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भाजपा नेताओं से नफरत, ‘कमल’ से प्यार!

दिनेश ‌सिंह

बीजेपी-bjp

नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है। उसके नेताओं ने विभिन्न शहरों में सभाओं कार्यकर्ता सम्मेलनों और भंडाफोड़ रैलियां करके वोट मांगने शुरू कर दिए हैं। यूपीए के विश्वासमत के लिए सांसदों की खरीदारी का मुद्दा इस समय काम चला रहा है। जम्मू कश्मीर में श्राइन बोर्ड को जमीन देकर उसे वापस लेने और इसको लेकर वहां लगी आग भी देश के सामने बोलने के लिए मसाला है। चुनाव आने तक इन मुद्दों में कितनी हवा रहेगी यह तभी पता चलेगा लेकिन भाजपा की टिकट राजनीति और उसके राष्ट्रीय नेताओं की लोकप्रियता का गिरता ग्राफ इस बात का संकेत दे रहा है कि भाजपा नेताओं से जनता खुश नहीं है जबकि वह ‘कमल’ से प्यार करती है। भाजपा नेताओं की सभाओं में भी वह रौनक नहीं दिखाई दे रही है। चाहे वह कानपुर के फूलबाग में लाल कृष्ण आडवाणी की रैली हो या लखनऊ में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की भंडाफोड़ रैली हो। थके हुए मुद्दों, जनता की नापसंद फैसलों और अंदरूनी उठा-पठक से भाजपा का युवा वर्ग भी निराश दिखाई पड़ रहा है।
दक्षिण भारत में भारतीय जनता पार्टी का कमल खिला। हिमाचल में प्रेम कुमार धूमल जीत कर आए। वास्तव में यह कर्नाटक में कमल और येदियुरप्पा और हिमाचल में कमल और धूमल की हवा थी। देश में फैलते जा रहे आतंकवाद की अदृश्य प्रतिक्रिया थी। यह आगे भी बढ़ रही है। देश की नई पीढ़ी इस पर बहुत गंभीर दिखाई दे रही है जो बगैर भाजपाई प्रचार के ही हो रहा है। इसी का श्रेय भारतीय जनता पार्टी के विभिन्न नेता लूटते रहते हैं। उन्हें यह लगता है कि भारतीय जनता पार्टी उनके कारण देश भर में फैलती जा रही है। सच तो यह है कि जनता, भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से नफरत करती है और वह ‘कमल’ से प्यार करती है। जनता ने तो भाजपा नेताओं के खिलाफ उसी समय अपना निर्णय सुना दिया था जब पिछला लोकसभा चुनाव हुआ और भाजपाई नेताओं को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। चाहे यह परिणाम ‘कमल’ के चाहने वालों की इच्छा के खिलाफ ही गया।

आज जनता इसलिए भाजपा को वोट नहीं कर रही है कि उसे भाजपा को लाना है, बल्कि देश के सार्वजनिक धार्मिक स्थलों, प्रतिष्ठानों, गली और मोहल्लों में रोज-रोज के बम विस्फोट, आईएसआई और अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठनों की घुसपैठ ने उसे ‘कमल’ पर मोहर लगाने के लिए मजबूर कर दिया है। कर्नाटक के चुनाव देखकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा की वह विजय देश में आतंकवादी वारदातों के खिलाफ आम जनता का एक तीखा गुस्सा था जिसकी लपट अब दक्षिण भारत की तरफ बढ़ने लगी है इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि भारतीय जनता पार्टी नेताओं के उत्तर भारत में कुकर्मो से जो नुकसान ‘कमल’ को हुआ है उसकी भरपाई दक्षिण भारत कर रहा है। बैंगलूर में श्रंखलाबद्घ धमाकों से एक संदेश चला गया है कि जो भाजपा से अलग चल रहे थे वे उसके बारे में सोचें।
भारतीय जनता पार्टी के अंदर लीडरशिप का भारी संकट है। जो लीडर हैं भी तो वे एक दूसरे के पीछे पड़े हुए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति से वानप्रस्थ में जा चुके हैं। वैसे भी जन सामान्य में धारणा बन रही है कि उनकी राजनीतिक रणनीतियों से भारतीय जनता पार्टी और देश ने भी फायदा कम नुकसान ज्यादा उठाया है इसके ये नतीजे अब सामने आ रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी की पीएम के लिए उतनी स्वीकार्यता नहीं है। चाहे भले ही उनके राजनीतिक जीवन को लेकर कोई विवाद नहीं हो और वह भारतीय जनता पार्टी में इस दौर के सबसे वरिष्ठतम और ईमानदार नेता हों। आडवाणी सांप्रदायिक नेता नहीं माने जा सकते हैं भले ही कोई इस तथ्य को सिरे से खारिज कर दे। वस्तुतः आडवाणी का धर्म और न्याय, यथार्थ पर आधारित है जिसे समझने में अधिकांश लोग चूक करते हैं। यही कारण है कि उनके बारे में सांप्रदायिक नेता की धारणा स्थापित हो चुकी है। भाजपा के नेता रणनीतियों मामले में आज के युवा वर्ग को उत्साहित नहीं कर पा रहे हैं। युवा वर्ग तो स्वतः ही भाजपा की ओर आकर्षित हो रहा है जिसका कारण उसकी नजरों के सामने अनवरत रूप से राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का जारी रहना है।

भारतीय जनता पार्टी में पिछड़ों के नेता के रूप में कल्याण सिंह का नाम आया था लेकिन वह भी खुद की रणनीतियों से अस्त हो गया। माना जाता था कि उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण सिंह का नाम देश की भावी राजनीति की दृष्टि में रखते हुए उन नेताओं में लिया जाएगा जो कि आने वाले समय में देश की बागडोर संभाल सकते हैं, लेकिन कल्याण सिंह की रणनीतियों और राजनीतिक आचरणों ने अपने समर्थकों को ही नहीं बल्कि राजनीति को भी निराश किया है। एक समय बाद वह इतने सत्ता लोलुप हुए कि अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मुलायम सिंह यादव की भी शरण में पहुंच गए। ऐसा ही कुछ और कारणों से कल्याण सिंह के सारे राजनीतिक दावे यहीं समाप्त हो गए। वो दिन और आज का दिन है कि कल्याण सिंह राजनीति के अंधेरे की तरफ जा रहे हैं, उनके सामने राजनीतिक दावेदारी के प्रकाश का कोई रास्ता अब नहीं बचा है। वे बहाने बनाकर भाजपा की बैठकों से भी बाहर रहने लगे हैं।मध्य प्रदेश की पिछड़ों की ही ताकतवर नेता उमा भारती भाजपा से बाहर हैं ही।
भारतीय जनता पार्टी में पिछड़ों की राजनीति में आए इस खाली अवसर का गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने सबसे ज्यादा लाभ उठाया है। अपने को हर एक ‘गुट’ से दूर रखकर उन्होंने अपने को उस दावे पर ले जाकर खड़ा कर दिया है कि जिस पर कोई भी प्रश्न खड़ा नहीं हो रहा है। कई लोगों ने खुलकर वकालत की है कि नरेंद्र मोदी के अलावा मौजूदा दौर में भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद का कोई और मजबूत दावेदार सामने है ही नहीं और यदि कोई दावा कर भी रहा है तो वह एक दबाव का दावा जिसे जनसामान्य की मोदी जैसी मान्यता नहीं मिली है। नरेंद्र मोदी राजनीति में बहुत संभल कर चल रहे हैं। भले ही अमरीका उन्हें वीजा न दे। इससे उनकी क्षमता पर कोई असर भी नहीं दिखा। उनका यह कहना कि मैं जो कुछ हूं कमल के कारण हूं, उन्हें देश की राजनीति के लिए प्रोत्साहित करता है।

जहां तक भारतीय जनता पार्टी में ब्राह्मण राजनीति का प्रश्न है तो उसका भी सितारा लुप्त प्राय है। उत्तर प्रदेश में ही अध्यक्ष बनाकर कलराज मिश्र का एक प्रयोग किया जा चुका है। इन महाशय ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, राजनीति में और भारतीय जनता पार्टी में क्या-क्या फूहड़ खेल किये हैं उसका रिपोर्ट कार्ड सबके सामने है। ये वो राजनेता हैं जो खुद तो गले तक भ्रष्टाचार में डूबे रहे और भारतीय जनता पार्टी के दूसरे नेताओं को बेईमान समझते रहे। इन्हें मंत्री बनकर यह गलतफहमी हो गई कि वे ही अब भारतीय जनता पार्टी चला रहे हैं। इन्हीं में उत्तर प्रदेश के लखनऊ के रहने वाले और अटल बिहारी वाजपेयी के अत्यंत विश्वासपात्र भाजपा नेता लालजी टंडन भी इनमें से एक हैं, जिनका कि प्रदेश की जनता ने ‘लालची टंडन’ नामकरण किया हुआ है। उनकी लखनऊ के सोंधी टोला के बाहर कोई मान्यता नहीं है। इन्होंने ‘राखी’ के बदले मायावती को भाजपा ही सौंप दी। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनीति के इन मुखौटों ने अपने ही राजनीतिक दलों को कितना गर्त में पहुंचाया है।
कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी पहली बार सत्ता में आई है। येदुईरप्पा की मेहनत ने भाजपा को इतनी बड़ी सफलता के द्वार पर पहुंचाया है। येदुईरप्पा ने भारतीय जनता पार्टी में नेताओं को पीछे करके मोदी की तरह कमल का ही सहारा लिया। सीधे आम आदमी से जुड़े। इस कारण उन्हें कर्नाटक में यह सफलता मिली है। अब देखना होगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता इस सफलता को संजो कर रखते हैं या उसे भी मिट्टी में मिलाते हैं। यहां पर यह उल्लेख करना जरूरी होगा कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात को अपने तरीके से संवारा है और राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। इसलिए येदुईरप्पा को भी ऐसे नेताओं से सतर्क रहना होगा जो कमल और भगवा का ढोंगी प्रदर्शन करके अपने को भाजपा का लंबरदार साबित करेंगे, लेकिन उनके हस्तक्षेप भारतीय जनता पार्टी को नुकसान पहुंचाएंगे। क्योंकि यह सब जानते हैं कि जनता, भारतीय जनता पार्टी को पंसद करती है, कमल को चाहती है मगर उसके अधिकांश नेताओं को नहीं चाहती क्योंकि उसके नेता सत्ता में आने के बाद जनता के खिलाफ चलते हैं और सत्ता पाने के लिए जनता के बीच में जाकर कमल का रोना रोते हैं।
उत्तर भारत में भाजपा की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में पार्टी की हालत सबके सामने है। ड्राइंग रूम राजनीति ज्यादा हो रही है। लोकसभा चुनाव के प्रत्याशियों के चयन को लेकर अभी से खींचतान शुरू हो गई है। बसपा अध्यक्ष मायावती भाजपा के सवर्ण नेताओं को तोड़कर अपने दल में शामिल करने की मुहिम पर हैं। अटल वानप्रस्थी बन गए हैं। एनडीए के घटक दलों में नए परिसीमन के कारण भी अफतरातफरी है। चुनाव क्षेत्रों को लेकर उनमें भाजपा के साथ चलने को लेकर मतभिन्नता सामने आ रही है। कोई अपना दावा छोड़ना नहीं चाहता। इसे रोकने के लिए भाजपा नेताओं पर अपने मतभेद ताक पर रखने का भारी दबाव है लेकिन भाजपा एक ऐसी पार्टी है कि जिसमें अहं को लेकर कोई समझौता नहीं होता है और तब ये एक दूसरे को हराने के लिए निकल पड़ते हैं। कमल प्रिय जनता बेबसी से केवल देखती ही रहती है।

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