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आपका नेपाली नौकर माओवादियों का एरिया कमांडर तो नहीं?

अनिल कुमार

नई दिल्ली। चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बाद अब नेपाल भी भारत की संप्रभुता के लिए गंभीर चुनौती बनने जा रहा है। भारत को समझ लेना चाहिए कि नेपाल इस मायने में सबसे ज्यादा खतरनाक साबित होने वाला है क्योंकि धर्म, भाषा, सामाजिक सांस्कृतिक संबंधों और गहरे विश्वास के कारण उसके नागरिकों की भारत के घर-घर में रसोई से लेकर बैडरूम तक पहुंच है। सदियों से भारत में नेपाली हर जगह महत्वपूर्ण भूमिका में रहे हैं, इसलिए नेपाल के बदले हुए हालात में और जिस प्रकार नेपाल और भारत में भी माओवादियों के नेतृत्व में भारत और भारतीयों के खिलाफ खुलेआम विध्वंसक गतिविधियां शुरू हो गई हैं, उससे यह विश्वास करने में कोई संदेह नहीं लगता कि नेपाल की माओवादी सरकार, भारत में बड़े पैमाने पर घुसपैठ किए बैठे नेपालियों का अपने सभी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भरपूर इस्तेमाल करेगी। भारत में किस घर और दफ्तर में बैठकर वहां की आवासीय, आर्थिक और संचार सुविधाओं का मुफ्त में लाभ उठाते हुए, विघटनकारी माओवादियों का कोई एरिया कमांडर, नेपाली माओवादियों की भारत विरोधी कार्रवाइयों का संचालन कर रहा है, यह पता लगाना आसान नहीं होगा। यह उन भारतीय परिवारों के लिए तो और भी भयानक खतरा है जिनके घरों और दफ्तरों में नौकरों के रूप में नेपाली लोग काम कर रहे हैं और उनके पास उनके नेपाली दोस्तों और रिश्तेदारों या नातेदारों के रूप में बे-रोक-टोक आवाजाही है।
इस रणनीति से नेपाल के आतंकवादी माओवादियों के सरगना और नेपाल में माओवादियों की सरकार के गठन के नायक कमल दहल प्रचंड का भारत से निपटना चुटकियों का काम है। पूरी दुनिया जानती है कि नेपाली लोग भारत के कोने-कोने में मौजूद हैं और आज की तारीख में वह नेपाली माओवादियों के भारत विरोधी नेटवर्क में अपनी निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। जब से नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर माओवादियों ने कत्लेआम शुरू किया है तब से भारत में भी उनकी हिंसात्मक गतिविधियों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। नेपाल की सीमा से सटे कुछ भारतीय इलाकों में माओवादी अपना पूरा असर रखते हैं यह अलग बात है कि उन्हें भारतीय लोग इस्लामिक आतंकवादियों की तरह से नहीं देखते रहे हैं।

नेपाल में राजशाही की सेना के खौफ से वहां के विघटनकारी माओवादी भारत में ही सबसे ज्यादा शरण लेते रहे। भारत में लाखों परिवारों में इन माओवादियों ने अपने को नौकर बनाकर रखा लेकिन अब सामने आ रहा है कि इनकी भूमिका नौकर के साथ-साथ नेपाल के माओवादियों के नेटवर्क के रूप में काम करने की भी है। नेपाली माओवादियों के लिए यह सर्वाधिक अनुकूल स्थिति है जिसमें उन्हें वह तमाम सुविधाएं मिल रही हैं जो वह भारी धन खर्च करके भी हासिल नहीं कर सकते थे। सबसे अधिक लाभ उन्हें उस विश्वास का मिल रहा है जो कि भारतीय परिवार नेपाली लोगों पर करते हैं। नेपाल में संविधान सभा के चुनाव के बाद जिस प्रकार भारत में माओवादियों के हिंसक और सटीक हमले अंजाम हो रहे हैं वह किसी बड़े लंबे रिहर्सल के बाद ही संभव हो सकते हैं। नेपाली माओवादियों को अच्छी तरह से मालूम है कि भोले-भाले नेपाली पर कोई शक नहीं करेगा। इससे नेपाल को भारत में उन गतिविधियों के विस्तार में आसानी होगी जिन्हें नेपाल भारत में चलाकर भारत को दबाव में लेना चाहता है।
नेपाल के माओवादी नेता कमल दहल प्रचंड ने नेपाल की संविधान सभा की चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतकर भारत के खिलाफ जिस भाषा शैली और धमकी का इस्तेमाल किया वैसी शैली धमकी और हैसियत पाकिस्तान की भी नहीं रही जो कि सैन्य शक्ति में नेपाल से कहीं अत्यधिक ताकतवर है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नेपाल के माओवादी किस रणनीति पर काम कर रहे हैं। उन्हें मालूम है कि भारत के घर-घर में नेपाली मौजूद हैं और वह भारत के खिलाफ किसी भी बड़े विध्वंसक कारनामे को सफलतापूर्वक अंजाम दे सकते हैं।

घर का भेदी लंका ढहाए यह फार्मूला नेपाल के माओवादियों के लिए फिट बैठता है क्योंकि उनका काम और उनका लक्ष्य बहुत आसान है इसलिए वह भारत को अपनी जद में लेने की कोशिश में है इससे चीन का काम और ज्यादा आसान हो गया है क्योंकि जो काम वह भारत में दूसरों से कराता आ रहा था वह काम नेपाल के माओवादियों के भारत में नौकरों के रूप में फैले इस घरेलू नेटवर्क से करा सकता है और करा रहा है। इससे चीन को कई मामलों में सफलता हासिल होगी। चीन और नेपाल ने मिलकर पहला प्रयोग सीमा विवाद पर किया है जिसमें नेपाल ने पश्चिम बंगाल के गोरखाओं को ग्रेटर नेपाल में मिलाने के लिए उनके सामने कई लुभावने प्रस्ताव रखे हैं जिनके बाद से बंगाल के सिलीगुड़ी के इलाके अचानक गोरखालैंड की मांग से सुलग उठे हैं। यह कूटनीतिक और विध्वंसक पैठ की पहली सीढ़ी है जिस पर चढ़कर भारत के खिलाफ बिगुल फूंका गया है।
भारत के पश्चिम बंगाल प्रांत के गोरखालैंड इलाके को ग्रेटर नेपाल के मानचित्र में शामिल किए जाने से नेपाली प्रजातंत्र की नई माओवादी सरकार के इरादों के प्रति भारत के संशय और ज्यादा बढ़ गए हैं। भारत बदले हुए हालात में लोकतंत्र की स्थापना के पक्षधरों के साथ खड़ा होकर नेपाल की संप्रभुता समृद्धि और वहां की संस्कृति एवं रिश्तों को बढ़ाने की अपनी वचनबद्धता को भले ही दोहरा रहा है लेकिन यह भारत के लिए अत्यंत महंगा सोच है। नेपाल में रोज नए राजनीतिक घटनाक्रमों से भारत और नेपाल के बीच रिश्तों में अस्थिरता उभरती देखी जा सकती है। गोरखालैंड को कम्युनिस्ट माओईस्ट फेडरेशन आफ साउथ एशिया ने सन् 2002 में ग्रेटर नेपाल में शामिल किए जाने की मुहिम को आगे बढ़ाया था जिसे अब नेपाल के माओवादी हर प्रकार की हवा दे रहे हैं। हाल ही में सिलीगुड़ी में गोरखालैंड के उपद्रवियों के पीछे माओवादियों की खुली गतिविधियों और उन्हें चीन की शह के संकेत सामने आए हैं। भारत अपने सबसे करीबी पड़ोसी नेपाल में भारत विरोधी गतिविधियों के कारण चिंतित है और वह नेपाल के कूटनीतिक और राजनीतिक मामले में बड़ी सतर्कता से काम ले तो रहा है लेकिन भारत उस नेपाली नेटवर्क से सतर्क नहीं दिखता जो भारत के लिए भविष्य में एक खतरनाक संगठन के रूप में सामने आ रहा है।
नेपाल में माओवादियों के वर्चस्व के बाद भारत के कुछ इलाकों में माओवादियों की हिंसक और विघटनकारी गतिविधियों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इसमें भारत में रह रहे नेपाली युवाओं की सं‌लिप्‍तता भी सामने आयी है। इनमें उनकी संख्‍या भी काफी है जो घरों में, दुकानों पर या फार्म हाउसों पर काम करते हैं। भारत के कुछ इलाके माओवादियों की हिंसा के कारण काफी तनाव में है। यह एक नया संकट है जो भारत के सामने है जिससे निपटने के लिए  भारत के सामने संकोच ही संकोच हैं क्योंकि भारत के वामदलों की नेपाल के माओवादियों के प्रति गहरी सहानुभूति और सहयोग के कारण भारत किसी ऐसी कार्रवाई की तरफ नहीं बढ़ सकता जिससे माओवादियों के हिंसक अभियानों को ध्वस्त किया जा सके। गोरखालैंड को पूरी तरह से माओवादियों ने हवा दे रखी है और नेपाल के माओवादी नेता कमल दहल प्रचंड ने जबसे भारत के खिलाफ विभिन्न मंचों पर सार्वजनिक रूप से जहर उगलना शुरू किया है तब से भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और खासतौर से पश्चिम बंगाल के गोरखालैंड में काफी अफरा-तफरी का वातावरण है। पश्चिम बंगाल से अलग करके जिस पृथक गोरखालैंड राज्य की बात की जा रही है वास्तव में वह अलग राज्य के लिए नहीं बल्कि उसके बहाने उसे नेपाल में शामिल किए जाने की साजिशें रची जा रही हैं और इसकी साजिशकर्ताओं का सरगना चीन और उसके दलाल कहे जाने कमल दहल प्रचंड ही माने जाते हैं।
नेपाल में आजकल सुगौली संधि को लेकर एक इश्तिहार बांटा जा रहा है जिसमें ग्रेटर नेपाल के लिए पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी के इलाके को भी शामिल करते हुए कहा गया है कि 4 मार्च 1816 को हुई सुगौली संधि नेपाल की जनता के साथ विश्वासघात है। इस नक्शे में पश्चिम बंगाल के उस भूभाग को प्रमुख रूप से दिखाया गया है जिसमें आजकल अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर कथित आंदोलन चल रहा है। इश्तिहार को जारी करने वाला माओवादियों के बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ का संस्थापक बुद्धिनाथ श्रेष्ठ है जिसका कहना है कि ‘ग्रेटर नेपाल असंभव छै न’ अर्थात ग्रेटर नेपाल असंभव नहीं है। बुद्धिनाथ ने विराट नेपाल के नाम से एक पुस्तक भी लिखी है जिसमें उसने सुगौली संधि को नेपाल की जनता के साथ विश्वासघात बताया है। यह संधि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने की थी जब नेपाल के राजा वीर विक्रम शाह और भीमसेन थापा प्रधानमंत्री हुआ करते थे। यह एक भूभाग का झगड़ा खड़ा किया गया है जिसमें कहा गया है कि इस संधि के पहले नेपाल के पास करीब 3800 वर्ग किमी क्षेत्र था जिसमें से संधि के बाद करीब पौने नौ सौ वर्ग किमी क्षेत्र घटा दिया गया। इसको लेकर नेपाल की नई माओवादी सरकार में संविधान संशोधन की तैयारी चल रही है।

बुद्धिनाथ श्रेष्ठ इस समय बहुत सक्रिय हैं और वह कह रहे हैं कि यह संधि जबरदस्ती करवाई गई थी जिसमें अंग्रेजों को यह भय था कि कहीं सुगौली के प्रतिनिधि चीन की मदद न करने लगे। कहा जा रहा है कि चीन के दबाव में इस संधि को तोड़ने की योजना बन रही है क्योंकि यह इलाका चीन के लिए हर दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है जिसे माओवादियों ने तोहफे के तौर पर चीन को सौंपने की तैयारी रची है। जिस ग्रेटर नेपाल की बात कही जा रही है उसमें चौबीसी राज्य, माझ-किरात, अठारह ठकुराई, गढ़वाल, कुमाऊं, सिरमौर, वाईसी, लिंबुआन-लेप्चा क्षेत्र प्रमुख रूप से शामिल हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ग्रेटर नेपाल की मांग को 1987 में भी प्रचारित किया गया था जिसे माओईस्ट फेडरेशन का पूरा समर्थन था।
नेपाल में माओवादियों ने संविधान सभा की सर्वाधिक सीटें जीतने के बाद जिन मुद्दों को प्रमुखता से उठाया है उनमें अधिकांश मुद्दे भारत विरोधी हैं और चीन के व्यापक हितों का समर्थन करते हैं। माओवादी नेता कमल दहल प्रचंड बार-बार भारत को धमकी भरे लहजे में सारी संधियों की समीक्षा की बात तो कहते हैं लेकिन वह इस मुद्दे पर खामोश हो जाते हैं कि भारत जिन नेपालियों की रोजगार सुख समृद्धि का कारक बना हुआ है उनके विस्थापित होने पर उनके पास क्या योजनाएं हैं? चूंकि भारत भारतीय उपमहाद्वीप का एक सशक्त नेता कहा जाता है इसलिए वह माओवादी कमल दहल प्रचंड की धमकियों का इसलिए उत्तर नहीं दे पा रहा है कि विश्व समुदाय में फिर से यह प्रश्न खड़ा हो सकता है कि भारत को संयम बरतना चाहिए और उसे माओवादियों की बातों पर नहीं जाना चाहिए। मगर भारत के सामने माओवादियों ने ऐसी विचित्र स्थितियां पैदा कर दी हैं कि भारत ने अगर मुंह नहीं खोला तो भारत के कई इलाके हमेशा के लिए माओवादियों की विघटनकारी गतिविधियों की चपेट में आ जाएंगे जिससे भारत को और कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ेगा।

भारत इस समय अपने ही देश में कई विघटनकारी शक्तियों से जूझ रहा है उसके सामने जहां दुनिया के सामने अपने को बहुत ही जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में मजबूती से स्थापित करने की चिंता है वहीं उसे यह भी देखना है कि जो भारत विरोधी शक्तियां सर उठा रही हैं उन्हें किस प्रकार से रोका जाए। नेपाल में माओवादियों की सरकार का गठन का मार्ग प्रशस्त हो ही चुका है और पूरी दुनिया देख रही है कि उसमें चीन किस प्रकार से दिलचस्पी ले रहा है इसे देखते हुए भारत का चिंतामग्न होना स्वाभाविक है और उसे ऐसे उपाय करने होंगे जिनसे नेपाल में चीन अपनी गतिविधियों का विस्तार न दे सके। फिलहाल जो स्थिति है वह काफी चिंताजनक है और माओवादी भारत में पहले से ज्यादा विघटनकारी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। इसके राजनीतिक और कूटनीतिक परिणाम सुखद नहीं कहे जा सकते जिसमें नेपाल का केवल दूसरे के हाथो का खिलौना बनना प्रमुख है।
उधर नेपाल में तराई को स्वायत्तता देने के लिए नेपाल के माओवादियों ने जो नरमी दिखाई थी उससे सीपीएन और माओवादी गठबंधन तुरंत पलट गया। मधेशिया चाहते थे कि उनके विद्रोही कार्यकर्ताओं को भी माओवादियों के विद्रोही कार्यकर्ताओं की तरह से नेपाली सेना में शामिल किया जाए। लेकिन इस पर नरम रुख अपनाने के बाद माओवादी पलट गए। मधेशी मांग कर रहे हैं कि जातीय मधेशियों लोगों को स्वायत्तता दी जाए और समूह के तौर पर नेपाली सेना में भर्ती के लिए संविधान संशोधन किया जाए। मधेशियों ने इस कारण संविधान सभा की कार्रवाई भी कई दिन तक नहीं चलने दी। इसी घटनाक्रम में कुछ और ऐसी रणनीतियां जुड़ रही हैं जो कि नेपाल और चीन की मिली जुली साजिशों का पर्दाफाश करती हैं। चीन ने माउंट एवरेस्ट पर आने जाने वालों को सीमित करने की रणनीतिक चाल चली है जिसमें एवरेस्ट की चोटी को कचरे से मुक्त करने का बहाना है। राजशाही में चीन ने पर्वतारोहण के समय को सीमित करके चोटी पर पहुंचने वाले दक्षिणी मार्ग को बंद करने के लिए नेपाल सरकार को राजी किया था। कहने को तो यह कहा जा रहा है कि एवरेस्ट से बहने वाली नदी का पानी साफ रहते ही समुद्र में गिरे जिसके लिए यह आवाजाही सीमित की गई है लेकिन चीन सरकार ने इसलिए पर्वतारोहण पर जाने वाले लोगों को सीमित किया है ताकि वह उस स्थान को अपने सुरक्षित सैन्य ठिकानों के रूप में इस्तेमाल कर सके।

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