डा प्रभुनाथ राय
नई दिल्ली। पेट्रोलियम मूल्यों में कभी भी बढ़ोत्तरी और उस पर तेल कंपनियों की राजनीति रोज-रोज की बात हो गई है। देश में आग की तरह महंगाई फैलने का एक बड़ा कारण पेट्रोलियम का बाजार भी है जो अनियंत्रित और असमय चढ़ता-गिरता रहता है। इस समस्या ने अर्थव्यवस्था को नाच नचा रखा है। राजनीतिक दल भी इस पर अपनी-अपनी तरह से राजनीति करते आ रहे हैं। एक साल से तेल की राजनीति ने जनसामान्य को महंगाई की तरफ धकेल दिया है। तेल बाजार की चालाकियों को समझने में विफल या सफल भारत के अर्थशास्त्री ये तय नहीं कर पाए हैं कि देश की औद्योगिक रफ्तार को दिशा देने वाले तेल बाजार के मूल्य किस प्रकार काबू में किए जाएं।
बात 1999 की है जब लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में भारी वृद्धि कर दी थी। इस वृद्धि पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जवाब वही था जो अक्सर मूल्य वृद्धि के बाद फैसले को न्यायोचित ठहराने के लिए सरकारें दिया करती हैं। इसके बाद तो एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान कई बार पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों में वृद्धि की गई। हर बार मूल्य वृद्धि के पीछे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ी कीमतों को बताया गया। दिसम्बर 2003 में तो एक ही महीने के भीतर दो बार मूल्य वृद्धि की गयी। दरअसल पेट्रोलियम पदार्थों की खपत एवं आयात पर बढ़ती निर्भरता के कारण इनके मूल्यों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार के उतार-चढ़ाव के अनुसार समायोजित करने की आवश्यकता होती है उस समय केंद्र में चाहे किसी भी दल की सरकार हो। तेल बाजार की इस सच्चाई से कोई भी सरकार मुंह नहीं मोड़ सकती है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें देश के लिए एक भयावह सच साबित हो रही हैं और न चाहते हुए भी सरकार को कच्चे तेल की कीमतों में हो रही वृद्धि के अनुसार घरेलू बाजार में कीमतों को समायोजित करना पड़ रहा है।
यूपीए सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों में मूल्य वृद्धि करके अंतर्राष्ट्रीय बाजार के कीमतों के अनुसार घरेलू कीमतों को समायोजित करने का प्रयास किया है। लेकिन राजनीतिक स्वार्थ के चलते इस पर विपक्षी पार्टियों के अलावा सरकार के कुछ सहयोगी दल भी राजनीतिक वितण्डा खड़ा कर रहे हैं जो कि नैतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से अस्वीकार्य है। देखा जाए तो जो दल ऐसा कर रहे हैं उनके शासन वाले राज्यों में पेट्रोलियम पदार्थों पर बिक्री कर की दरें सर्वाधिक हैं। उदाहरण के लिए-उत्तर प्रदेश में ही पेट्रोलियम पदार्थों पर बिक्री कर की दर पेट्रोल पर 25 प्रतिशत और डीजल पर 21 प्रतिशत रहा हैं जिसमें उप्र ने बहुत कम ही छूट दी है। सरकार के बिक्री कर राजस्व में 37 प्रतिशत हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थों से आता है। पश्चिम बंगाल, झारखंड, तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी पेट्रोलियम पदार्थों पर बिक्री कर की दर 20 से 30 प्रतिशत तक रही है जबकि दिल्ली, हरियाणा एवं पंजाब जैसे राज्यों में पेट्रोलियम पदार्थों पर 8 से 20 प्रतिशत तक कर लगाया जाता रहा है। जहां कर की दरें सर्वाधिक होती हैं वहां पेट्रोलियम पदार्थों का मूल्य अधिक हो जाता है। हरियाणा, दिल्ली, पंजाब जैसे अन्य राज्यों में बिक्री कर की दरों में अंतर होने के कारण इन पदार्थों की मूल्य वृद्धि के बावजूद कीमतें अन्य राज्यों की अपेक्षा कम हैं।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम की कीमतों में आग लगी है तो फिर मूल्यवृद्घि पर शोर मचाने वालों के सामने भी यह समाधान मौजूद है कि इस झटके को कम करने के लिए प्रादेशिक सरकारें इन पर लगने वाले करों को कम करें ताकि उपभोक्ताओं को इसके नकारात्मक प्रभाव से बचाया जा सके। लेकिन राज्य सरकारों ने इसमें कोई बड़ी राहत नहीं दी। मूल्य वृद्धि के प्रभाव को कम करने के लिए केंद्र सरकार ने भी तो सीमा शुल्क में कटौती की है जिसकी सराहना होनी चाहिए। केंद्र ने राज्यों से भी करों में कटौती करने की अपेक्षा की थी और उसके अनुरोध पर दिल्ली, महाराष्ट्र व आंध्र प्रदेश की सरकारों ने करों में कुछ कटौती भी की है। जबकि मूल्य वृद्धि के विरोध में चक्का जाम करने वाली पार्टियों की राज्य सरकारों ने बिक्री कर में कटौती करने से साफ मना कर दिया। प्रादेशिक कर प्रणाली मूल्य के प्रतिशत में होती है इस कारण मूल्य वृद्धि पर प्रदेश का राजस्व स्वतः बढ़ जाता है और उपभोक्ताओं की जेब कटती है। हाल ही में पेट्रोल और डीजल की कीमत में जो वृद्धि की गयी है उससे राज्यों को बैठे-बिठाये अधिक कर की उगाही का मौका मिल गया है। इस तरह जितनी बार कीमतें बढ़ती हैं उसी हिसाब से राज्यों का कर भी बढ़ जाता है।
प्रादेशिक सरकारों का कर्तव्य है कि इस प्रकार की वृद्धि पर कर उगाहने के बजाय जनता को राहत दें न कि महंगाई का हव्वा खड़ा कर जमाखोरों को बढ़ावा दें। जो राजनीतिक दल महंगाई एवं तेल कीमतों को लेकर राजनीतिक बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं वास्तव में उसके पीछे उनकी मंशा उपभोक्ताओं को राहत पहुंचाना नहीं है बल्कि वे तो सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में लगी आग के सहारे राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। पेट्रोलियम पदार्थों पर राजनीति न तो देश हित में है और न ही अर्थव्यवस्था के हित में आर्थिक मुद्दों को तय करते समय राजनीतिक नफा-नुकसान का गुणा-भाग होगा तो निश्चित रूप से तेजी से विकास पथ पर अग्रसर भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति पर विपरीत असर पडे़गा जो पार्टियां केंद्र सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर कर विरोध करती रही हैं, यदि वे वास्तव में अपने विरोध को लेकर ईमानदार हैं तो उन्हें उपभोक्ताओं को राहत पहुंचाने के लिए अपने शासन वाले राज्यों में करों में और ज्यादा कटौती करानी चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि वे एक तरफ मूल्य वृद्धि पर बढ़े हुए बिक्री कर राजस्व की मलाई भी काटना चाहते हैं और राजनीति को चमकाने के लिए विरोध में सड़क पर उतरकर जनता को गुमराह भी कर रहे हैं। जहां तक केंद्र सरकार के करों का सवाल है तो इसमें उसके हाथ बंधे हुए हैं।
देश के तीव्र आर्थिक विकास की गति को बनाये रखने के लिए अगले कुछ वर्षों में सरकार को राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना, भारत निर्माण योजना, ग्रामीण रोजगार गारंटी, सर्वशिक्षा अभियान जैसे कार्यों के लिए भारी धन की जरूरत है। वहीं राज्यों की बढ़ती हुई वित्तीय जरूरतों को पूरा करना भी केंद्र सरकार का ही काम है। ऐसे में यदि केंद्र उत्पाद एवं सीमाशुल्क में और कटौती करता है तो इससे केंद्रीय करों के संग्रह में खासी कमी आ सकती है। इसका सीधा असर रोजगार गारंटी, भारत निर्माण योजना व शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे जनकल्याणकारी कार्यों पर पड़ेगा। केंद्रीय राजस्व का बंटवारा राज्यों के साथ भी होता है इसलिए यदि केंद्रीय राजस्व में कमी आयेगी तो फिर राज्यों को केंद्र के अंशदान पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसलिए पेट्रोलियम पदार्थों के दाम को नियंत्रित करने के लिए राज्यों के बिक्री करों में कटौती ही एक प्रभावी विकल्प है। मजे की बात तो यह है कि राज्य बिक्री कर के मुद्दे पर भाग रहे हैं। इस तरह मूल्य वृद्धि पर केंद्र की चारों तरफ फजीहत हो रही है जबकि चांदी काट रही हैं राज्य सरकारें। पेट्रो उत्पादों के मूल्यों में कुछ हद तक समायोजन की गुंजाइश है। यदि इस पर सरकारें गंभीरता से विचार करें तो हो सकता है कि कुछ राहत उपभोक्ता को मिल सके। सरकार गरीबों के नाम पर केरोसीन तेल को काफी सस्ता उपलब्ध करा रही है। लेकिन इसका लाभ लक्षित वर्ग को नहीं मिल पा रहा है। हालांकि केरोसीन को सस्ता रखने के पीछे सरकार की मंशा कल्याणकारी है परन्तु भ्रष्टाचार के कारण इसका लाभ गरीबों को नहीं मिलता है। मिट्टी तेल की कालाबाजारी एवं मिलावटखोरी बडे़ पैमाने पर हो रही है। इसका भंडाफोड़ इंडियन आयल के अधिकारी मंजुनाथन की लखीमपुर खीरी जिले में हुई हत्या से भी हो चुका है जब उन्होंने एक पेट्रोल पंप पर मिलावट खोरी पकड़ी थी, जिसके कारण उनको अपनी जान गंवानी पड़ी।
तेल माफियाओं के हाथ इतने लम्बे हैं कि वे गरीबों के सस्ते मिट्टी तेल को भ्रष्टाचारियों की मिलीभगत से हड़प कर इसका प्रयोग मिलावट में करते हैं। इससे सरकार को सब्सिडी के रूप में भारी राजस्व गंवाना पड़ता है। सरकार जो सब्सिडी मिट्टी तेल पर देती है उसका लाभ जनता को न मिलकर मुनाफाखोरों को होता है। मिट्टी तेल एवं डीजल के मूल्यों में भारी अंतर होने के कारण इसका उपयोग डीजल में मिलावट करने एवं कहीं-कहीं औद्योगिक इकाइयों में ईंधन के रूप में किया जाता है। कभी-कभी तो जिस गरीब के लिए मिट्टी तेल पर सब्सिडी दी जाती है उसे बाजार में 20-25 रुपये लीटर की दर से भुगतान करना पड़ता है। इससे उन किसानों एवं गरीबों को फायदा होने के बजाय नुकसान होता है जिनके लिए सरकार सस्ते दर पर मिट्टी तेल को उपलब्ध कराती है। कृषि में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों एवं वाहनों को डीजल में मिलावट होने के कारण काफी हानि पहुंचती है। इसलिए यदि सरकार मिट्टी तेल पर दी जा रही सब्सिडी को डीजल के मद में हस्तांतरित कर दे और राज्य सरकारें अपने बिक्री करों में और कुछ कमी कर दें तो निश्चित रूप से उपभोक्ताओं को राहत मिल सकती है। लेकिन यह राजनीतिक समझदारी से ही संभव है। सड़कों पर चक्काजाम करने से कोई निष्कर्ष निकलने वाला नहीं है और न ही सरकार के खिलाफ वोट देने से कोई लाभ हो सकता है जैसा कि यूपीए के घटक दलों ने किया।