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मायावती का यह शासन है या दहशत?

'भाजपा को खत्म करने की मेरी रणनीति कामयाब रही'

मगर ऐसे मायावती का पीएम का सपना पूरा हो सकेगा?

दिनेश शर्मा

दिनेश शर्मा

मायावती-mayawati

लखनऊ। यह लिखना कोई इतिहास हो या किसी को नापसंद, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि महारानी लक्ष्मीबाई, वीरांगना झलकारीबाई, ऊदा देवी, सावित्री बाई फुले, इंदिरा गांधी, मदर टेरेसा जैसी महान नारियां तीन-चार सदियों में एकाध बार पैदा होती हैं। इन्हीं में जनशक्ति और अद्भुत प्रचंड राजयोग लेकर मामूली से दलित परिवार में जन्मी मायावती भी एक हैं। इसे भारतीय लोकतंत्र या खुद का दुर्भाग्य ही कहें या कुछ और कि यह सारी समृद्धियां होते हुए भी मायावती इन महान नारियों की छाया भी नहीं छू सकी हैं, बल्कि ईश्वर से केवल कुछ ही को मिले इस शानदार उत्तरदान की मायावती धज्जियां पर धज्जियां उड़ा रही हैं। उनके शासन और अदम्य राजनीतिक ताकत का आज कोई मुकाबला न होता, अगर मायावती खुलेआम भ्रष्टाचार, भेदभाव और रागद्वेष में लिप्त न हुई होतीं। मै इन लाइनों के साथ इस विश्लेषण को विस्तार दे रहा हूं कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत से बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनाने के बावजूद मुख्यमंत्री मायावती, प्रदेश का राज-पाट चलाने में विफल साबित हो रही हैं। उनके राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक दांव उल्टे पड़ रहे हैं। विवादास्पद फैसलों, ज़िद्दी और बदतर छवि के कारण, मायावती अपना प्रशासनिक नियंत्रण खोती जा रही हैं। जिसे वे अपना सख्त शासन कह रही हैं, लोगों की नज़र में वास्तव में उसकी असली परिभाषा ‘दहशत’ है।
समता मूलक समाज की परिभाषा, केवल अपने नज़रिये से तय करने वाली मायावती का पहला राजनीतिक परिणाम बलिया से आया है, जहां लोकसभा उपचुनाव में उन्होंने ‘बड़े अंतर’ से मुंह की खाई है। मायावती की कार्यप्रणाली से इन आठ महीने में कुछ अवसरवादियों को छोड़कर बाकी ब्राह्मणों का रुख़ एकदम बदला हुआ दिख रहा है। ‘सर्व समाज’ में पिछड़े वर्ग की भी कुछ ऐसी ही स्थिति दिखाई देने लगी है। जहां तक मुसलमानों का प्रश्न है तो अपवाद को छोड़कर वह आज भी मुलायम सिंह यादव के ही साथ दिखाई दे रहे हैं। मायावती अपने ‘सफरनामें’ में खुद को ‘देश का सबसे बड़ा नेता’ और भावी प्रधानमंत्री ‘घोषित’ करके जिस एजेंडे और आक्रामक शैली में देशभर में अपना प्रचार करने निकली हैं, उससे तो नहीं लगता कि ब्राह्मण समाज उनके साथ लंबा चल सकेगा। ऐसी स्थिति में मायावती के लिए आने वाला लोकसभा चुनाव कोई आसान नहीं होगा। जहां तक उनके भविष्य में प्रधानमंत्री बनने के दावे का सवाल है, तो यह तो निश्चित है कि देश में पिछड़े वर्ग के दिग्गज राजनेताओं के होते उनकी दावेदारी क्षीण है, मायावती जिस तरह से शासन चला रही हैं, उस हिसाब से तो वह इस पद की दौड़ से बिल्कुल बाहर दिखाई दे रही हैं।
लोकसभा चुनाव मायावती के बाकी के मुख्यमंत्री कार्यकाल का भी भविष्य तय करेगा। देखें तो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर र्निविवाद रूप से छाए रहने के लिए बसपा के संस्थापक कांशीराम से मायावती को विरासत में दूसरे राजनेताओं से कहीं ज्यादा अवसर मिले थे, लेकिन मायावती ने एक अत्यंत अविश्वसनीय राजनेता, अपनी भ्रष्ट और घोर पक्षपातपूर्ण कार्यप्रणाली, पैंतरेबाज़, सत्ता और अपने स्वार्थ के लिए किसी से भी समझौता करने एवं केवल पैसे के पीछे भागने वाली जैसी बदतर छवि से कांशीराम की उम्मीदों और उनके दिये अवसरों पर पानी फेरने का ही काम किया है। मायावती ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को ‘नज़रबंद’ कराकर भारतीय लोकतंत्र को काफी निराश किया है। राजनेताओं की कार्यप्रणाली, छवि और व्यक्तित्व पर नज़र रखने वालों ने मायावती की महत्वाकांक्षाओं और उनके दावों पर कई तुलनात्मक सवाल खड़े किए हैं। गैर भाजपाईयों, मीडिया और दूसरे बुद्धिजीवियों की एक जमात, अगर गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के स्टार नेता नरेंद्र भाई मोदी को धर्मनिरपेक्ष भारतीय समाज की त्रासदी, साम्प्रदायिक और मौत का सौदागर कह सकती है, तो फिर उसका बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, उनकी कार्यप्रणाली और उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के बारे में क्या कहना है?
भाजपा के चक्रवर्ती नेता अटल बिहारी वाजपेयी के आशीर्वाद से उत्तर प्रदेश में तीन बार बसपा की सरकार बनाने वाली और अटल बिहारी वाजपेयी से लोकसभा में उनकी सरकार का बहुमत सिद्ध करने के लिए बसपा के चार वोट देने का वादा करके मायावती ने उनके खिलाफ मतदान किया, जिसके परिणामस्वरूप उनकी केवल तेरह दिन पुरानी सरकार अल्पमत में आ जानेके बाद लोकसभा से बाहर आकर मायावती कहती हैं कि ‘आज मैने अपना बदला ले लिया है’, तो उन मायावती के लिए आपका क्या कहना है? वह मायावती जो ब्राह्मणों के खिलाफ ज़हर उगलकर अब उन्हीं के समर्थन से राज्य में बसपा की सरकार बनाकर, धर्मनिरपेक्षता और समता मूलक समाज का मुखौटा लगाए देश के सारे राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को नेस्तनाबूद करने निकली हैं, वह मायावती जो प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हुए नए सिरे से आरक्षण का मुद्दा उछाल कर विघटन और भयानक जातीय नफरत पैदा कर रही हैं, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का खुद भी अपमान करने वाली, करोड़ों लोगों के आराध्य श्रीराम के चरित्र के खिलाफ ‘सच्ची रामायण’ के लेखकों को उत्तर प्रदेश में और उसके बाहर भी महिमामंडित करने वाली और बसपा के धन से अपने भाई-भतीजों को धनवान बनाने वाली मायावती के बारे में आपकी क्या राय है? जिन्होंने राज्य में ‘शासन’ के नाम पर एक ‘दहशत’ का वातावरण बना रखा है, जिनके खिलाफ आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे रहने के गंभीर आरोप हैं, जो किसी भी तरह से सत्ता में आने के लिए अपने ही उत्तर प्रदेश को कई टुकड़ों में बांट देने के लिए तैयार हैं, उनके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
वह मायावती जो सामाजिक न्याय की दुहाई देकर अपने सामने किसी दूसरे दलित को भी नेता बनते नहीं देख सकतीं, और तो और जिन्होंने बसपा के संस्थापक अध्यक्ष काशीराम को उनके जीते जी ही अध्यक्ष पद से हटाकर खुद को बसपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर लिया, जिससे काशीराम ‘जीवनपर्यंत बसपा के राष्ट्रीय संस्थापक अध्यक्ष’ कहलाने से भी वंचित रह गए, आज वह मायावती भारत सरकार से उन काशीराम के लिए किस मुंह से भारतरत्न सम्मान की मांग कर रही हैं? सरकार के ‘पूर्ण बहुमत के कवच’ में मायावती के जन्मदिन केलिए प्रदेशभर में बड़े स्तर पर ‘गुंडा टैक्स’ की तरह से धन वसूली होगी, यूपी की जनता ने बसपा को क्या इसीलिए पूर्ण बहुमत दिया था? पुलिस ने लोगों को हवालात में बंदकर बसपाइयों का जन्मदिन टार्गेट किस तरह पूरा कराया, यह किसे नहीं मालूम? उत्तर प्रदेश में इस समय सबसे ज्यादा खराब कानून-व्यवस्था और इतने चरम पर भ्रष्टाचार कभी नहीं सुना गया था। इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं करेगा कि मायावती का जीवन भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना देश के दूसरे बड़े नेताओं का, इसलिए उनकी सुरक्षा भी प्राथमिकता पर होनी चाहिए, मगर देश-विदेश के विभिन्न आतंकवादी संगठनों और उनके आत्मघाती हमलावरों से देश के जिन नेताओं और विशिष्ट घरानों को चौबीसों घंटे खतरा है, वे भी एसपीजी सुरक्षा नहीं मांग रहे हैं, जैसे मायावती ने इसकी मांग करके कांग्रेस से अपनी जान को खतरा कहकर देश को सर पर उठा रखा है। मायावती अपनी एसपीजी सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार से कानून तक बदलने के लिए कह रही हैं, तो क्या गारंटी है कि यह सुरक्षा कवच अभेद्य है? पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास भी तो यह सुरक्षा थी।
मायावती के इस सुरक्षा कवच के पीछे बात कुछ और ही लगती है, शायद उन्हें अभी से ही प्रधानमंत्री की तरह देशभर में घूमकर विघटन और जातीय संघर्ष की आग और ज्यादा लगानी है, जिसके खतरों से बचने के लिए उन्हें एसपीजी सुरक्षा कवच की जरूरत है, इसीलिए मुख्यमंत्री मायावती की सुरक्षा में विफल उत्तर प्रदेश पुलिस को अपनी साख बचाने के लिए प्रदेश में अचानक आतंकवादियों और हूजी का जाल दिखाई पड़ने लगा है, ताकि इस सुरक्षा को हासिल करने का आधार तैयार किया जा सके। उप्र विधानसभा चुनाव में अपने ही गृह राज्य उत्तर प्रदेश को तीन टुकड़ों में बांटने का ऐलान करके मायावती चुनाव बाद ही अपने वादे से मुकर गईं, क्योंकि राज्य का कोई भी राजनीतिक दल उत्तर प्रदेश का और विभाजन नहीं चाहता। मायावती ने दक्षिण भारत के दौरे में आंध्र प्रदेश में जाकर तेलंगाना राज्य की मांग करने वालों का समर्थन करके उन्हें उकसाया है। अब वहां से मायावती से सवाल पूछा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के विभाजन की पहल तो उन्होंने ही की है, इसलिए आंध्र प्रदेश में तेलंगाना राज्य का समर्थन करने से पहले वे उप्र के विभाजन का संकल्प अपनी विधानसभा में कब पारित कर रही हैं? मगर सरकार बनते ही मायावती सरकार इसे विधानसभा में पारित करने से साफ इंकार कर चुकी है, इसलिए अपने स्वार्थ के लिए मायावती कोई भी सनसनी या कार्ड चलाने से नहीं चूकती हैं। ब्राह्मणों के साथ आने से ही मायावती पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने का सपना पूरा कर सकी हैं, मगर उन्हें न किसी ब्राह्मण से मतलब दिखाई देता है और न किसी भाईचारे से सरोकार।
ब्राह्मण समाज में मायावती के विरोध के स्वर फूटने लगे हैं, जिसकी ताजा मिसाल बलिया के लोकसभा उपचुनाव में बसपा की पराजय है, जिसमें ब्राह्मणों ने आखें दिखा दीं और अपना वोट कांग्रेस या सपा को दे दिया। मायावती ने इस चुनाव में बसपाई ब्राह्मणों के नए ‘अवतार’ सतीश चंद्र मिश्रा सहित सारे छत्रप लगा रखे थे, लेकिन बसपा को उसका कोई भी लाभ नहीं मिला। बसपा सरकार बनने के कुछ ही महीनों में ब्राह्मणों को फिर से विश्वास हो गया है कि देश-प्रदेश में किसी की सरकार बनवाने की चाभी अभी भी उनके पास है, इसलिए उनकी तरफ से अब सवाल शुरू हो गए हैं कि जब उत्तर प्रदेश में उनके समर्थन से मायावती मुख्यमंत्री बनी हैं, तो क्या अब वह किसी ब्राह्मण को प्रधानमंत्री के रूपमें पेश करेंगी? क्योंकि उन्हें यह याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तीन बार बैठाने का श्रेय भी एक ब्राह्मण अटल बिहारी बाजपेयी को जाता है, जिन्होंने मायावती की मुख्यमंत्री की कुर्सी की खातिर उत्तर प्रदेश में भाजपा के बंटाधार हो जाने की भी परवाह नहीं की। उस समय मायावती के एक ही फोन पर बाजपेयी की डाट पड़ने के डर से कोई भी बड़ा या छोटा भाजपाई नेता या कार्यकर्ता मायावती सरकार के विवादास्पद राजनीतिक एजेंडों और मनमाने प्रशासनिक निर्णयों के खिलाफ कभी बोल नहीं पाया। जो बोले भी वे या तो भाजपा से बाहर हो गए या बाहर कर दिए गए। यहां से दिल्ली तक के भाजपा नेताओं के मुंह, उनकी भावनाओं और उनके सम्मान पर ताला लगाए रखा गया था। इस कारण भाजपा आज उत्तर प्रदेश में तड़प-तड़प कर दम तोड़ रही है, इसीलिए मायावती ने बड़े गर्व से अपने ‘सफरनामें’ में कहा है कि ‘भाजपा को खत्म करने की मेरी रणनीति कामयाब रही है।’
मायावती ने अपने लिए एसपीजी सुरक्षा मांगने पर केंद्र सरकार के सामने जो तर्क दिए हैं, उनमें भी अटल बिहारी वाजपेयी सबसे पहले निशाना बने हैं कि ‘जो बूढ़े हो गए हैं, चल-फिर भी नहीं पाते हैं और घर में ही रहते हैं, उन्हें एसपीजी सुरक्षा की क्या जरूरत है।’ इनमें इंद्र कुमार गुजराल और वीपी सिंह भी हैं, जो देश में सोशल इंजीनियरिंग के ‘जनक’ कहलाते हैं। जहां तक मायावती के नए सोशल इंजीनियरिंग अभियान का सवाल है तो वह इसमें वीपी सिंह से बहुत पीछे मानी जाती हैं। मायावती ताज घोटाले के मामले से अभी बरी नहीं हुई हैं। बसपाई वकील और नेता मायावती को क्‍लीन चिट मिलने की अफवाह उड़ा कर भांगड़ा नाचकर मायावती को बड़ा खुश कर रहे थे। उस समय ज्यादातर मीडिया भी यही भाषा बोल रहा था। सच तो यह है कि उनके वकीलों ने अभी भी इस मामले में मायावती को अंधेरे में रखा हुआ है। तथ्य ये हैं कि उप्र की मुख्‍यमंत्री मायावती के खिलाफ ताज कॉरीडोर मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति लेने के लिए सीबीआई, राज्यपाल के पास गई थी, जिसे राज्यपाल ने यह कह कर वापस कर दिया कि इस मामले में मायावती के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं। राज्यपाल के इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जब एक जनहित याचिका दाखिल हुई तो कोर्ट ने उसे यह कहकर खारिज किया कि इस मामले में राज्यपाल से अनुमति की आवश्यकता नहीं है का जो प्रश्न अधिवक्ता यहां उठा रहे हैं तो वह उसे सीबीआई की संबंधित कोर्ट में उठाएं, यदि सीबीआई कोर्ट से समुचित न्याय नहीं मिलता है तो फिर सुप्रीम कोर्ट इसे देखेगा, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व में मायावती के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने का जो आदेश दिया था, वह यथावत है।’
दूसरा तथ्य यह है कि प्रकाश सिंह बादल वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट यह बात साफ-साफ कह चुका है कि किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध भ्रष्टाचार, हत्या इत्यादि अपराधिक मामलों में किसी की भी अनुमति लेना आवश्यक नहीं है, अनुमति की आवश्यकता तब होती है, जब वह कृत्य अपनी वैधानिक जिम्मेदारी के निर्वहन करने में न किया गया हो, जबकि मायावती का मामला भ्रष्टाचार से जुड़ा है। अब यह मामला सीबीआई के हाथ में है, जिसे संबंधित न्यायालय में जाना है। अब सीबीआई सम्बंधित न्यायालय में जा रही है कि नहीं या कब जा रही है, ऐसा करने के लिए उसे ‘किसी’ के इशारेभर की प्रतीक्षा है। मायावती ने ‘पैकेज’ के चक्कर में सोनिया गांधी, कांग्रेस और केंद्र सरकार से पंगा भी ले लिया है। उनको यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि उनके कांग्रेस और सोनिया गांधी से इतनी जल्दी संबंध खराब हो जाएंगे और राष्ट्रपति चुनाव में वोट देने के बदले में उनकी जो ‘शर्त’ मानी गई थी, वह कभी भी टूट सकती है, इसलिए जिस दिन सीबीआई ने ताज कॉरीडोर मामले में अपना कदम आगे बढ़ा दिया, उसी दिन मायावती के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाने का रास्ता खुल जाएगा, इसलिए नए राजनीतिक घटनाक्रम में यह मामला फिर से खुलने के कगार पर आ गया है, जिसके भावी अंजाम से मायावती पूरी तरह से बौखलाई हुई हैं। मायावती पर आय से अधिक संपत्ति के मामले में भी आयकर विभाग का शिकंजा कसता जा रहा है। जिन लोगों ने ड्राफ्ट और चेक से जन्मदिन पर चंदा दिया था, वे भी आयकर विभाग के कानूनी शिकंजे में फंसते जा रहे हैं, जिससे बचने के लिए वे झूठे-सच्चे हलफनामे बनवाते घूम रहे हैं। मायावती का यह तर्क कानून के सामने बेमानी है कि ‘मैं अपने समाज से पैसा लेती हूं तो इससे किसी को क्या मतलब?’ लेकिन इस तर्क को कानून नहीं मानता।
मायावती ने केंद्र पर दबाव बनाने की रणनीति अख्तियार करते हुए सीधे-सीधे कांग्रेस पर ही अपनी हत्या कराने और जेल भेजने की साजिश का आरोप लगा दिया है, ताकि कांग्रेस घबरा कर चुप हो जाए और उनके प्रधानमंत्री बनने तक ताज कॉरीडोर मामला ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहे। सीबीआई अगर न्यायालय में नहीं भी जाती है और इस मामले में फिर से कोई याचिका कोर्ट में दाखिल हो जाती है तो फिर प्रधानमंत्री पद की स्वयंभू दावेदार मायावती के लिए यह अत्यंत मुश्किल भरा समय होगा। अपनी ही रणनीतियों से घिरीं मायावती जैसे-तैसे दबाव की राजनीति पर उतर आई हैं। सारे ही राजनीतिक दल मायावती के बारे में यह धारणा स्‍थापित कर चुके हैं कि वे विश्वसनीय राजनेता नहीं हैं। जिस प्रकार कभी-कभी तीसरे मोर्चे की चर्चा चल पड़ती है, उसमें भी कोई भी मायावती को तीसरे मोर्चे की कमान देने को तैयार नहीं है। सब कहते हैं कि मायावती जब भाजपा का एहसान भूल गईं तो बाकी की बात ही क्या है? मायावती ने देश की प्रधानमंत्री बनने राह में ख़ुद ही कांटे बोये हैं। उनके भ्रष्टाचार जनित कारनामों ने उनको उनके अंजाम तक पहुंचा दिया है, अन्यथा भाजपा ने अपने घर में आग लगाकर मायावती को जो राजनीतिक अवसर दिए हैं उनको पाने के लिए सौ जन्म भी कम हैं। मायावती को आज नहीं तो कल उनकी सच्चाईयां घेरेंगी, जब उनकी शक्तियां ही विपरीत दिशा में चलने लगेंगी और वह समय कोई ज्यादा दूर नहीं लगता है।

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