स्वतंत्र आवाज़
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बासठ साल की आज़ादी और सुलगते सवाल

नंदलाल भारती

नंदलाल भारती

आज़ादी

इतवारी अपने दोनों कंधों पर बच्चों को बैठाए हुए जा रहा है। किसी जानने वाले ने कहा कि कहां जा रहे हो इतवारी, इन राम-लक्ष्मण को अपने कंधों पर बैठाए। इतवारी बोला-‘अरे दूसरे स्कूली बच्चों की देखा-देखी पंद्रह अगस्त के लिए तिरंगे झंडे की ज़िद कर रहे हैं, अड्डे पर कागज़वाला झंडा दिलाने जा रहा हूं, कह रहे हैं हम भी साथ चलेंगे।’ इतवारी अपने बच्चों को अलग-अलग झंडे दिला लाया, पूछा तो बताया कि दो रुपए का एक मिला है। तिरंगे झंडे और देश की चाह के सामने उस समय इस गरीब की गरीबी का चेहरे पर कोई भाव नहीं था, लेकिन हम जैसों के लिए वह एक विचार जरूर छोड़ गया कि आजादी से आज तक बहुत कुछ बदला लेकिन इतवारी वहीं के वहीं हैं। उनकी गरीबी से आज़ादी का नंबर अभी तक नहीं आया? स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस इनके समारोहों में सड़क किनारे खड़े होकर और पुलिसवालों के धकियाने पर भी इतवारी और उनके बच्चे ही खुशी में हाथ में झंडे लहराते हुए समारोह की शोभा बढ़ाते दिखाई देते हैं। कुर्सियां औरों के लिए ही लगाई जाती हैं। उस दिन के जश्‍न  की असली शोभा वही ही होते हैं लेकिन वास्तव में वह जश्‍न  इनके लिए नहीं होता। वह एक रस्म के लिए होता है इसलिए जश्‍न  की रस्म के मुठ्ठीभर बताशे भी कुर्सियों और सोफों पर बैठने वालों को ही मिलते हैं। उस दिन भी अमीरी-गरीबी में बड़ा ही भेदभाव! यह देखकर घर लौटते हुए इतवारी के लिए रास्ते से अपने बच्चों को बताशे या केले जरूर खरीदकर देने होते हैं नहीं तो वह अपने बच्चों के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाएगा कि जब वहां सबको बताशे मिल रहे थे तो हमें क्यों नहीं मिले?
हर साल स्वतंत्रता के जश्‍न के ऐसे आयोजनों की 15 अगस्त या 26 जनवरी को धूम तो दिखाई पड़ती है पर वह वास्तविक धूम नहीं होती, वह रस्म सी दिखाई पड़ती है। गंधाते हुए भाषण और सड़े हुए फल यही सच्चाई है इन आयोजनों की। इसलिए ऐसे आयोजनो का आंतरिक भाव लुप्त होता जा रहा है। सच्ची अनुभूति तो वह होती हैं जो सर्वत्र क्षण महसूस की जा सके। स्वतंत्रता का अनुभव आजादी के इतने सालों के बाद भी आम गरीब जनता शोषित पीड़ित वंचित जनता को तो नहीं हुआ है। इतवारी को भी नहीं हुआ। हो भी कैसे सकता हैं? कितने इतवारी आज भी रोटी-रोजी की तलाश में दर-दर भटकते हैं। जातिवाद, धर्मवाद, महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, सामाजिक, आर्थिक कुव्यवस्था जैसी मुश्किलों से वे वैसे ही जूझ रहे हैं। जब तक ये जूझते रहेंगे तब तक ये खुद को कैसे स्वतंत्र मान लें? आजादी का जश्‍न अलग अनुभूति हैं और सामाजिक, आर्थिक कुव्यवस्था का क्षण-प्रतिक्षण रिसता जख्म एक अलग अनुभूति है। इन दोनों के बीच में पनपे भेद को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक रूप से समझना होगा। नहीं तो आजादी का मतलब इतवारी और उसके बच्चों के लिये कोरा सपना होगा।
आज के प्रगतिशील युग में भी सामाजिक बुराइयां शोषित पीड़ित वंचित जनता के जीवन में काफी दुखदायी हैं। सही मायने में यही बुराइयां ही असली आजादी का एहसास नहीं होने देती हैं। आमजनों की आंखों में चमक देखनी है तो इन बुराइयों से ऊपर उठना होगा। दायित्वों एवं देश धर्म पर खरा उतरना होगा। समानता के भाव को विकसित करना होगा। जातिवाद खत्म करना होगा। गरीबों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराने होंगे। शिक्षा एवं समुचित रोजगार के बंदोबस्त करने होंगे। भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को खेती की जमीन देनी होगी। सत्ताधारियों को बिना किसी भेदभाव के आमजनों की समस्यों का निराकरण करना होगा। तभी आमजनों की आंखों में चमक आ सकेगी। जैसाकि विदित है और दिखता है कि राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। किसान, जूते बनाने वाले, मेहतर और भारत के ऐसे ही निचले वर्गो में ज्यादा काम करने और स्वावलंबन की क्षमता है। ये लोग युग-युग से चुपचाप काम करते आ रहे हैं ये ही इस देश की समस्त संपदा के असली उत्पादक हैं। दुर्भाग्यवश आजाद देश में यही लोग शोषण उत्पीड़न के शिकार हैं और स्वतंत्रता से बहुत दूर पड़े हुए है। इनकी चौखटों पर आज भी भूख लाचारी का रोज ही ताडंव होता है।
हास्यपद स्थिति है कि जिस देश के पढ़े लिखे युवक दुनियां को अपने ज्ञान का लोहा मनवा रहे हैं, जिस देश में उच्च पदों से लेकर अतिनिम्न पदों के लिये शैक्षणिक योग्यता निर्धारित है और उनके रिटायरमेंट की अवधि तक निर्धारित है उस देश में लोकतंत्र के नाम पर अल्पशिक्षित लोग देश के सर्वोच्च पदों तक पहुंच जा रहे हैं। सांसद विधायक बन रहे हैं, कब्र में पैर लटकाए हुए भी मंत्री तक के पदों पर बैठे हैं। क्या यह सर्वसमाज की शिक्षित प्रतिभाओं के साथ छल नहीं? इस अन्याय को न्याय का रूप कौन देगा? क्येकि इस प्रक्रिया में बदलाव सत्तासुख से विमुख कर सकता है और मरने के बाद राजकीय सम्मान के साथ दाह संस्कार की सुविधा में भी अड़चने खड़ी हो सकती हैं। यही तो डर है जो शिक्षित एवं युवा शक्ति की राह का कांटा बना हुआ है। क्या अंर्तरात्मा की दुहाई देने वालों में भी अंर्तरात्मा का संचार है? सच मानिये तभी हमारी आजादी अपने मन्तव्य को पा सकेगी जिस दिन यह मंतव्य पूरा हो गया। उसी दिन भारत विकासशील देशों की प्रथम पंक्ति में खड़ा होगा। इसलिए समर्थ लोग आमजनों की पीड़ा को समझें और उनका आगे बढ़कर निराकरण भी करें।
देखा जा रहा है कि आज भी देश के करोड़ों लोग तरक्की से दूर पड़े, पेट में भूख लिए, क्षेत्रवाद, जातिवाद गरीबी का दंश झेलते हुए उम्मीद कर रहे हैं कि उन्हें वास्तविक आजादी मिलेगी और न्याय उनके दरवाजे तक भी पहुंचेगा। क्या घडियाली आंसूओं, कोरे वादों, नारों या झूंठी शपथ लेने भर से यह संभव हैं?  इसके लिये कथनी और करनी के अंतर को दूर करना होगा। स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। जातिधर्म के दंभ को त्याग कर सिर्फ भारतीय बनना होगा। आज देशवासियों को भारतीय बनना ही नितांत आवश्यक हो गया है। वे भारतीय बनने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। वंचितों गरीबों को तरक्की की राह ले चलना होगा। इसके लिये भले ही खुद के हितों का त्याग करना पड़े। त्याग करने का जज्बा दिखाना होगा। वंचितों पिछड़ों गरीबों सबको साथ लेकर चलना होगा तभी देश की आजादी सार्थक हो सकती है वरना योहिं समर्थ लोग सत्तासुख की भूख में जोड़तोड़ कर सिहांसन पर विराजमान होते रहेंगे और तरूणाई तड़पती रहेगी ।
हम देश की अर्थव्यवस्था पर नजर डालें तो दृष्टिगोचर होता है कि यह कुछ चंद लोगों की मुटठी में कैद है। आम आदमी आश्वासन की खुराक पर जी रहा है। शहीदों के सपने बिखर चुके हैं। सत्ता अपराधियों के कब्जे में जा रही है। विधायिका एवं कार्यपालिका पर अंकुश कसने के लिये न्याय पालिका तो है पर न्याय आज इतना महंगा हो गया है कि आमजन को उपलब्ध नहीं है। नतीजन वह शोषण अत्याचार सहने को मजबूर हैं। पत्रकारिता से उम्मीद थी, अभी भी है और रहेगी भी, पर उसको लेकर भी रह-रहकर उठते सवाल जन समान्य में और अधिक भय पैदा कर देते हैं। भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार के समंदर से समाजवाद रूपी गंगा के निकलने की उम्मीद थी पर वह भी उम्मीद रौंदी जा चुकी है। समाजवाद वोट बटोरने सत्ता सुख भोगने एवं स्वार्थ की भट्टी में आमजन को झोंकने का जरिया बनता नजर आ रहा है। आज आजादी के 62 बरस बाद भी समानता का दीप नहीं जल सका।
जहां तक दलित की प्रगति का सवाल है तो आजादी के बासठ साल बाद भी दलित समाज अपनी तरक्की से बहुत दूर है। सचमुच यह गंभीर चिंतन का विषय है। देश की बड़ी जनसंख्या के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार लोकतंत्र पर आघात है। दुख की बात यह है कि इसमें वो भी शामिल हैं जो खुद दलित हैं और उनकी गरीबी और लाचारी से मुक्ति की लड़ाई लड़ने के दावे करते घूम रहे हैं। आमजनों की आंखों में चमक देखनी है तो कोई तो पहल करनी होगी। आजादी के असली सपने को पूरा करना है तो निजी स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। दायित्वों एवं देश धर्म पर खरा उतरना होगा। यह उनके लिए विशेष रूप से है जो दलित समाज में जन्में हैं और अपने से निचले विपन्न वर्ग की उपेक्षा करते हैं। उन्हें समानता के भाव को प्राथमिकता देकर विकसित करना होगा। जातिवाद खत्म करना होगा। गरीबों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराना होगा। शिक्षा एवं समुचित रोजगार के बंदोबस्त करने होंगे। दलित वंचितों शिक्षितों को सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों में प्राथमिकता के आधार पर रोजगार उपलब्ध कराना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो वंचित दलित शोषित पीड़ित समाज मूलभूत जरूरतों एवं तरक्की से अलग-थलग पड़ा बार बार सवाल करता रहेगा कि आजादी के बीते साठ साल बाद भी हम दलित वंचित कब तक बेहाल रहेंगे।
स्वामी विवेकानंद ने भी आमजनों की दुर्दशा देखकर पीड़ा का एहसास किया था। उन्ही के शब्दों में-जब मैं गरीबों के बारे में सोचता हूं तो मेरा हृदय पीड़ा से कराह उठता है। बचने या ऊपर उठने का उनके पास कोई अवसर नहीं है। वे लोग हर दिन नीचे और नीचे धंसते जाते हैं। वे समाज के वारों को निरंतर झेलते जाते हैं। वे यह भी नहीं जानते कि उन पर कौन वार कर रहा है, कहां से कर रहा है। वे यह भी भूल चुके हैं कि वे स्वयं भी मनुष्‍य हैं। इन सबका परिणाम है गुलामी। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के इतने बरसों के बाद भी गरीब वंचित खेतिहर भूमिहीन मजदूर वही ज़हर आज भी पीने को मजबूर है। हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज भी देश में राष्ट्र क्या है एक दिशाहीन मुद्दा बना हुआ है। यहां के लोग जाति धर्म के नाम से जाने पहचाने जाते हैं।

देश तो बनता है संस्कृति ,परंपराओं और देश के निवासियों की असंदिग्ध निष्ठा से, पर देश के निवासियों में सर्वप्रथम निष्ठा तो जाति धर्म के प्रति प्रतीत होती है। सांस इस देश में भरते है गुणगान विदेश का करते हैं। ये कैसा राष्ट्र प्रेम है? इस मनोदशा को बदलना होगा समृद्धशाली और सामर्थ्यवान भारत की रचना करनी होगी। स्वतंत्र भारत के 62 बरसों के बाद भी गौरवमयी इतिहास पर खून के धब्बे आज भी विराजमान हैं, कुछ कराहते हैं, आज भी जीवनयापन के साथ आत्मसम्मान के लिये संघर्षरत हैं, जिनकी कराह देश की नींद में दाखिल है परंतु सत्ताधीशों की नींद नहीं टूट रही है। भ्रष्टाचार, स्वार्थ, महंगाई, गरीबी जातिवाद धर्मवाद, संघर्षरत् आमजनों भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की दयनीय दशा को देखकर जुबान पर बरबस ही आ जाता है- आम जनता से बहुत दूर है आजादी। बांसठ साल की आजादी के बाद भी सुलगते इन सवालों का समाधान खोजकर लोकतंत्र के पहरेदार अपने दायित्वों पर खरे उतरेंगे और आम जनता आश्वासनों की ऑक्सीजन पर नही बल्कि विकास की राह पर दौड़ेगी। आइए इसकी आशा करें।

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