रज़िया बानो
लखनऊ। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक ऐसे कार्यक्रम का आयोजन किया जिसमें ख़ासतौर पर ख़्वातीनों को बुलाया गया था और उनको अपनी बातें कहने और समाज में अपनी एहमियत बयान करने का अवसर दिया गया। इस मौके पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सदस्य बेगम नसीम इक्तेदार अली ने कार्यक्रम की शुरूआत ताहिरा रिजवी ने सूरे तौबा की तिलावत से की और निखत खान ने सूरे तौबा का तर्जुमा करके उसके मायने समझाए। पर्सनल लॉ बोर्ड की इस पहल का ज़ोरदार स्वागत हुआ है। यह बोर्ड की इस्लाहे माशरा कमेटी की एक बैठक थी जिसका आयोजन मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं के अध्ययन और निराकरण के लिए किया गया था। कार्यक्रम में जिन विषयों पर चर्चा हुई है उनके नतीजे पर्सनल लॉ बोर्ड की 19, 20 और 21 मार्च को होने वाली बैठक में रखे जायेंगे।
बेगम नसीम ने तलाकशुदा महिलाओं की सहायता के लिए अलग से एक कोष बनाने और वक्फ़ बोर्ड को भी इनकी सहायता के लिए उचित व्यवस्था की जरूरत पर बल दिया। उनका कहना था कि पर्दा और अशिक्षा के कारण मुस्लिम महिलाएं अपना पक्ष नही रख पाती हैं, कायदे में इनकी समस्याओं के समाधान के लिए हर जिले में दारूलकज़ा बननी चाहिए और उनमें महिला काउंसलर हों ताकि वे महिलाओं का पक्ष जोरदार तरीके से रख सकें। महिला काउंसलर महिलाओं का प्रतिनिधित्व करेंगी इससे महिलाओं का पक्ष काजी भी सुन सकेंगे।बोर्ड की दूसरी सदस्य डॉ रूक्साना लारी ने महिलाओं को सलाह दी कि वे कुरान का अच्छी तरह से अध्ययन करें और उसका अर्थ समझते हुए उसी के मुताबिक अपने बच्चों को तालीम दें।
इस मौके पर तबस्सुम किदवई ने कहा कि 21 मार्च में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपना 37 वां स्थापना दिवस मनाएगा जिसकी एवज़ में इस तरह का जलसा आयोजित किया गया है। तबस्सुम ने बताया कि 1972 में मुसलमानों की बेहतरी और उनकी शरीयत के हिसाब से उनका संरक्षण करने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की जरूरत महसूस हुई थी जिसके बाद 1973 में हैदराबाद में बोर्ड बनाया गया। इसका ख़ास मकसद था कि मुस्लिम शरीयत के खिलाफ जो कानूनी फैसले हो रहे हैं, उन्हें शरीयत के दायरे में रहकर किया जाए। तबस्सुम ने इसके अलावा ये भी कहा कि पर्सनल लॉ बोर्ड में औरतों के लिए ख़ास तवज्जो देने की कोशिश की गई है। उन्होंने कहा कि शादी में बेपनाह पैसा बहाया जाता है, इससे हमारे यहां तो खुशियों की चहल-पलह तो हो जाती है लेकिन गरीब लोगों की बेटियों की शादी नहीं हो पाती है इसलिए उनकी मदद करनी चाहिए, इसके अलावा तलाक के मामलो में जो मुसलमान नॉन मुस्लिम एनजीओ की तरफ रूख़ कर रहे हैं, उनको सही राह दिखाई जाए।
तबस्सुम का कहना था कि दारूल खज़ा निकाह के वक्त इस बात पर ज़ोर दे कि औरत की हैसियत पर जो भी मेहर का इंतज़ाम हो उसी वक्त या जल्द से जल्द अदा कर दी जाए, ताकि औरतों को शरई हक मिले। नाबालिग बच्चों की परवरिश का जिम्मा मर्द पर है। तलाक के बाद बच्चों और बीवी की जिम्मेदारियों को खत्म न किया जाए। तलाक कहने भर से उनकी जिम्मेदारी नही हटती है। बोर्ड की सदस्य डॉ सफिया नसीम ने अपनी एक रिश्तेदार के निकाह का जिक्र करते हुए बताया कि उस शादी में न मेंहदी की रस्म हुई और ना ही और भी ऐसी रस्में हुईं जिसमें पैसा और दिखावा होता है। इस सादगी की शुरूआत सभी को अपने घरों से ही करनी चाहिए और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना होगा। हम अपनी बेटियों की शादी में एक लाख या दो लाख का जोड़ा बनाएं खुशियां मनाए और गरीब घर की लड़कियां बैठी रहें, ये हमारे दीन में नहीं है। उन्होंने पूछा कि कहां लिखा है कि आप मेहंदी की रस्म उस तरह कीजिए कि जैसे गोद भराई की रस्म होती है? मै अगर कोई गलत काम करूं तो मुझे भी टोकिए। नसीम ने कहा कि बहुत से लोग समाज में अपना रुतबा कायम करने के लिए दहेज की नुमाईश लगाते हैं।
बोर्ड की सदस्य बेगम शहनाज सिदरत का कहना था कि यह चिंता का विषय है कि मुस्लिम समाज में दहेज की समस्या गंभीर होती जा रही है। उन्होंने बोर्ड से कहा कि तलाक के मामले में एकरूपता होनी चाहिए और कुरान के मुताबिक ही इसकी व्यवस्था लागू होनी चाहिए। शहनाज़ ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का इस बात के लिए शुक्रिया अदा किया कि कम से कम 21 साल बाद उसने महिलाओं की समस्याओं पर तवज़्जों दी, महिलाओं और इस्लाम के खिलाफ जो अपराध हो रहे हैं, उनका मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि तलाक को तीन बार कहने की जो कवायद है उसको बदल दिया जाए क्योंकि गुस्से और गलतियों में तलाक शब्द का निकलना महिलाओं के लिए बड़े गाज की तरह हो जाता है।
डॉ रूखसाना ने कहा कि महिलाओं को सब्र से काम लेना चाहिए वे दुनिया का आधा हिस्सा हैं। यह उन पर है कि वो अपने आपको जन्नत निशा बनाती हैं या दोज़ख का बोसा। क्योंकि एक औरत ही अपने घर और बच्चों की जिम्मेदारी को निभाती है। अगर वो अपने बच्चों में इस्लाम की तरबियत और अच्छाईयों से उनकी परवरिश करती है तो वो न अपने लिए ही जन्नत तैयार करती है बल्कि अपने बच्चों की जिंदगी और अपनी जिंदगी को खुशहाल बना देती है। औरतों से ही समाज बनता है इसलिए उनको अपनी ख़्वाहिशों पर लगाम लगानी चाहिए। अपने शौहर से ज़िद नहीं करनी चाहिए और आपके घर में नज़ायज या गलत तरीके से रिज़्क न हासिल की जाए।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सेक्रेट्री मौलाना वली रहमानी ने कहा कि औरतें घर की ज़ीनत होती हैं। उन्होंने कहा कि दीन में जो बाते हैं वो गलत नहीं है उससे नावाकिफ लोग उसका मतलब कम और दूसरी बातों का ज्यादा मानकर अपना ही बुरा कर लेते हैं। हम अपनी चीज़ों को नहीं समझ पाते हैं। हमें खुदा के सामने जवाब देना होगा कि तुम पढ़े लिखे थे, तुमने तरबियत क्यों नहीं दी? शरीयत कानून के हिसाब से सामाजिक ढांचे को हम एक मजबूत बुनियाद पर खड़ा करेंगे। बिहार में एक कानून बनाया गया जिसमें कहा गया कि अगर कहीं तकरीर भी होगी तो 20 से ज्यादा लोगों को खाना नहीं खिलाया जाएगा लेकिन अगर शायद मै भूल नहीं रहा हूं तो उन्हीं वजीरे आला के जमाने में उनके जीते जी वजीरे आला रहते हुए उनके घर में शादी हुई और कम से कम 10 हज़ार लोगों को खाना खिलाया गया। तो कानून का इख़्लाक किस तरह होता है वो आप भी जानते हैं और मै भी। उन्होंने कहा कि औरतें अपनी औलादों को तालीम तो दे देती हैं लेकिन तरबियत नहीं देती हैं। इस्लाम में इन्हीं चीजों का ख्याल रखने को कहा गया है। औरतों के भी हकूक हैं और उन्हें अपना हकूक मिलना चाहिए उन्हें भी जायदाद में एक तिहाई हिस्सा दिया जाना चाहिए। हम मुसलमान हैं कानूनी शरीयत के हिसाब से हमारे मसायल का फैसला होना चाहिए। शरीयत की जो भी हिदायते हैं उनकी पाबंदी जरूर होनी चाहिए।
पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव मौलाना वली रहमानी से इसके बाद सवाल और जवाब का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें पहला सवाल था कि औरतों की जिम्मेदारी जो उनके घर वालों पर होती है, लेकिन उनकी पढ़ाई से लेकर शादी का फैसला उन्हें क्यों नहीं करने दिया जाता? दूसरा सवाल था, अगर तीन बार तलाक कहने से तलाक हो जाता है तो उसे खत्म क्यों नहीं किया जाता? तीसरा सवाल था, औरतों को अपनी जायदाद और मेहर हासिल करने के लिए कोई इंतज़ाम है? चौथा सवाल था, कत्ल-ए-आम के अलावा खुदकुशी बहुत होती है ऐसा क्यों?
इन सवालों के जवाब इस तरह रहे-मुखतलिक फैसलों में औरतों का ख्याल नहीं किया जाता, लेकिन फैसले औरतों को नहीं करने चाहिएं, औरतों को फैसला करने का हक नहीं है।मौलाना का कहना था कि अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ से संबंधित मुकद्मा अदालत जाता है तो शरीयत की रौशनी में ही उसका फैसला होना चाहिए।एक महिला ने पूछा कि तलाक से सबसे अधिक फायदा किसे होता है तो मौलाना ने कहा कि फायदा मर्द को ही होता है, तलाक का अपना प्रभाव है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता, इसमें कोई शक नहीं है कि तलाक में औरतों का लिहाज़ किया जाता है, बावजूद इसके कि दुनिया में सबसे मर्दूद चीज़ तलाक है। तलाक की अपनी जगह है जिस तरह लाठी की अपनी एक जगह है उसी तरह तलाक की भी अपनी जगह है। यह जरूर है कि बातचीत के जरिए इस प्रथा को कम किया जा सकता है। खुदकुशी पर मौलाना का कहना था कि पढ़ने-लिखने वाले बच्चे ज्यादा खुदकुशी करते हैं,मां-बाप का कर्तव्य हैं कि वे बच्चों पर अपनी मर्जी न थोपें।
इस तरह इस कार्यक्रम को इन निष्कर्षों के साथ खत्म किया गया कि जब औरत और मर्द अपनी समस्याओं का खुद बैठकर खुले दिल से विमर्श करेंगे तो बहुत सारी गंभीर समस्याओं का समाधान घर बैठे ही हो जाएगा। दूसरी बात यह हुई कि शरीयत मुसलमान की हर एक समस्या का समाधान है बशर्ते मुसलमान शरीयत की रोशनी में चले और इस्लाम में जीवन संचालन के जो सिद्धांत स्थापित किए गए हैं उनको न तोड़े और उनकी रक्षा करे। इस अवसर पर भारी संख्या में लड़कियां और गृहस्थ जीवन जीने वाली महिलाओं के साथ-साथ मुस्लिम उलेमा और विचारक मौजूद थे। ऐसा पहली बार हुआ है जब मुस्लिम महिलाओं को आमंत्रित करके उनकी समस्याओं परचर्चा की गई। यह कार्यक्रम मुमताज पीजी कालेज में आयोजित हुआ। मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली की दुआ के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।