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पोर्टब्लेयर। 'प्रेमचंद के साहित्य और सामाजिक विमर्श आज भूमंडलीकरण के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक है और उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज में कहीं न कहीं जिन्दा हैं, प्रेमचंद जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित और शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देते हैं तो निश्चित इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं।' कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 131 वीं जयंती पर पोर्टब्लेयर में हिंदी साहित्य कला परिषद के तत्वाधान में हुई एक संगोष्ठी में हुई थी जिसमें यह बात वरिष्ठ साहित्यकार और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के डाक निदेशक कृष्ण कुमार यादव ने कही। संगोष्ठी का विषय था- 'भूमंडलीकरण का वर्तमान सन्दर्भ और प्रेमचंद का कथा साहित्य।'
संगोष्ठी का शुभारम्भ द्वीप-प्रज्वलन और प्रेमचंदजी के चित्र पर माल्यार्पण से हुआ। मुख्य अतिथि के रूप में संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि प्रेमचंद ने जिस दौर में सक्रिय रूप से लिखना शुरू किया, वह छायावाद का दौर था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रा नंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा जैसे रचनाकार उस समय चरम पर थे पर प्रेमचंद ने अपने को किसी वाद से जोड़ने के बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त ज्वलंत मुद्दों से जोड़ा। राष्ट्र आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें प्रेमचंद ने काफी पहले रेखांकित कर दिया था, चाहे वह जातिवाद या साम्प्रदायिकता का जहर हो, चाहे कर्ज की गिरफ्त में आकर आत्महत्या करता किसान हो, चाहे नारी की पीड़ा हो, चाहे शोषण और समाजिक भेद-भाव हो। कृष्ण कुमार यादव ने जोर देकर कहा कि आज प्रेमचंद की प्रासंगिकता इसलिये और भी बढ़ जाती है कि आधुनिक साहित्य के स्थापित नारी-विमर्श एवं दलित-विमर्श जैसे तकिया-कलामों के बाद भी अन्ततः लोग इनके सूत्र किसी न किसी रूप में प्रेमचंद की रचनाओं में ढूंढते नजर आते हैं।
परिषद के अध्यक्ष आरपी सिंह ने संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। आज भी भूमंडलीकरण के इस दौर में इस सच्चाई को पहचानने की जरुरत है। डॉ राम कृपाल तिवारी ने कहा कि प्रेमचंद की रचनाओं में किसान, मजदूर को लेकर जो भी कहा गया, वह आज भी प्रासंगिक है। उनका साहित्य शाश्वत है और यथार्थ के करीब रहकर वह समय से होड़ लेती नजर आती है। जय बहादुर शर्मा ने कहा कि उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। डीएम सावित्री का कहना था कि प्रेमचंद का लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी का विकास संभव ही नहीं था। उन्होंने अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह करके एक नजीर गढ़ी। जगदीश नारायण राय ने प्रेमचंद की कहानियों पर जोर देते हुए बताया कि वे उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। उनकी तुलना विश्व स्तर पर मैक्सिम गोर्की जैसे साहित्यकार से की जाती है। वे युग परिवर्तक के साथ-साथ युग निर्माता भी थे और आज भी ड्राइंग रूमी बुद्धिजीवियों की बजाय प्रेमचंद की परम्परा के लेखकों की जरूरत है। संत प्रसाद राय ने कहा कि प्रेमचंद भूमंडलीकरण के दौर में इसलिए भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि वर्षों पूर्व उन्होंने जिस समाज, गरीबी प्रथा के बारे में लिखा था वह आज भी देखने को प्रायः मिलती हैं।
द्वीप लहरी के संपादक और परिषद के साहित्य सचिव डॉ व्यासमणि त्रिपाठी ने कहा कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे, उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। इस ग्लैमर और उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रेमचंद की रचनाएं आज भी जीवंत हैं क्योंकि वे आम आदमी की बाते करती हैं। अनिरुद्ध त्रिपाठी ने कहा कि प्रेमचंद ने गांवों का जो खाका खिंचा, वह वैसा ही है। उनके चरित्र होरी, गोबर, धनिया आज भी समाज में दिख जाते हैं। भूमंडलीकरण की चकाचौंध से भी इनका उद्धार नहीं हुआ। परिषद के प्रधान सचिव सदानंद राय ने कहा कि गोदान, गबन, निर्मला, प्रेमाश्रम जैसी उनकी रचनाएं आज के समाज को भी उतना ही प्रतिबिंबित करती हैं। प्रेमचंद की कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेजी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। यह उनकी विश्वस्तर पर लोकप्रियता का परिचायक है। कार्यक्रम का संचालन डॉ व्यासमणि त्रिपाठी ने किया और धन्यवाद परिषद के उपाध्यक्ष शम्भूनाथ तिवारी ने किया।