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नक्सली खौफ पर भारी नन्हीं शिक्षिका 'भारती'

संतोष सिंह

कुसुंभरा (रोहतास)| कभी लावारिस हालत में उठाकर घर लाई गई भारती स्कूल चले हम अभियान की असली नायिका है। नक्सल पीड़ित रोहतास इलाके में इस छोटी-सी लड़की ने तालीम की मशाल थाम रखी है। जब से ऑपरेशन ग्रीन हंट के बाद झारखंड के माओवादियों ने बिहार की ओर धावा बोला है, सुरक्षा दस्ते इनसे निपटने के लिए जूझ रहे हैं। ऐसे में कक्षा तीन में पढ़ने वाली भारती अपने जैसे बच्चों को पढ़ाकर एक मिसाल बनी हुई है।
भारती जिस कुसंभरा गांव में बच्चों को पढ़ा रही है, वह नक्सलियों के निशाने पर रहा है। इस इलाके में नक्सलियों ने स्कूलों की कई इमारतों को उजाड़ दिया है, पर भारती इस आतंक से बेपरवाह घर-घर जाकर बच्चों को पढ़ाती है। इस गांव में डेढ़ सौ से ज्यादा परिवार हैं। इनमें से ज्यादातर पासवान या भुइयन हैं। भारती ने गांव के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने का बीड़ा उठा रखा है।
हर सुबह वह घर-घर जाती है और चार से दस साल की उम्र के बच्चों को जमाकर, पाठ पढ़ाती है। करीब सौ से ज्यादा बच्चे जो अभी तक महुआ बीनने या जानवर के पीछे भागने में लगे रहते थे, अब आम के पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करते हैं। वैसे पढ़ाई की सुविधा के नाम पर, यहां से तीन किलोमीटर दूर ब्लाक अखोड़ी गोला में एक सरकारी स्कूल है, लेकिन यहां जाने के लिए एक नहर पार करनी पड़ती है। जाहिर है, ज्यादातर गांव वाले इतनी दुश्वारी झेलकर बच्चों को नहीं पढ़ाने भेजते।
भारती खुद अखोड़ी गोला के स्कूल में पढ़ाती है। गांव के बच्चों को पढ़ाते वक्त वह बड़ी शान से अपने स्कूल की वर्दी पहने रहती है। अपने स्कूल जाने से पहले वह सुबह बच्चों की कक्षा के लिए निकल पड़ती है। वह शाम को भी बच्चों को पढ़ाती है। ज्यादातर अभिभावक, जो अपने बच्चों को तीन किलोमीटर दूर पढ़ाने के लिए नहीं भेजना चाहते, उनके लिए भारती एक 'स्कूल' है। उसकी खुली पाठशाला का दृश्य देखने लायक होता है। जैसे ही वह एक, दो, तीन की गिनती शुरू करती है, बच्चे सामूहिक रूप से उसका अनुसरण करते हैं। 'पाठशाला' से कुछ दूर खड़ी गांव की महिलाएं बड़ी उत्सुकता से भारती के इस प्रयास को निहारती हैं। यहां की दीवार पर लिखा एक नारा सबका ध्यान खींचता है-'बेटी अगर मारोगे, बहू कहां से लाओगे?'
इस खुली पाठशाला के‍ निकट ही भारती की दुखभरी कहानी की निशानी है। जन्म के बाद भारती को किसी ने देहरी रेलवे स्टेशन के पास लावारिस छोड़ दिया था। एक कूड़ा बीनने वाली फुलवा देवी को वह पड़ी मिली। फुलवा के पहले से चार बच्चे थे, लेकिन उसने इस अनाथ बच्ची को भी अपनाया। गांव वाले बताते हैं कि पिछले साल अग्निकांड में फुलवा देवी की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद से वह बच्चों को पढ़ाने लगी। गांव की रामपति कहती है कि शायद भारती उन गांव वालों का कर्जा चुका रही है, जिन्होंने मिल-जुलकर उसे इतना बड़ा किया। हमें उसकी एबीसीडी सुनकर बड़ा गर्व होता है।
इस गांव में नक्सलियों का खौफ जरूर है, पर भारती को उम्मीद है कि बच्चे नियमित रूप से पाठशाला में आते रहेंगे। वह कहती है-सरकार को गांव में एक प्राइमरी स्कूल जरूर खोलना चाहिए। वह कहती है कि अगर डरेंगे तो पढ़ेंगे कैसे? यह नन्ही शिक्षिका पूरे भरोसे से कहती है कि मैं अभिभावकों को समझाने में कामयाब होऊंगी कि वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें। भारती ने जो मशाल जलाई है, पर वासुदेव पासवान कहते हैं कि अब बच्चों को जो भी नुकीली चीज मिलती है, उससे वे दीवार पर अपना नाम लिखने की कोशिश करते हैं भारती की तालीम की यही तो बड़ी कामयाबी है। (जनसत्ता)

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