लिमटी खरे
नई दिल्ली। राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए भारत गणराज्य की सरकार पैसे को पानी की तरह बहाने से नहीं चूक रही है। भारत पर आधी सदी से ज्यादा समय राज करने वाली कांग्रेस गठबंधन सरकार को इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि उसके राज में भारत गणराज्य की जनता का क्या हाल हो चुका है। मंहगाई से जूझते चूल्हे देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को नहीं दिखाई दे रहे हैं। प्रधानमंत्री ने तो महंगाई का ठींकरा मानसून के सर पर फोड़ दिया है और राष्ट्रमण्डल खेलों के प्रबंधन में महाभ्रष्टाचार की छुटभैयों पर गाज गिराकर इन खेलों के अजगर सुरेश कलमाड़ी को बचा लिया गया है। देश की ज्वलंत समस्याओं के केवल कारण गिनाकर सरकार अपना कर्तव्य पूरा कर रही है। राजधानी दिल्ली को देखो तो यहां तीसरी मर्तबा राज का रिकॉर्ड बनाने वाली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के राज में अब क्या नहीं हो रहा है? उनके पुत्र और सांसद संदीप दीक्षित जनता की आंखों में धूल झोंककर संसद में संप्रग और राजग सरकार के बीच मंहगाई की तुलना कर रहे हैं।
ज्वलंत मामला राष्ट्रमण्डल खेलों के प्रबंधन का है जिस पर भारत के पूर्व खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हिम्मत करके अपना मुंह खोला है। अपनी भ्रकुटी तानकर उन्होंने यहां तक कह दिया है कि इस तरह के खेलों में हो रही पैसों की बर्बादी दुखद है और ऐसे कॉमन वेल्थ गेम्स की सफलता की कामना तो शैतान ही कर सकता है। कांग्रेस का ही ख़ास बंदा अपने ही साथियों को अगर कटघरे में खड़ा कर रहा हो तो फिर इस बात में कोई शक नहीं रह जाता है कि देश की नाक का सवाल बन चुके कॉमन वेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार वास्तव में महाभ्रष्टाचार बन चुका है और पैसों की बरबादी की बात एक जांच में प्रथम दृष्टया साफ तौर पर साबित हो रही है।
भारत ने इस खेल की मेजबानी 2003 में हासिल कर ली थी। कहते हैं कि कनाडा इस खेल को हासिल करने वाला था। कनाडा ने कॉमन वेल्थ गेम्स के लिए अपने शहर हेमिल्टन में प्रस्तावित तैयारियों का खाका बनाकर भी पेश किया था, किन्तु पैसे की ताकत ने इसे हिन्दुस्तान की गोद में डाल दिया। भारत ने इस आयोजन को हासिल करने के लिए अपने देश की जनता का पेट काटकर विदेशी खिलाड़ियों पर खजाना लुटाने में कोई कसर नहीं रखी। कॉमन वेल्थ गेम्स पाने के लिए दिए गए प्रलोभन में यह बात कही गई थी सभी खिलाड़ियों को विलासितापूर्ण लग्जरी होटल में ठहराकर उन्हें शानदार शोफर ड्रिवन कार मुहैया करवाई जाएंगी। इसमें भारत की ओर से जो पक्ष रखा गया, उसमें कहा गया था कि पांच हजार दो सौ खिलाड़ियों और अठ्ठारह सौ अधिकारियों सहित कुल सात हजार लोगों को यात्रा के लिए 48 करोड़ रूपए का ग्रांट दिया जाएगा। भारत को बोली के दौरान ही इस वादे के 137 करोड़ रूपए देने पड़े थे।
भारत में खेलों की स्थिति क्या है यह बात किसी से छिपी नहीं है, पर पता नहीं क्यों भारत सरकार ने इस आयोजन को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। भारत सरकार ने अपने देश में खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के बजाए इस आयोजन में प्रतिभागी छह दर्जन देशों में प्रत्येक देश के खिलाड़ी को 33 करोड़ 12 लाख रूपए की राशि महज एथलीट ट्रेनिंग की मद में ही मुहैया करवा दी। इनमें ऐसे देश भी शुमार हैं जिनसे महज तीन या चार खिलाड़ियों के ही यहां आने की उम्मीद है।
सबसे अधिक आश्चर्य का विषय तो यह है कि हजारों करोड़ रूपयों में इस तरह लुटाई और सरेराह आग लगाई जा रही है और विपक्ष में बैठी भाजपा के साथ ही साथ बात-बात पर लाल झंडा उठाने वाले वामदल बस हल्की सी चिल्लाहट कर ही इस पर विरोध जता रहे हैं। विपक्षी दलों का कमजोर विरोध इस ओर इशारा कर रहा है कि वे भी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर इस भ्रष्टाचार के सीवर में डूबने को तैयार हैं।
कितने आश्चर्य की बात है कि भारत का सत्तारूढ़ दल के पूर्व खेल मंत्री यह स्वीकार कर रहे हैं कि कॉमन वेल्थ गेम्स के नाम पर बहुत कुछ गड़बड़ हुआ है। कॉमन वेल्थ गेम्स की तैयारियों में पिछले तीन चार सालों से ये गफलत चल रही है और गेम्स के ऐन दो माह पहले देश के खेल मंत्री अपनी लाचारगी जाहिर करते हुए कहें कि अब कुछ नहीं हो सकता है, किन्तु इसमें घालमेल तो जमकर हुआ है यह जिम्मेदारी सीधे भारतीय नेतृत्व पर जाती है। प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पर्दे के पीछे से कठपुतली नचाने वाली कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए यह शर्म की ही बात कही जा सकती है कि कॉमन वेल्थ गेम्स अभी आरंभ नहीं हुए हैं और जो तैयारियां उनकी नाक के नीचे हो रही थीं, उन तैयारियों की जांच सीबीआई के हवाले है। इतना ही नहीं खेल मंत्री एमएस गिल स्वयं इन तैयारियों की जांच के लिए सीएजी से भी गति बढ़ाने का आग्रह कर रहे हैं।
क्या इस आयोजन समिति के कोषाध्यक्ष अनिल खन्ना का त्यागपत्र ही पर्याप्त आधार नहीं है कि समिति के अध्यक्ष सुरेश कलवाड़ी को अब तक सीधे जेल में होना चाहिए और विपक्ष इस मामले में संसद में सरकार को कटघरे में खड़ा करे। संपूर्ण विपक्ष देश भर में आंदोलन इस बात पर चलाए कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में देश का तीस हजार करोड़ रूपए से अधिक का धन फालतू ही जाया करवा दिया गया है। अनिल खन्ना पर आरोप है कि उन्होंने अपने पुत्र को सिंथेटिक सरफेस का ठेका दिया था।
इसमें एक बात तो स्थापित हो चुकी है कि खेल चाहे जो भी हों, इनके आयोजन में देश को हमेशा ही घाटा उठाना पड़ा है। ये खेल और देशों की तरह भारत की मजबूत अर्थ व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सके। मामला चाहे एशियाड का हो, ओलंपिक या कानमनवेल्थ का, हर बार देश को नुकसान और बदनामी ही झेलनी पड़ी है। भारत की सरकार वैश्विक छवि बनाने के लिए आवाम-ए-हिन्द के मुंह से निवाले छीनकर इसे विदेशियों के सामने सोने की थाली में परोसने से नहीं चूकती है, पर देश की अधनंगी भूखी जनता के हिस्से में आखिर मंहगाई ही आती है।
अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने जब इस आयोजन को हासिल किया था तब इसके लिए 1899 करोड़ रूपए का प्रथक से बजट रखा गया था, जो अब सरकारी तौर पर लगभग पांच गुना बढ़ गया है, किन्तु अगर संपूर्ण आहूति के साथ देखा जाए तो यह बजट तीस हजार करोड़ रूपए से अधिक होने का अनुमान है। किसे सच माना जाए किसे झूठ यह बात समझ से ही परे है, इसे केवल बजट बनाने वाले और बजट डकार जाने वाले ही ज्यादा जानते हैं।
दिल्ली के मुख्य सचिव कहते हैं कि अब तक निर्माण पर महज 13 हजार 350 करोड़ रूपए ही खर्च किए गए हैं। इस सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि दिल्ली सरकार के वित्त मंत्री 2006 में घोषणा कर चुके हैं कि कॉमन वेल्थ गेम्स के निर्माण पर 2006 तक 26 हजार 808 करोड़ रूपए फूंके जा चुके हैं। सन् 2003 में कहा गया था कि स्टेडियम निर्माण में महज डेढ़ सौ करोड़ रूपयों का खर्च ही प्रस्तावित है, किन्तु अब तक इस मद में लगभग चार हजार करोड़ रूपयों में आग लगाई जा चुकी है।
केंद्रीय खेल मंत्रालय चाहे जो कहे पर इन खेल के लिए वह भी अपनी पोटलियों के मुंह तबियत से खोल रहा है। खेल मंत्रालय ने 2005 - 2006 के वित्तीय वर्ष में इस आयोजन मद में साढ़े पैंतालीस करोड़ रूपए की राशि आवंटित की थी। यह रकम पिछले वित्तीय वर्ष में छह हजार दो सौ पैंतीस गुना बढ़कर 2 हजार 883 करोड़ रूपए हो गई। केंद्र सरकार ने इस साल कॉमन वेल्थ गेम्स की तैयारियों की मद में दो हजार 69 करोड़ रूपयों का आवंटन किया है। दिल्ली सरकार ने खेलों के लिए दो हजार एक सौ पांच करोड़ रूपए का आवंटन किया है।
आयोजन समिति का दावा है कि महज तेरह दिनों के इस आयोजन में आयोजन समिति को सत्रह सौ अस्सी करोड़ रूपए की आय होना अनुमानित है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) आयोजन समिति की इस राय से सहमत नहीं हैं। सीएजी का कहना है कि यह आंकड़ा बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है। आवंटन और व्यय में सरकारी आंकड़ों में असमानता ही साफ तौर पर जाहिर करती है कि खेल-खेल में तबियत से अरबों रुपये का 'खेल' किया गया है।
भारत में जनता अधनंगी, भूखी, प्यासी तरसे और खेलों के नाम पर कांग्रेस से नेताओं और उनसे जुड़े कारिंदे करोड़ों कमाकर मौज उड़ाएं? भारत का कानून इन कालनेमियों को अपनी जद में लेने में असहाय महसूस करे? देश की पुलिस इनमें से कई भ्रष्टाचारियों और दुराचारियों को सलाम ठोके और गरीब गुरबों को थाने की हवालात और जेल की हवा खिलाए? देश में महंगाई ने अपना डंका बजा रखा है। जन सामान्य दिल्ली में देख रहा है कि खेलों की तैयारियों में कैसे उसकी हंसी उड़ाई जा रही है। क्या एक अर्थशास्त्री के लिए जोकि संयोग से देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी बैठे हैं, यह आत्म विश्लेषण का गंभीर विषय नहीं है कि वे फेल प्रधानमंत्री हैं? जन सामान्य में एक वर्ग यह सच्चाई भी जानता है कि मनमोहन सिंह एक कठपुतली सरकार भी हैं लेकिन अपने साम्राज्य के आखिरी दौर में मनमोहन सिंह किसके लिए यह कलंक ओढ़ रहे हैं? उन्हें यह भी सच्चाई मालूम है कि देश की अर्थव्यवस्था चौराहे पर होने से लेकर सबसे ज्यादा कई बड़े आर्थिक घोटाले इन्हीं के कार्यकाल में हुए हैं।