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एक पाठ्यक्रम सी 'मुझे याद है...'

दिनेश सिंह

किताब-मुझे याद है..दादाभाई और मेरा परिवार

'मुझे याद है... दादाभाई और हमारा परिवार' पुस्तक, सहारा इंडिया परिवार के चेयरमैन और मुख्य अभिभावक के रूप में सहाराश्री के नाम से विख्यात सुब्रत रॉय पर उनकी छोटी बहिन यानी कुमकुम रॉय चौधरी 'छोटी दीदी' अगर यह पुस्तक नहीं भी लिखतीं तो भी जनसामान्य की एक पीढ़ी को मोटे तौर पर यह मालूम है कि सुब्रत रॉय को 'सहाराश्री' बनने में कितने घने संघर्षों का सामना करना पड़ा है और उन्होंने संघर्षों के बावजूद किस प्रकार अपने उद्यम एवं सामाजिक मूल्यों के बीच एक विवेकशील संतुलन स्थापित किया हुआ है। कुमकुम रॉय चौधरी ने अपने भाई के व्यक्तित्व को अत्यंत करीब से देखा और उसे सच्चाईयों के साथ व्यक्त किया है जिसे कोई और नहीं कर सकता इसलिए यह पुस्तक काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। साए की तरह मां 'मामूनी' का असीम आशीर्वाद और पिताश्री सुधीर चंद्र रॉय का दिया हुआ लंब्रेटा स्कूटर आज भी पिता के दिए एक वरदान के रूप में सुब्रत रॉय के पास है जिसे वे जी-जान से अपने पास रखते हैं। इस पर चलकर वे कैसे उद्यमी बने, निश्चित रूप से यह हर किसी के वश की बात नहीं है। उनके व्यक्तित्व में विविधता है और उन्होंने अपने व्यक्तित्व के हर पक्ष को एक अलग तरीके से समाज के सामने प्रस्तुत किया है। इसमें सर्वाधिक महत्वूपर्ण पक्ष उनका कर्मयोग है जो पुस्तक में उनकी चित्र-प्रदर्शनी से स्पष्ट झलकता भी है। चेहरे के विभिन्न भाव यह कहानी कहते हैं कि इस व्यक्त्वि ने समय के पीछे नहीं बल्कि उसके साथ या यह कहिए कि उससे आगे चलते हुए उसे अपनी मुठ्ठी में रखा। इसीलिए सुब्रत रॉय, सहाराश्री कहलाए। अपने उद्यम के विस्तार में उन्होंने बैंकिंग, आवास, उड्यन एवं खेल के क्षेत्र को प्राथमिकता दी है और मीडिया एवं मनोरंजन को भी इस विस्तार में शामिल किया। इस कठिन और प्रतिस्पर्धात्मक दौर में एक उद्यमी को शिखर की सीढ़ियां यूंही नहीं मिल गईं। इसके पीछे उन्होंने अपने परिवार, रिश्ते-नातेदारों को एक मजबूत विश्वास और एक कड़ी में पिरोए रखा है, तब जब परिवार में संतुलन बनाना एक उद्यम को चलाने से भी ज्यादा मुश्किल होता है, सुब्रत रॉय ने इसमे शत-प्रतिशत सफलता हॉसिल की है। उनका परिवार उनकी सबसे बड़ी ताकत है बाकी ताकतों से तो वे लड़ते आ रहे हैं और उनको परास्त भी करते आ रहे हैं। कुमकुम रॉय चौधरी की किताब का यही निष्कर्ष सामने आ रहा है।
कुमकुम रॉय चौधरी ने अपने दादाभाई सुब्रत रॉय के बारे में अपनी भावनाओं को पीछे छोड़ते हुए सच्चाईयों को प्रकट करते हुए विभिन्न पक्षों और तथ्यों का उल्लेख किया है और वे पुस्तक में अपनी बात को प्रस्तुत करने में काफी हद तक सफल भी रही हैं। एक उद्यमी के रूप में सुब्रत रॉय ने अपने सबसे पहले कर्मक्षेत्र उत्तर प्रदेश में गुटों में विभाजित राजनीतिक अस्थिरता का बहुत सामना किया है, यदा-कदा इसका प्रभाव उनके व्यवसाय पर भी देखा गया है। इसका उल्लेख और एहसास भी इस पुस्तक के पार्श्व में होता है, निश्चित ही अपने व्यवसाय में उन्होंने कई बार विपरीत स्थितियां झेली हैं। एक उद्यमी के सामने इस प्रकार की परेशानियां मायने रखती हैं लेकिन सुब्रत रॉय ने इन पर भी काफी हद तक विजय पाई है। पुस्तक का आईना दादा भाई के निजी संस्मरणों का एक गलियारा बनाता है, जिसे बे-रोक-टोक सुब्रत रॉय की निजता में जाना हो तो उसे यह पुस्तक देखनी और पढ़नी चाहिए। ये किताब सुब्रत रॉय के व्यक्तित्व की एक जीवंत झांकी कही जा सकती है। यह एक चुनौती पूर्ण कार्य है, कुमकुम ने फोटो संकलन एवं शब्दों के प्रस्तुतिकरण में जान लगा दी है।
'मुझे याद है... दादाभाई और हमारा परिवार' पुस्तक नए उद्यमियों एवं बिजनेस प्रबंधन की पढ़ाई करने वालों के लिए भी उपयोगी हो सकती है। एक छोटी बहिन की अपने दादा भाई से स्नेहभरी नजदीकियों को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत किया गया है। कुछ दुर्लभ घटनाक्रमों के रहस्योद्घाटन भी बड़े खुलकर किए गए हैं। उनसे जुड़ी घर की रोचक बातों को भी किस्से-कहानियों के अंदाज में बताने की कोशिश की गई है। किताब पर मेहनत खूब हुई है, क्योंकि सुब्रत रॉय के जीवन से जुड़े शुरू से अब तक के चित्रों का संकलन भी कोई आसान कार्य नहीं है। सहाराश्री ने सहारा शहर में इस पुस्तक के विमोचन के अवसर पर कहा भी है कि 'उनकी छोटी बहन को घर में उनकी चमची कहते हैं-ये सही है और हर किसी भाई को ऐसी चमची बहन मिलनी चाहिए।' इसी अंदाज में यह किताब अपना अब तक का सफर पूरा करती है। फोटो संकलन का जहां तक प्रश्न है तो इनमें बहुत से चित्र ऐसे हैं जो देश दुनिया की नज़रों के सामने से गुजर चुके हैं और बहुत से ऐसे हैं जोकि दुर्लभ हैं। पुस्तक में इस बात पर भी फोकस है कि सुब्रत रॉय की आज तक क्या-क्या अभिरूचियां रही हैं और हैं और उन्होंने अपने नैतिक मूल्यों को कितनी सावधानियों और परंपराओं के अनुरूप तय किया है। इन मामलों में कुल मिलाकर सुब्रत रॉय अपने पिताश्री सुधीर चंद्र रॉय के नक्शे कदम पर ही चलते दिखाई देते हैं, फर्क इतना है कि वे अपने पिता से ऊंची बुलंदियों तक पहुंचे हैं, यही एक पिता की इच्छा होती है और यही एक पुत्र का धर्म होता है, जिसे सुब्रत रॉय ने बखूबी निभाया है।

पुस्तक बहुत मार्मिक तरीके से इस परिवार की आंतरिक स्थितियों और सच्चाईयों को बयान करती है और बहुत सी भ्रांतियों एवं गलत फहमियों को दूर करती नज़र आती है। इसमें चित्र किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तो इसमें कंटेंट्स भी बहुत लाजवाब हैं जो पुस्तक के महत्व को बढ़ाते हैं। पुस्तक हिंदी-अंग्रेज़ी भाषा में लिखी गई है और कुमकुम रॉय चौधरी ने इसे सहारा परिवार की माताश्री 'मामूनी' को समर्पित किया है। उन्होंने उल्लेख किया है कि उनके माता-पिता का समन्वय कितना अगाध था और दोनों अपने बच्चों के संस्कारों एवं रीति-रिवाजों के प्रति कड़े अनुशासन को कितना महत्व देते थे। सुब्रत रॉय का अपने संयुक्त परिवार के प्रति अनुराग और दायित्व का बोध इस पुस्तक में पूरी तरह झलकता है। यह पुस्तक समाजशास्त्र के विद्यार्थियों एवं संयुक्त परिवार की उपयोगिता एवं उसकी प्रगति में भूमिका को जानने समझने वालों के लिए भी बहुत उपयोगी है। इसमें चित्रों एवं कंटेंट के माध्यम से यह एहसास कराया गया है कि एक परिवार संघर्षों का सामना करते हुए किस प्रकार शिखर तक पहुंचता है और एकता की मिसाल पेश कर रहा है।

पुस्तक को चूंकि छोटी दीदी यानि कुमकुम रॉय चौधरी ने लिखा है और वे अपने दादाभाई की 'चमची' भी कही जाती हैं इसलिए पुस्तक के माध्यम से 'चमची' शब्द का सामाजिक जीवन में और भी ज्यादा महत्व बढ़ जाता है क्योंकि कुछ तो अपने स्वार्थ में ही चमचागीरी करते हैं लेकिन यह पुस्तक सच्चाई के साथ एक नि:स्वार्थ प्रेरणा से प्रभावित है इसलिए यह ध्यान से पढ़ने योग्य है। यह उन सभी के लिए उपयोगी है जो दुनिया में 'ससम्मान' कुछ करने की इच्छा-महत्वाकांक्षा रखते हैं, जो अपने लक्ष्य का पीछा करते हैं- जो संघर्षों से जूझ रहे हैं जो दूसरों के लिए एक आदर्श बनना चाहते हों और जो अपने पूर्वजों, बड़ों एवं प्रतिभाओं का सम्मान करते हुए उन्हें अपना प्रेरणा स्रोत बनाते हैं और उनके लिए तो है ही जो अपने गांव-प्रदेश और देश के लिए वास्तविक रूप से कुछ करना चाहते हैं।
इस पुस्तक का हर एक चित्र अपने में एक हज़ार शब्दों का लेख है। देखें तो यह पुस्तक प्रबंधन और संरचना, अर्थ विज्ञान और राष्ट्रवाद पर चिंतन और अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए एक रचनात्मक पाठ्यक्रम से कम नहीं लगती है। इसमें सहाराश्री और उनकी अब तक की भौतिक एवं सामाजिक प्रगति के हर एक पक्ष को एक सशक्त उदाहरण के साथ व्यक्त किया गया है। यह सच्चाई माननी होगी कि कुमकुम रॉय चौधरी ने इस पुस्तक के लिए वास्तव में एक-एक शब्द रोज बटोरा है। सहाराश्री की छोटी बहन यानी छोटी दीदी ने यह पुस्तक लिखी है, यह समझकर इसे नज़रंदाज नहीं किया जाना चाहिए अपितु इस पुस्तक में सहाराश्री पर अब तक लिखी गई पुस्तकों से ज्यादा प्रेरणादायक और प्रामाणिक विषय हैं और छोटी दीदी ने इसमें एक बहिन के साथ-साथ एक लेखिका और समीक्षक का भी धर्म निभाया है, इसलिए इस पुस्तक की कीमत अगर चार हज़ार रूपये है तो कोई गलत नहीं है, और ज्‍यादा जानने के लिए पुस्तक मौजूद है। (पुस्तक की लेखिका कुमकुम रॉय चौधरी सहारा इंडिया परिवार में वरिष्ठ एग्जीक्यूटिव होने के साथ-साथ एक लोकप्रिय सामाजिक हस्ती हैं जो अपनी बहुआयामी सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए भी जानी जाती हैं। पुस्तक का प्रकाशन आत्माराम एंड सन्स दिल्ली ने किया है।)

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