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देहरादून। उत्तराखंड के कई गांव अभी भी चीन का नमक खाते हैं। ये वो गांव हैं जहां सिर्फ पैदल ही पहुंचा जा सकता है। इन तक जाने के लिए तीन से आठ दिन तक दुर्गम रास्तों का पैदल सफर तय करना पड़ता है। इनके लिए मोटे नमक की कीमत भी आसमान छूती है। मोटा नमक आमतौर से मवेशियों को खिलाया जाता है। आयोडीन के बिना ये नमक खाना खतरों से खाली नहीं है, लेकिन पिथौरागढ़ जिले के दूरस्थ गांवों के निवासी तो इस मोटे नमक के लिए भी तरसते हैं। पिथौरागढ़ के दूरस्थ इलाके धारचूला से इन गांवों में नमक जैसा आम उपयोग का सामान जाता है। इसमें धारचूला में तीन रुपए किलो बिकने वाला नमक रौग-कौग गांव तक पहुंचते-पहुंचते 24 रुपए किलो तक पहुंच जाता है।
कई दिनों के पैदल ढुलान के बाद यहां नमक पहुंच पाता है जिसकी कीमत आसमान छूने लगती है। धारचूला से नाबी और रौग कौग गांव का सफर पूरे छह दिन और छह रात लेता है। कुटी गांव पहुंचने में इससे एक दिन और ज्यादा लगता है। रास्ते भी दुर्गम पहाड़ी और जंगली हैं। इस क्षेत्र में सड़कों के न होने की वजह से यातायात का कोई जरिया नहीं है। इस वजह से सारा ढुलान इंसानी कंधों पर होता है। कुछ ही इलाके में खच्चर काम आते हैं। धारचूला में तीन रुपए किलो बिकने वाला यह नमक रौग-कौग गांव तक पहुंचते-पहुंचते 24 रुपए किलो तक पहुंच जाता है और मौसम ज्यादा खराब हो तो कीमत इससे भी ऊपर निकल जाती है। कुटी गांव तक ढुलान का खर्चा और बढ़ने की वजह से यही नमक 30 रुपए किलो भी बिकता है। इसलिए हिंदुस्तानी नमक खाना यहां हर आदमी के बस की बात नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इन इलाकों के भारतीय लोग चरन का नमक खाकर चीन की बात करते हों। ये भारतीय पक्के राष्ट्र भक्त हैं और हमसे भी ज्यादा। इन्हें चीन से आया नमक सस्ता पड़ता है। तीन दिन के पैदल ढुलान के बाद तीन रुपए वाला भारतीय नमक और वह भी मवेशियों वाला जब 14 रुपए किलो पडे़गा तो इन गरीब इलाकों में किसी न किसी से सस्ता नमक तो खरीदना मजबूरी है। आयोडीन युक्त नमक खाने की बात सोचना तो इन गांवों में विलासिता जैसा है। लेकिन चीन नजदीक होने के कारण वहां से नमक 12 रुपए प्रति किलो के भाव से आ जाता है। इस वजह से इलाके के अधिकांश लोग चीन का नमक खाने को मजबूर हैं। नमक का फर्ज अदा करने के लिए हर गांव का हर व्यक्ति हिंदुस्तानी नमक खाना पसंद करता है। लेकिन महंगाई की मार के कारण ऐसा हो नहीं पाता और लोगों को चीन का नमक खाना पड़ता है। इन सीमावर्ती गांवों के लोगों की मांग है कि भारत सरकार रियायती दरों पर उन्हें नमक मुहैया कराए।
नसबंदी की आड़ में गर्भपात का खेल
नई दिल्ली। देश की राजधानी और आस-पास के राज्यों के कई शहरों में परिवार नियोजन का बहाना बनाकर एमटीपी (मेडिकल टर्मिनेशन प्रेगनेंसी-गर्भपात) कराने वाली महिलाओं और किशोरियों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। इससे एक स्वस्थ मां के प्रयासों को नुकसान हो रहा है। उधर, किशोरियों के भी इसमें शामिल पाए जाने पर उनका कम उम्र में गर्भवती होना और उसके बाद गर्भपात उनके मातृत्व के लिए भारी खतरा है।
जहां सरकारी अस्पतालों में प्रति माह अस्सी फीसदी महिलाओं की एमटीपी हो रही है, वहीं निजी अस्पतालों में भी ऐसी महिलाओं का प्रतिशत चालीस और पचास के बीच है। डॉक्टरों का मानना है कि यह प्रवृति बढ़ना ठीक नहीं है क्योंकि बार-बार गर्भपात कराना महिलाओं की स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद खतरनाक है। इसमें सबसे चिंताजनक बात यह है कि इनमे बिन ब्याही युवतियों एवं किशोरियों की संख्या भी है जिनमें से ऐसी कई युवतियों का आगे चलकर मां बनना मुश्किल में पड़ सकता है। हो यह रहा है कि अपनी कोई न कोई मजबूरी बताकर महिलाएं सरकारी अस्पताल में आकर एमटीपी करा रही हैं। अगर यहां से ना में दो टूक जवाब मिल जाता है तो वे निजी अस्पतालों की ओर रुख कर लेती हैं
एमटीपी करने के भी कुछ नियम-कानून तय हैं। एमटीपी एक्ट के मुताबिक कुछ परिस्थितियों में ही संबंधित महिला का गर्भपात किया जा सकता है। अगर नसबंदी ऑपरेशन के दौरान महिला डॉक्टर से कोई गलती हो जाए और महिला का गर्भ ठहर जाए तभी एमटीपी की जा सकती है। दूसरा, अगर संबंधित महिला के साथ दुष्कर्म हो और वह अनचाहे गर्भ को गिराना चाहे। गर्भ में पल रहे भ्रूण का ठीक तरह से विकास न हो रहा हो यानि उसके शरीर के अंग पूरी तरह न बन रहे हों तो भी सुरक्षित उपायों के साथ मेडिकल एमटीपी की जाती है। महिला अपनी कोई मजबूरी बताती है तो दो बच्चों के बाद भी एमटीपी करने का प्रावधान है। एक्ट में एक ही महिला को तीन-तीन, चार-चार बार एमटीपी कराने जैसा कोई प्रावधान नहीं है।
मगर इन शर्तों को ताक पर रख खूब एमपीटी की जा रही है। एक-एक अस्पताल में महीने में काफी एमटीपी की जाती है और कभी-कभी यह आंकड़ा चार पांच सौ को पार जाता है। एमटीपी परिवार नियोजन के अंतर्गत नहीं आती है लेकिन इसे परिवार नियोजन से जोड़ दिया गया है। एमटीपी एक्ट को देखते हुए उनकी कोशिश रहती है कि दो बच्चों के बाद ही एमटीपी की जाए। लेकिन यहां पांच से सात बच्चों वाली महिलाएं तक एमटीपी कराने के लिए आती हैं। ऐसे में न चाहते हुए भी कई बार महिला की मजबूरी समझकर एमटीपी करनी पड़ती है। कई बार तो महिलाओं को बाहर का रास्ता भी दिखा दिया जाता है। बहुत सी महिलाएं एक बार नहीं बार-बार एमटीपी कराकर अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकती हैं।
मोबाइल रेस्तरांओं का बाजार चमका
नई दिल्ली। बड़े शहरों में तेज रफ्तार जिंदगी में हर व्यक्ति को जल्दी है। यहां तक की खाने-पीने के लिए भी वह अधिक समय जाया करने की स्थिति में नहीं है। घर में रसोई चाय बनाने और आमलेट तैयार करने तक सीमित हो गई है। यही कारण है कि बाजारों में गाडि़यों के अंदर चल रहे मूविंग रेस्तराओं की बाढ़ सी आई गई है। गाडि़यों के अंदर ऐसे ही ईटिंग प्वाइंट्स की भरमार है और ऐसे ही इन मिनी रेस्तरांओं के कद्रदान भी बहुत हैं।
इन रेस्तरांओं के चलते कामकाजी लोगों को सुबह को अब केवल सैंडविच खाकर गुजारा करने की जरूरत नहीं है और न ही लंच में अपनी कैंटीन के वही पुरानी दाल-रोटी की जरूरत। अब उनके पास चाइनीज, साउथ इंडियन, नार्थ इंडियन और नॉन वेज खाने के भी विकल्प हैं। इस तरह के मोबाइल रेस्तरां बड़े शहरों में कई जगह दिख रहे हैं। हालांकि काफी लंबे अर्से से स्ट्रीट फूड परोसने के लिए मोमोज भी मशहूर रहे हैं लेकिन अब इन मोबाइल वैनों में चावल, दाल, छोले से लेकर चाइनीज डिश, दोसा वगैरह सब उपलब्ध है।
बड़े शहरों के मार्केट में ऐसी वैन बेहद आम हैं। इन गाडि़यों की बैक सीट को निकालकर उसमें खाने के ड्रम रखे जाते हैं। राजधानी में ऐसी ही एक वैन में लोगों को खाना परोस रहे बलबीर सिंह गुलाटी ने बताया कि वह पिछले सात साल से इस काम में हैं। उनकी वैन में खालिस भारतीय भोजन परोसा जाता है। उन्होंने बताया कि उनके पास नजदीक से तो लोग आते ही हैं लेकिन दूरदराज से भी लोग स्पेशली उनके यहां के राजमा चावल खाने के लिए आते हैं।
बैंक कर्मी अजय ने बताया कि वह दिन में लंच यहीं से करते हैं क्योंकि यहां पर घर जैसा खाना मिल जाता है। उनके यहां बीस रुपए की थाली में पनीर की सब्जी, चावल, दो नान और सूखी सब्जी मिलती है, जो कि आम आदमी की पहुंच में है। मोबाइल वैन में खाना बेचते श्याम का कहना है कि कई सारे ईटिंग प्वाइंट होने के बावजूद भी उनके पास ऑफिस जाने वालों और स्टूडैंटस की खासी भीड़ आती है।