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Sunday 14 April 2024 03:34:57 PM
नई दिल्ली। भारतीय संविधान निर्माता और राष्ट्र निर्माताओं में अग्रणी विभूतियों में शामिल बाबासाहेब डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर की जयंती देशभर में 'महापरिनिर्वाण दिवस' के रूपमें मनाई गई। इस मौके पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कानूनविदों, न्यायाधीशों और सामाजिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित प्रबुद्धजनों ने संसद भवन लॉन में बाबासाहेब की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की। डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर का जीवन इतिहास जान लेने केबाद उनके मुख्य योगदान और उनकी प्रासंगिकता का अध्ययन और विश्लेषण करना आवश्यक और उचित है। एक मत के अनुसार तीन बिंदु आज भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। आजभी भारत अर्थव्यवस्था एवं अनेक आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है। डॉ आंबेडकर के विचार और कार्य इन समस्याओं को सुलझाने में हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। आंबेडकर जयंती 14 अप्रैल पर देशभर में झांकी, रैली और विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए।
डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर का जीवन संघर्ष से सफलता का एक गौरवशाली इतिहास है, जो हर कदम पर उत्थान की प्रेरणा देता है। वह सदैव सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ और एक राष्ट्रवादी जननेता थे। उनका जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के गांव महू में हुआ था, वे अपने माता-पिता की 14वीं और अंतिम संतान थे। भीमराव आंबेडकर के पिता रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश सेना में सूबेदार हुआ करते थे। वे संत कबीर पंथी थे और बेहद सुविज्ञ भी। डॉ आंबेडकर लगभग दो वर्ष के थे, जब उनके पिता सेवानिवृत्त हो गए और डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर सतारा में प्राइमरी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे जब वह केवल छह वर्ष के थे, तब उनकी माताजी भीमाबाई का देहावसान हो गया। चाची ने उनकी देखभाल की, जिसके बाद वह बम्बई चले आए। भीमराव आंबेडकर ने अपनी शुरूआती स्कूली शिक्षा में अस्पृश्यता का दंश झेला। उन्हें स्कूल समय में ही एहसास हो गया थाकि अस्पृश्य होना क्या होता है, जिसका सामना करते हुए उन्होंने न केवल कड़ी मेहनत से देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की अपितु देश में एक सामाजिक जागरूकता आंदोलन खड़ा किया और एक योग्य कानूनविद के रूपमें भारतीय संविधान निर्माताओं में प्रतिष्ठित हुए।
डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर के मैट्रिक करने केबाद 1907 में उनकी शादी बाजार के एक खुले शेड के नीचे हुई। उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई एल्फिन्स्टन कॉलेज बम्बई से पूरी की, जिसके लिए उन्हें बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने छात्रवृत्ति प्रदान की थी। स्नातक की शिक्षा अर्जित करने केबाद उन्हें अनुबंध के अनुसार बड़ौदा संस्थान में शामिल होना पड़ा। वर्ष 1913 में उनका उच्च अध्ययन केलिए अमेरिका जानेवाले अध्येयता के रूपमें चयन हुआ। यह उनके शैक्षिक जीवन का महत्वपूर्ण और स्वर्णकाल साबित हुआ। उन्होंने क्रमशः 1915 और 1916 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एमए और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। इसके आगे की पढ़ाई केलिए वह लंदन चले गए। वकालत की पढ़ाई केलिए वह ग्रेज़ इन में भर्ती हुए, उन्हें लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में डीएससी की तैयारी करने की भी अनुमति दी गई, लेकिन बड़ौदा के दीवान ने उन्हें भारत वापस बुला लिया। उन्होंने बार-एट-लॉ और डीएससी की डिग्री भी प्राप्त की। उन्होंने कुछ समय तक जर्मनी की बॉन यूनिवर्सिटी में भी अध्ययन किया।
डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर ने 1916 में 'कास्ट्स इन इंडिया-देअर मैकनिज्म, जीनेसिज एंड डेवेलपमेंट' विषय पर एक निबंध पढ़ा। उन्होंने ‘नेशनल डिविडेंड फॉर इंडिया-अ हिस्टोरिक एंड एनालिटिकल स्टडी’ पर अपनी थीसिस लिखी और उसपर पीएचडी की सर्वोच्च डिग्री प्राप्त की, जिसे आठ वर्ष बाद इवोल्यूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया शीर्षक से प्रकाशित किया गया। इसे प्राप्त करने केबाद बाबासाहेब भारत लौट आए। उन्हें बड़ौदा के महाराजा का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया, ताकि आगे चलकर उन्हें वित्तमंत्री के रूपमें तैयार किया जा सके। सितंबर 1917 में अपनी छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त होने पर डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर शहर लौट आए और नौकरी करने लगे, लेकिन गायकवाड़ शहर में थोड़े ही समय नवंबर 1917 तक रहने केबाद वह बम्बई रवाना हो गए। अस्पृश्यता के कारण अपने साथ हुए दुर्व्यवहार ने उन्हें नौकरी छोड़ने केलिए विवश कर दिया था। वे बम्बई में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूपमें सिडेनहैम कॉलेज में पढ़ाने लगे। सुविज्ञ होने के कारण वह छात्रों केबीच बहुत लोकप्रिय थे, लेकिन लंदन में कानून और अर्थशास्त्र की पढ़ाई दोबारा शुरू करने केलिए उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इस पढ़ाई में कोल्हापुर के महाराजा ने उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की।
डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर ने 1921 में प्रोविंशियल डिसेंट्रलाइजेशन ऑफ इम्पीरियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया पर अपनी थीसिस लिखी और लंदन यूनिवर्सिटी से एमएससी की डिग्री प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने कुछ समय जर्मनी की बॉन यूनिवर्सिटी में बिताया। उन्होंने 1923 में डीएससी केलिए अपनी थीसिस-प्रॉब्लम ऑफ रुपी इट्स ऑरिजन एंड सॉल्यूशन प्रस्तुत की। वर्ष 1923 में उन्हें वकीलों के बार में बुलाया गया। वर्ष 1924 में इंग्लैंड से लौटने केबाद उन्होंने दलित वर्गों के कल्याण केलिए एक एसोसिएशन की शुरुआत की, जिसमें सर चिमनलाल सीतलवाड़ अध्यक्ष और डॉ अंबेडकर चेयरमैन थे। एसोसिएशन का तात्कालिक उद्देश्य शिक्षा का प्रसार करना, आर्थिक स्थितियों में सुधार करना और दलित वर्गों की शिकायतों का प्रतिनिधित्व करना था। नए सुधार को ध्यान में रखते हुए दलित वर्गों की समस्याओं को हल करने केलिए 3 अप्रैल 1927 को बहिष्कृत भारत समाचार पत्र शुरू किया। वर्ष 1928 में वह गवर्नमेंट लॉ कॉलेज बम्बई में प्रोफेसर बने और 1 जून 1935 को वह उसी कॉलेज के प्रिंसिपल बन गए और 1938 में इस्तीफा देने तक उसी पद पर बने रहे। नासिक जिले के येवला में 13 अक्टूबर 1935 को दलित वर्गों का प्रांतीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें उन्होंने यह घोषणा करके हिंदुओं को हतप्रभ कर दियाकि मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ, लेकिन मैं हिंदू के रूपमें नहीं मरूंगा। उनके हजारों अनुयायियों ने उनके फैसले का समर्थन किया। वर्ष 1936 में उन्होंने बॉम्बे प्रेसीडेंसी महार सम्मेलन को संबोधित किया और हिंदू धर्म का परित्याग करने की वकालत की।
डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर ने 15 अगस्त 1936 को दलित वर्गों के हितों की रक्षा केलिए स्वतंत्र लेबर पार्टी का गठन किया, जिसमें ज्यादातर श्रमिक वर्ग के लोग शामिल थे। वर्ष 1938 में कांग्रेस ने अस्पृश्यों के नाम में परिवर्तन करने वाला एक विधेयक पेश किया। डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर ने इसकी आलोचना की। उनका दृष्टिकोण थाकि नाम बदलना समस्या का समाधान नहीं है। वर्ष 1942 में उन्हें भारत के गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में लेबर सदस्य के रूपमें नियुक्त किया गया, वर्ष 1946 में वह बंगाल से संविधान सभा केलिए चुने गए, उसी समय उन्होंने अपनी पुस्तक हू वर शूद्र? प्रकाशित की। आजादी केबाद 1947 में उन्हें देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पहली कैबिनेट में विधि एवं न्याय मंत्री नियुक्त किया गया, लेकिन 1951 में कश्मीर मुद्दे, भारत की विदेश नीति और हिंदू कोड बिल के बारेमें प्रधानमंत्री नेहरू की नीति से मतभेद व्यक्त करते हुए उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। वर्ष 1952 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने में उनके द्वारा दिए गए योगदान को मान्यता प्रदान करने केलिए उन्हें एलएलडी की उपाधि प्रदान की। वर्ष 1955 में उन्होंने थॉट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स पुस्तक प्रकाशित की। डॉ बीआर आंबेडकर को उस्मानिया विश्वविद्यालय ने 12 जनवरी 1953 को डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। आख़िरकार 21 साल बाद उन्होंने 1935 में येवला में की गई अपनी घोषणा मैं एक हिंदू के रूपमें नहीं मरूंगा को सच साबित कर दिया।
नागपुर में 14 अक्टूबर 1956 को एक ऐतिहासिक समारोह में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया और 6 दिसंबर 1956 को उनका देहांत हो गया। वर्ष 1954 में काठमांडू नेपाल में बाबासाहेब को जगतिक बौद्ध धर्म परिषद में बौद्ध भिक्षुओं ने बोधिसत्व की उपाधि से सम्मानित किया। खास बात यह हैकि उनको जीवित रहते हुए ही बोधिसत्व की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्होंने भारत के स्वाधीनता संग्राम और स्वतंत्रता केबाद के सुधारों मेंभी योगदान दिया। बाबासाहेब ने भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस केंद्रीय बैंक का गठन बाबासाहेब ने हिल्टन यंग कमीशन को प्रस्तुत की गई अवधारणा के आधार पर किया था। बाबासाहेब के देदीप्यमान जीवन इतिहास से पता चलता हैकि वह अध्ययनशील और कर्मठ व्यक्ति थे। सबसे पहले अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने अर्थशास्त्र, राजनीति, कानून, दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया, उन्हें अनेक सामाजिक बाधाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपना सारा जीवन पढ़ने और ज्ञान अर्जित करने तथा पुस्तकालयों में नहीं बिताया। उन्होंने आकर्षक वेतन वाले उच्च पदों को ठुकरा दिया, क्योंकि वह दलित वर्ग को कभी नहीं भूले। उन्होंने अपना जीवन समानता, भाईचारे और मानवता केलिए समर्पित कर दिया। उन्होंने दलित शोषित वंचित वर्ग के उत्थान केलिए भरसक प्रयास किए।