डीपी मिश्रा
लखीमपुर-खीरी। दुधवा टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर एवं डिप्टी डायरेक्टर ने विगत दिनों अखबारों में यह बयानबाजी करके कि दुधवा और कतर्नियाघाट में बाघों का कुनुबा बढ़ा है, अपनी पीठ स्वयं थप थपाई है। उन्होंने तो यहां तक दावा कर दिया है कि दुधवा और कतर्नियाघाट के जंगल में 38 बाघ शावक देखे गये हैं। वैसे अगर देखा जाए तो यह अच्छी और उत्साह जनक खबर है। परंतु इसके दूसरे पहलू में उनकी इस बयानबाजी से बाघों के जीवन पर खतरे की तलवार भी लटक गई है।
भारत में बाघों की दुनिया सिमट कर 1411 पर टिक गई है। इसका प्रमुख कारण रहा विश्व बाजार में बाघ के अंगों की बढ़ती मांग। इसको पूरा करने के लिये सक्रिय हुए तस्करों ने बाघ के अवैध शिकार को बढ़ावा दिया। जिससे राजस्थान का सारिस्का नेशनल पार्क बाघ विहीन हो गया और देश के अन्य राष्ट्रीय उद्यानों के बाघों पर तस्करों एवं शिकारियों की गिद्ध दृष्टि जमी हुई है। ऐसे में दुधवा टाइगर रिज़र्व के जिम्मेदार दोनों अधिकारियों का यह बयान शिकारियों के लिये वरदान बन कर यहां के बाघ और उनके शावकों का जीवन संकट में डाल सकता है, क्योंकि अब जो लोग यह बात नहीं जानते थे वह भी जान गए हैं। हत्यारे तस्कर यूं तो इस संपूर्ण अभ्यारण में बागों के परिवासो का पूरा पता रखते हैं वन विभाग के अफसरों की इस सूचना से तस्करों की सक्रियता बढ़ जाना स्वाभाविक है। इसी हफ्ते तस्करों ने ढिकाला कार्बेट पार्क में कालागढ़ इलाके में फंदा लगाकर एक जवान बाघ को मार डाला है इससे पता चलता है कि तस्करों का नेटवर्क सर्वव्यापी हो गया है और इसे शक्तिशाली लोगों का समर्थन प्राप्त है। जाहिर है कि यहां के बाघों के जीवन पर भी खतरे की तलवार लटकी हुई है।
इस स्थिति में साधन एवं संसाधनों की किल्लत से जूझ रहा लखीमपुर-खीरी का वन विभाग क्या शिकारियों के ऐसे सुनियोजित नेटवर्क का सामना कर पाएगा? यह स्वयं में विचरणीय प्रश्न है। कतर्नियाघाट वन्यजीव प्रभाग क्षेत्र में अभी पिछले माह ही लगभग आधा दर्जन गुलदारों (तेदुआं) की अस्वाभाविक मौतें हो चुकी हैं। यह घटनाएं स्वयं में दर्शाती है कि कतर्नियाघाट क्षेत्र में गुलदारों की संख्या अधिक है। इस परिपेक्ष्य में वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि गुलदारों की बढ़ोत्तरी दर्शाती है कि बाघों की संख्या कम हुई है। उनका कहना है कि एक ही प्रजाति का होने के बाद भी बाघ और गुलदार के बीच जानी दुश्मनी होती है, जिस इलाके में बाघ होगा उसमें गुलदार नहीं रह सकता है। यही कारण है कि बाघ घने जंगल में रहता है और गुलदार जंगल के किनारे और बस्तियों के आसपास रहना पंसद करता है।
दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर का इतिहास देखा जाए तो उसकी असफलता इस बात से ही जगजाहिर हो जाती है कि पिछले एक दशक में यहां बाघों की संख्या 100-106 और 110 के आसपास ही घूम रही है। दुधवा में बाघों की मानिटरिंग की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है फिर बाघ शावकों की सही गिनती कहां से आ गई? वैसे भी यहां बाघों की संख्या पर भी प्रश्न चिन्ह लगते रहे हैं। ऐसी दशा में इन अधिकारियों की बयानबाजी पर संदेह होना लाजमी है।