स्वतंत्र आवाज़
word map

प्रेस और पुलिस का 'लोगो' बना अपराधियों का कवच

मनोज शर्मा

बरेली। राज्य के संवेदनशील शहरों में एक बरेली शहर में प्रेस और पुलिस लिखी गाड़ियों की इतनी भरमार है कि जब आप सड़क पर निकलेंगे तो हर चौथी, पांचवी गाड़ी पर प्रेस और पुलिस का निशान लगा मिलेगा। ऐसा नहीं कि ये सब प्रेस वाले या पुलिस वाले हैं बल्कि इनमें वे सबसे ज्यादा हैं जो शौक और केवल रौब के लिए प्रेस और पुलिस के 'लोगो' का सहारा ले रहे हैं। राज्य भर में इनकी चेकिंग होती है और इनके निशान मिटवाए भी जाते हैं लेकिन बरेली में ये निशान कुछ तथाकथित प्रेस वालों और पुलिस वालों की आय का साधन भी हैं। आए दिन शहर में इस तरह के प्रेस और पुलिस वालों से आमजन का रटाका होता रहता है और पुलिस खड़ी देखती है।
देखने और सुनने में आता रहता है कि प्रेस और पुलिस लिखे वाहनों पर बैठे युवकों ने अपराधों को अंजाम दिया है। अनेक बार प्रेस लिखी गाड़ियों से अपराध करते तमाम लोग पकड़े भी गये हैं जिनके रिकार्ड सम्बन्धित थानों में मौजूद हैं। पुलिस का लोगो लगी गाड़ियों में भी तमाम बार अपराधी अपराध करते पकड़े जा चुके हैं। पुलिस वाहन चेकिंग के दौरान इनके प्रति उदार रुख रखती है जबकि अवैध हथियारों की तस्करी जैसी घटनाएं इन्हीं की आड़ में सफलतापूर्वक अपने अंजाम तक पहुंच जाती हैं। कुछ समय पहले लालबत्ती लगी गाड़ियों को भी ऐसे धंधों में लिप्त पाया गया है। ऐसी गाड़ियों की पुलिस तलाशी लेने में भी भारी संकोच करती है। यहां उनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है जो नाम और रौब के लिए दैनिक, साप्ताहिक, या फोर्ट नाइट अखबारों का प्रकाशन करते हैं।

प्रदेश की राजधानी लखनऊ से प्रकाशित होने वाले ऐसे कई अखबारों के रिपोर्टरों की यहां भरमार है जो उन अखबारों के नाम पर अवैध वसूली करते घूमते हैं। मजे की बात यह है ‍कि राजधानी के अखबार का रिपोर्टर होने का एक रौब रहता है और राजधानी के उन तथाकथित अखबारों की स्थिति भी वैसी ही है जैसे यहां पर उनके फर्जी रिपोर्टरों की। ये तथाकथित अखबार यहां अपने पत्रकार के रूप में वसूली एजेन्ट बना देते हैं जोकि भोले-भाले लोगों को प्रेस का रौब दिखाकर थाने, कचहरी की दलाली और अपराधियों को संरक्षण देने में लगे हुए हैं कुछ तो ऐसे हैं कि वे स्वयं ही यही धंधा कर रहे हैं। इस तरह के लोग पुलिस की भी आय का अच्छा जरिया बने हुए हैं। बरेली में अब यह भी होने लगा है कि प्रेस के कार्ड बनाकर एक-एक हजार रुपये में बेचे जा रहे हैं जिन्हें कोई भी ले सकता है चाहे वे पत्रकार हो या नही हो। ये लोग जिला, शहर, कस्बा आदि का सम्वाददाता कार्ड मुहैया कराते हैं और उनको गाड़ियों या अन्य वाहन पर प्रेस लिखने का मौका देते हैं। बरेली में कुछ तथाकथित पत्रकार संगठन भी पैदा हो गए हैं जिनमें इस तरह के लोगों को अपना सदस्य बनाने और इस प्रकार प्रशासन के सामने शक्ति-प्रदर्शन की होड़ रहती है।
पुलिस यह सब जाल-बट्टा जानती है मगर जब किसी प्रेस लिखी गाड़ी या पत्रकार को पकड़ा जाता है तो इन तथाकथित पत्रकारों की जमात उसे छुड़ाने भी पहुंच जाती है। पुलिस का लोगो लगी ऐसी गाड़ियां भी छुड़ाने के लिए पुलिस वाले ही आ जाते हैं इसलिए अब पुलिस चेकिंग के दौरान पुलिस वाले ने प्रेस और पुलिस लिखे वाहनों को रोकना ही बंद कर दिया है। मीडिया के लिए यह स्थिति ज्यादा खतरनाक और अपमानजनक होती जा रही है। पुलिस वालों को अक्सर ऐसे ही लोग ज्यादा करीब दिखाई पड़ते हैं पुलिस उनसे मुखबरी का भी काम लेती है और उनको इसी प्रकार संरक्षण भी देती है। पुलिस से ऐसे लोगों की शिकायत का भी कोई असर नही होता है इसलिए लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला 'मीडिया' भी अब अनाचार और भ्रष्टाचार का गढ़ बनता जा रहा है। बरेली के मीडिया जगत में अपराधी तत्वों की घुसपैठ को लेकर काफी चर्चा और चिंता है क्योंकि वास्तविक मीडिया कर्मियों का इसमें सम्मान गिर रहा है और जनसामान्य में मीडिया की छवि खराब हो रही है।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]