जे रामचंद्रन
चेन्नई। तमिलनाडु के साड़ी बाजारों में भी नकल का हर तरफ बोलबाला है। कांचीपुरम की साड़ियों पर भी नकल करने वालों का हमला हुआ है। इस कारण जहां कांचीपुरम की असली साड़ियां बाजार से गायब हो रही हैं वहीं इन साड़ियों के बनाने वाले बुनकरों की रोजी रोटी पर भी बन आई है। कहते हैं कि कांचीपुरम की साड़ियों के नाम पर देश-दुनिया में जितनी साड़ियां बिकती हैं उतनी साड़ियां यहां बन ही नहीं पाती हैं। लिहाजा बाजार नकली साड़ियों से अटे पड़े हैं जिससे कांचीपुरम की असली साड़ियों को पहनकर इठलाने का मजा खत्म हो रहा है।
तमिलनाडु के कांचीपुरम के अनगिनत सिल्क हाऊस जरी के अनूठे नमूनों से यूं तो अटे पड़े हैं, मगर उनमें ही और उनके आस-पास नकली साड़ियों के भंडार भी मौजूद हैं। असली साड़ी पहनने वाले और उसके कद्रदान कम नहीं हैं लेकिन यह साड़ियां जिनकी खरीदने की पहुंच से बाहर हैं उनके लिए नकली साड़ियां बाजार में चल रही हैं जो कांचीपुरम की असली साड़ियों जैसी और कपड़ों पर शिल्पकारी का नायाब नमूना दिखाई देती हैं। पल्लू पर परंपरागत मोर या नाचते कृष्ण के अलावा सुनहरी जरी और काले रेशमी बॉर्डर भले ही परंपरागत न हो, मगर यह आश्चर्यचकित जरूर करते हैं। रेशम और सोने की यह चमक शहर से पांच किमी दूर गांव पिल्लायार पालायम में नहीं दिखती। हजारों हथकरघे हफ्तों बंद रहते हैं और परेशान बुनकर खाली रहते हैं। इसलिए कि बाजार नकली, सस्ती साड़ियों से अटा पड़ा है और जिस सहकारी समिति पर उनका वजूद टिका है, वे मरणासन्न हैं।
कांचीपुरम में 22 सिल्क सहकारी समितियां हथकरघे रखने वाले बुनकरों को रेशम और जरी जैसा कच्चा माल उपलब्ध कराती हैं। तैयार माल बिक्री के लिए लौटाया जाता है। पर खराब विपणन और उससे भी खराब संगठन का अर्थ है ज्यादातर बुनकरों को गुजारे लायक पर्याप्त रेशम और जरी नहीं मिलना। गत 50 वर्ष से भी अधिक समय से बुनकरी कर रहे पी मुथैया रेशम के थान को सीने से लगाकर कहते हैं। ‘यह मेरा जीवन है, मेरी रोटी-रोजी है।’ उनके पास तीन साड़ियां बुनने लायक रेशम है। ‘मेरी बेटी और दो बेटे तीन साड़ियां बुनने के लिए मेरे साथ 45 दिन काम करते हैं जिसके लिए सहकारी समिति उन्हें दो हजार रुपए भी नहीं देती। इससे महीने भर का गुजारा भी नहीं होता लेकिन मजबूरी है कि कभी इतना भी न मिले। बेकारी में मुथैया और भी जगह पर काम तलाशते हैं जो कि बहुत कम मजदूरी देते हैं।’
सहकारी समितियों के पास 80 करोड़ रुपए की साड़ियां गोदामों में पड़ी हैं जिसके लिए वे खुद दोषी हैं। नब्बे के दशक के मध्य तक बुनी गई हर कांचीपुरम साड़ी बिकती जरूर थी। इससे हर महीने 10 करोड़ रुपए का कारोबार होता, जिसमें मुनाफा 15-20 फीसदी होता था। पर बाजार के फिर खुलने से सहकारी समितियां विपणन रणनीति में सुधार लाने की बजाए एक साल से अधिक समय से गोदामों में पड़ी साड़ियों पर 10 के बजाए 55 फीसदी छूट दे रही हैं। यानी लागत से भी कम दाम पर बेच रही हैं। चमक-दमक रहित सहकारी समितियां ग्राहकों को उस तरह नहीं लुभा पातीं जिस तरह निजी शोरूम आकर्षक विज्ञापनों और साड़ियां प्रदर्शन करके लुभाते हैं।
यही नहीं, असली सिल्क साड़ियों को नकली साड़ियों से कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है। आंध्र प्रदेश के धर्मावरम और सालेम में सैकड़ों दुकानें सामान्य सिल्क साड़ियों को कांचीपुरम साड़ियां बताकर बेचती हैं और चांदी काटी रही हैं। कांचीपुरम साड़ियों में इस्तेमाल की जाने वाली जरी ऐसा रेशमी धागा होता है जिस पर अंदर तो चांदी के तारों का आवरण होता है और बाहर सोने का। यह काफी महंगा है। उधर नकली साड़ियों में सफेद धातु या अशुद्ध चांदी इस्तेमाल की जाती है और नकली साड़ी निर्माता कम जरी और तीन प्लाई की बजाए दो प्लाई की सिल्क इस्तेमाल करते हैं। इससे लागत और गुणवत्ता दोनों में ही बहुत गिरावट आ जाती है।