल भी नहीं है, बल्कि अनेक जन्मों में हमारा अनेक जीवात्माओं से संबंध रहता है। उनके साथ हमारा ऋणानुबंध है, जिसे हमें समय के अनुसार चुकता करना होता है। इस तरह प्रत्येक ‌स्‍थिति का मूल कारण हम ही हैं। जब तक हमारे कर्म का लेखा अनुमति नहीं देगा, तब तक कोई हमें सुख-दुःख नहीं दे सकता।
काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता।
निज कृत करम भोगु सब भ्राता।।

धृतराष्ट्र ने एक बार श्रीकृष्ण से पूछा कि मैंने जीवन में ऐसा कोई भयंकर पाप नहीं किया, जिसके फलस्वरूप मेरे सौ पुत्र एक साथ मारे गए। श्रीकृष्ण ने उसे दिव्य दृष्‍टि प्रदान की, तब उन्होंने देखा कि पचास जन्म पहले वे एक बहेलिया थे और उन्होंने पेड़ पर बैठे पक्षियों को पकड़ने के लिए जलता हुआ जाल फेंका था, जिससे सौ पक्षी अंधे होकर जाल में गिरे और मारे गए। पचास जन्मों तक संचित पुण्य कर्मों के कारण उन्हें इस पाप कर्म का फल नहीं मिला, पर जब पहले से चले आ रहे पुण्य कर्मों का प्रभाव ख़त्म हुआ तो उन्हें इस फल को भोगना पड़ा। इसलिए कर्मफल अकाट्य है,अचूक है, उसे भोगना ही पड़ता है-"अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं"
भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। ईश्वर न किसी से राग करता है न किसी से द्वेष। वह तो केवल दया और न्याय करता है। छोटी बुद्धि के होने के कारण हम नहीं जान पाते कि हमारे लिए सही गलत क्या है, पर सर्वज्ञ होने के कारण ईश्वर जानता है कि हमारे हित में क्या है। उसके आगे हमारे सारे कर्मों का हिसाब है, इसलिए सबका समन्वय करते हुए जो युक्तियुक्त होता है, वह वही करता है।
इसलिए हमें अपने जीवन में सज्जनता लाते हुए, दूसरों की भलाई के काम करने चहिएं। जिनका फल फिर दुखदायी ना हो। सत्य और परोपकार करने में अगर तकलीफ और अपमान का घूँट भी पीना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए।

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