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बड़े राज्यों के पिछड़ेपन का है कोई जवाब ?

डॉ वीरसेन सरोहा

डॉ वीरसेन सरोहा

भारत की आबादी इस समय एक अरब 20 करोड़ के आस-पास है जबकि अमरीका की आबादी लगभग तीस करोड़ है। अमेरिका में पचास राज्य हैं जबकि भारत 28 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेशों का एक संघीय गणराज्य है। भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया था जो स्वयं में संप्रभुता प्राप्त थीं। उनका अलग झंडा और अलग शासक था इसलिए सरदार पटेल के प्रयास को जो लोग पुनर्गठन से जोड़ते हैं, वे सही मायने में तथ्यों से वाकिफ नहीं हैं। अतीत में जाइए तो पता चलता है कि अंग्रेजों ने 1857 के बाद भारत के भाषाई प्रांत खत्म कर दिए थे मगर जब देश में फजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग गठित हुआ, जिसे फजल अली कमीशन कहा जाता है, उसने दोबारा भाषाई प्रांत बनाए। यह प्रक्रिया हरियाणा प्रांत के निर्माण तक चलती रही। यह बात कहने में कोई संकोच या संदेह नहीं है कि ऐसा करते वक्त इस आयोग ने देश की समस्या, विकास और भावी योजनाओं को नजरअंदाज किया।

सन् 1953 में कुछ कांग्रेसी नेताओं के चहेते व्यक्ति ही इस आयोग के सदस्य बनाए गए। फजल अली चेयरमैन और डा किचलू एवं केएम पणिकर इसके सदस्य थे। यह भी एक सच्चाई है कि पणिकर को छोड़कर बाकी लोग इसमें केवल कुछ प्रभावशाली कांग्रेस नेताओं की इच्छापूर्ति के लिए रखे गए थे जिन्होंने उस वक्त उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन का विरोध किया था। केवल पणिकर ने यूपी के संदर्भ में इन लोगों के विपरीत अपना मत रखा और अपने नोट में लिखा कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में आगरा को राजधानी बनाते हुए सहारनपुर से झांसी तक एक अलग राज्य बनाया जाए। इस आयोग का नजरिया बेहद चतुराई वाला और बेईमानी भरा था जिसमे उन्होंने साफ तौर पर लिखा कि देश में एक प्रभावशाली राज्य होना चाहिए। उत्तर प्रदेश में उस समय 86 सांसद लोकसभा में जाते थे। कहना न होगा कि उस समय यह एक राजनीतिक बेईमानी भरी सोच थी। वास्तव में बड़े राज्यों के पुनर्गठन का विरोध करने वाले या तो राजनीतिक बेईमान हैं या फिर विकास विरोधी। इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि छोटे राज्य बने बगैर प्रशासनिक दक्षता बन ही नहीं सकती।
उत्तर प्रदेश के बड़े राज्य होने के कारण और देश की राजनीति में उसके वर्चस्व को देखते हुए दक्षिण भारतीयों का चिंतित होना स्वाभाविक है। दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध हुआ ही इसलिए कि वहां के लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश के राजनेता केवल अपना राजनीतिक प्रभाव ही नहीं रखना चाहते बल्कि अपनी भाषा भी दक्षिण भारत पर थोपना चाहते हैं। इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अकेले उत्तर प्रदेश की आबादी दक्षिण भारत के चार राज्यों की आबादी के बराबर है। इतिहास साक्षी है कि अंग्रेजों ने दंडस्वरूप आगरा राज्य को अवध में मिला लिया था। बुंदेलखंड को उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बांट दिया। यह कभी मध्य भारत हुआ करता था। इसी तरह भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्र (पूर्वांचल) को अवध से बिहार में मिला दिया जबकि वर्ष 1912 में अंग्रेजों ने बिहार क्षेत्र को बंगाल से काटकर अलग राज्य बनाया था। संरचना और आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश संसार का छठा बड़ा राज्य बन गया और यह प्रांत जो आजादी के दौर में पूरे देश में तीसरे स्थान पर था, विकास की दृष्टि से अब 27 वें नंबर पर पहुंच गया है। प्रदेश के इस पिछड़ेपन का जवाब पुनर्गठन विरोधियों के पास नहीं है। राजनीतिक कारणों को छोड़कर तेलंगाना, विदर्भ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल का अलग राज्य बनना विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। जहां तक नामों का सवाल है तो पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ लोग हरित प्रदेश के नाम को प्रचारित कर रहे हैं। दरअसल यह नामकरण सरसांवा के पूर्व कांग्रेसी विधायक निर्भय पाल शर्मा का दिया हुआ था। उनकी मृत्यु हो चुकी है।
सन् 1953 में पश्चिम उत्तर प्रदेश के 97 विधायकों ने आगरा में बैठक कर आयोग के सामने अलग राज्य की मांग रखी थी। बाद में उनमें से 77 विधायक तत्कालीन प्रभावशाली नेताओं के दबाव में आ गए थे और अपनी मांग से तत्काल पीछे हट गए थे। इन विधायकों में कई ऐसे नेता रहे हैं जो आगे चलकर केंद्र की राजनीति में अत्यंत प्रभावी रूप से सक्रिय हुए। उत्तर प्रदेश के विभाजन की मांग कोई नई नही है। सन् 1937 में ही बिजनौर के टाउनहाल में अलग प्रांत की मांग उठ चुकी है। यह मांग प्रसिद्ध अधिवक्ता और चौधरी चरण सिंह के समधी रहे बाबू ढाल गोपाल सिंह ने उठाई थी। सन् 1937 से अब तक ब्रज प्रदेश, पश्चिमांचल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरित प्रदेश के गठन की मांग उठ चुकी है। यह उत्तर प्रदेश में एक गहरी राजनीतिक चालाकी ही कही जाएगी कि अंग्रेजों ने पश्चिम उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल में कोई मौजिज सुविधा नहीं दी थी। इन क्षेत्रों में उन्होंने न तो हाईकोर्ट दिया और न ही रेजिडेंसियल यूनिवर्सिटी। जब उत्तर प्रदेश की राजधानी इलाहाबाद हुआ करती थी तो उसको हाईकोर्ट दिया और यूनिवर्सिटी भी दी। सन् 1922-23 में लखनऊ के उत्तर प्रदेश की राजधानी बनने के बाद यहां हाईकोर्ट दिया और रेजीडेंसियल यूनिवर्सिटी भी दी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को मिले तो सिर्फ तीन पागलखाने, जोकि बरेली, आगरा और शाहदरा में बनाए गए। साठ के दशक के आरंभ में शाहदरा को दिल्ली में मिला दिया गया। यह पश्चिम उत्तर प्रदेश की उपेक्षा का आलम रहा है जो कि अभी भी जारी है।
उत्तर प्रदेश को बड़ा रखने की कोशिश एक राजनीतिक बेईमानी तो है ही, देश की एकता और अखंडता के लिए भी खतरा है। इसके राजनैतिक प्रभाव के कारण ही दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध तो हुआ ही, दक्षिण के लोगों का उत्तर भारत के प्रति आक्रोश भी बढ़ा और वह निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। हिंदी भाषियों पर अब वहां हमले हो रहे हैं। राज्य पुनर्गठन आयोग का यह दायित्व बनता था कि वह देश की संसद में सभी राज्यों के पुनर्गठन की कुछ इस तरह सिफारिश करता कि सभी प्रांतो को संसद में बराबर या उससे जरा कम-अधिक प्रतिनिधित्व मिल जाता। इससे राज्यों में बराबरी की भावना को बल मिलता, मगर आयोग ने देश के विकास और अखंडता पर कदाचित ध्यान ही नहीं दिया। इसीलिए देश के सभी राज्यों में समानता के भाव पैदा करने के लिए बड़े राज्यों का पुनर्गठन जरूरी है। कुछ राजनीतिक दलों ने इस भावना के लिए केवल पैबंदबाजी की है जैसे-झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ का निर्माण। सच तो यह है कि देश में प्रजातंत्र केवल एक शब्द है। उसके लिए नेता कुछ करना नहीं चाहते। वे केवल प्रांत और अपनी बिरादरी के नाते देश में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। प्रांत की आय, प्रशासनिक क्षमता, रोजगार के संसाधन और रोजगार के अवसरों का इज़ाद एवं मूलभूत सुविधाओं की संरचना, नेताओं की अपनी कार्यशैली और क्षमता पर निर्भर करती है।

राज्यों के पुनर्गठन का विरोध करने वालों को यह गंभीरता से सोचना होगा कि वे अपनी राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के साथ क्या विकास की जरूरत नहीं समझते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने यह विरोध करके अब तक अपने और अच्छे भविष्य के अवसरों को गंवाया है? राज्यों का पुनर्गठन आज की जरूरत है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि और संसाधनों के अभावों सहित कई कारण हैं जिनके चलते आज नहीं तो कल राज्य पुनर्गठन की जरूरत को स्वीकार करना ही होगा। इसमें यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि अंग्रेजो जैसी चालाकी और कांग्रेसी नेताओं जैसी फितरत जारी रही तो पुनर्गठन के भी कोई मायने नहीं रहेंगे। इसलिए इसमें भी ईमानदारी और सावधानी बहुत जरूरी है। (लेखक उत्तर प्रदेश विधान परिषद सदस्य और लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व प्रवक्ता एवं उत्तर प्रदेश भाजपा के पूर्व महामंत्री रहे हैं।)

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