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Thursday 30 July 2015 09:26:48 AM
नागपुर/ नई दिल्ली। मुंबई धमाकों के पहले दोषी याकूब मेमन को आज सवेरे तय समय के भीतर फांसी दे दी गई। याकूब मेमन का शव परिजनों को सौंपे जाने के बाद एयर एंबुलेंस से मुंबई लाया गया और शाम को कड़ी सुरक्षा के बीच बड़ा कब्रिस्तान में उसके मुस्लिम धर्म के रीति-रिवाज़ के साथ दफन कर दिया गया। फांसी से पूर्व राष्ट्रपति के सामने कल फिर उसके लिए दया की अपील भेजी गई थी, जो गृहमंत्री और एटॉर्नी जनरल से लंबे विचार-विमर्श के बाद खारिज कर दी गई। रात में देश के सामने फिर एक अप्रत्याशित घटनाक्रम सामने आया और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण और कुछ अन्य वरिष्ठ वकील अपनी वरिष्ठता का शोषण करते हुए देश के मुख्य न्यायधीश के आवास पहुंचे और सुप्रीम कोर्ट को फिर भेजी गई याचिका पर तुरंत सुनवाई करते हुए फांसी स्थगित करने की मांग की। मुख्य न्यायधीश ने नैसर्गिक न्याय को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए रात में ही फिर सुप्रीम कोर्ट खुलवाया और उन्हीं जजों की बेंच के सामने विधिवत सुनवाई हुई और सुनवाई के बाद याचिका खारिज कर दी गई। इसके बाद सवेरे तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार याकूब मेमन को फांसी दे दी गई। याकूब मेमन का शव मुंबई लाकर बड़ा कब्रिस्तान में दफना भी दिया गया है। इसी कब्रिस्तान में ही याकूब मेमन के पिता अब्दुल रज्जाक को दफनाया गया था। फांसी सियासत में अब जो हो रहा है, वह इतना शर्मनाक है कि उससे हर किसी को नफरत हो रही है।
याकूब मेमन की फांसी पर इस समय वोट गिने जा रहे हैं। देश के कुछ सियासतदान पूरी बेशर्मी से देश की न्यायिक व्यवस्था को निशाना बना रहे हैं। पूरे देश में कुछ राजनेताओं और वकीलों के खिलाफ गुस्सा भी सामने आ रहा है। जहां तक मीडिया का सवाल है, वह भी उन कुछ लोगों के बयानों पर बहस में उलझा है, जिनके बयानों को यह देश कभी भी गंभीरता से नहीं लेता। चूंकि बहस मीडिया के जरिए हो रही है, इसलिए इसपर राजनीति और फिरकापरस्ती भी चरम पर है। कहते हैं कि जेल में गार्ड से याकूब मेमन ने कहा था कि उसकी फांसी की सजा पर राजनीति हो रही है। इसका यही आशय हो सकता है कि यदि असदउद्दीन ओवैसी और अबु आज़मी जैसे इस पर सियासत नहीं करते तो शायद याकूब मेमन कुछ और दिन ज़िंदा रह सकता था। यहां तो कुछ और ही चल रहा है, जिसमें देश पीछे है और राजनीति उससे आगे है। फांसी पर हद दर्जे की सियासत हो रही है।
आज आपने संसद में कुछ आवाज़ें सुनीं। नारेबाज़ी के रूप में ये वो चेहरे थे, जो देश की धर्मनिर्पेक्षता की आड़ में सांप्रदायिक राजनीति करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे। टीवी चैनलों पर भी कई वो चेहरे दिख थे, केवल देश के ज्वलंत मुद्दों में आग लगाने का ही काम करते हैं जो चैनलों के अनुसार या अपने आकाओं से आदेश लेकर बोलते हैं। ये दिन के उजाले और रात के अंधेरे में अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं। अलग-अलग तरह कृत्य करते हैं और देश को संकट में डालते हैं। आतंकवादी सरगना याकूब मेमन की तरफदारी करने वाले और ऐसी ही विघटनकारी शक्तियों के साथ गठजोड़ स्थापित करके देश में शांति और व्यवस्था को चुनौती देने वाले ये चेहरे आखिर क्या चाहते हैं? कई दिन से देश की जनता इनकी नौटंकी देख रही है। सीधी बात है कि मुसलमान वोटों के लिए इनके खतरनाक गठजोड़ और समर्थन देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन गए हैं। न्याय की निष्पक्षता के नाम पर और अपने को मुसलमानों का खैरख्वां साबित करने के लिए प्रशांत भूषण एंड कंपनी के लोग रात दस बजे याकूब मेमन की फांसी रुकवाने देश के मुख्य न्यायाधीश के आवास के बाहर जमा हो गए? मुख्य न्यायधीश ने भी भारत के नैसर्गिक न्याय की प्रतिष्ठा को अक्षुण रखने के लिए रात में सुप्रीम कोर्ट खुलवाया और मामले की सुनवाई की गई। रिट याचिका में नया कुछ नहीं था, इसलिए खारिज कर दी गई।
सवाल है कि प्रशांत भूषण देश को क्या बताना चाहते थे? वे वकीलों के साथ अपनी मार्केटिंग करने गए थे कि देश के वादकारी उनके पास आएं, क्योंकि वे रात को भी सुप्रीम कोर्ट को जगा सकते हैं। इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए, क्योंकि कुछ वकील ऐसा भी करते हैं। दूसरा सवाल-ऐसा करते हुए इन लोगों ने दुनिया के सामने भारत की न्यायप्रणाली पर उंगुली नहीं उठाई? सारी दुनिया जानती है कि भारत की न्यायप्रणाली दुनिया में सबसे भरोसेमंद और सर्वश्रेष्ठ है। एक और सवाल प्रशांत भूषण जैसे समाजसेवी वकील बीस साल से कहां थे, जब याकूब मेमन को फांसी की सजा सुनाई गई, तब वे बचाव में क्यों नहीं आए? कहां थे? ये वही दलबदलू हैं, जो कभी आम आदमी पार्टी में साजिश रचने का काम करते थे और कभी कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की मांग करते हैं। याकूब मेमन की फांसी पर राजनीति करने में मुस्लिम कट्टरपंथी और भारत के संविधान और भारत में झूंठी आस्था प्रकट करने वाले विघटनकारियों के साथ सांठगाठ करने वाले असदउद्दीन ओवैसी ने जिस तरह याकूब मेमन की तरफदारी शुरू की, उससे उनका देश के गद्दार और देश में सांप्रदायिक कटुता पैदा करने वाला चेहरा फिर बेनकाब हुआ है।
असदउद्दीन ओवैसी से सवाल है कि वह कई दिन से देश के सामने याकूब मेमन के शुभचिंतक और वकील बने हुए हैं तो वह बताएंगे कि पहले दिन फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद से फांसी की तिथि मुकर्रर होने तक वह भी कहां थे? उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को लोकसभा चुनाव में एक भी मुसलमान न जिताने की नसीहत देने वाले असदउद्दीन ओवैसी के भाषण और बयान इतने ज़हरीले हैं कि उनसे देश के आम मुसलमान का शांति से जीना मुश्किल हो गया है। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार में मंत्री और रामपुर में अपनी पार्टी का बेड़ागर्ग करने वाले एवं अपने बयानों से हमेशा सपा सरकार को संकट में डाले रखने वाले मोहम्मद आजम खां का एक दूसरे मामले में ऐसा ही बयान सुनिए-इनका कहना है कि देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम को बचाया जा सकता था, यदि उनको तुरंत बेहतर चिकित्सा दी जाती, जो नहीं दी गई। पूरे देश ने देखा कि देश के भारत रत्न के लिए पूरा देश रो रहा है और उनकी चिकित्सा पर किसी को भी कोई शक नहीं है, लेकिन मोहम्मद आजम खां ने इसको भी हिंदू-मुस्लिम बना डाला और ऐसा शर्मनाक बयान दिया कि सपा उनके बयान को न निगल पा रही है और न ही उगल पा रही है।
याकूब मेमन की फांसी पर सपा के ही नेता कई गंभीर आरोपों से घिरे और तस्कर के रूप में विख्यात मुंबई के अबु आज़मी ने भी ऐसी राजनीति में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होंने भी सांप्रदायिक सोच से मुसलमानों के वोट बटोरने की कोशिश की है। अबु आज़मी को मुंबई का हर शक्स जानता है और समाजवादी पार्टी के ही नेता मोहम्मद आजम खां तो सार्वजनिक मंच से अबु आज़मी के लिए कई बार जो शब्द बोल चुके हैं, उनको यहां लिखा नहीं जा सकता। कांग्रेस के नेता और मध्य प्रदेश की राजनीति से बाहर फेंक दिए गए दिग्विजय सिंह का ट्वीट तो आज सबने देखा ही है? ये अपनी राजनीतिक और सामाजिक उपयोगिता खत्म कर चुके हैं। राजनीति क्षेत्रों में इनके किसी भी बयान को कोई गंभीर से नहीं लेता है। दिग्विजय सिंह कांग्रेस का कोई फायदा नहीं करा सकते, वे जो भी बयान दें, कुछ मीडिया के लोग उनके बयान जरूर वायरल बनाते रहते हैं। आज तो वे घटिया राजनीति पर ही उतर आए हैं। उनका संकट अब यह है कि देश ने उन्हें अस्वीकार कर दिया है।
भारत की फिल्मी दुनिया में भी भारत के गद्दार दाऊद इब्राहिम के पिठ्ठुओं की तरह काम करने वाले कई चेहरे याकूब मेमन की फांसी पर रोते-बिलखते देखे गए हैं। वकील रामजेठमलानी, दोगली नस्ल के महेश भट्ट, सलमान खान और बेपेंदी के शत्रुघ्न सिन्हा, ये वो चेहरे हैं, जो समाज और भारतीय सिनेमा जलील करा रहे हैं, इनमें वो भी हैं, जो भाजपा में घुसपैठ किए बैठे हैं और वो भी हैं, जो मौका पाकर कभी इधर और कभी उधर दिखाई पड़ते हैं। भारत के मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के भी कई लोग विघटनकारियों में शामिल हैं, जो कभी राम पर हमला करते हैं, कभी श्रीकृष्ण पर हमला किया, कभी बनारस पर ज़हर उगला और अब उन्होंने सूर्य को भी नहीं छोड़ा, जिसकी ऊर्जा से इनका भी जीवन चलता है। भारतीय संस्कृति में इनका कोई यकीन ही नहीं है, इनके लीडर अक्सर देश के विघटनकारियों के सुर में सुर मिलाते देखे जाते हैं। आज राज्यसभा में जो हुआ, वह लोकतंत्र के नाम पर विघटनकारियों की काली छाया मानी जा सकती है, समय बहुत बलवान है और ऐसे देशद्रोहियों को किसी न किसी रूप में दंड मिलता रहेगा। समाचार चैनलों को भी तय करना होगा कि उनके लिए देश का कितना महत्व है और वे विचार करें कि पेशेवर पत्रकारिता की सीमाएं कहां तक हैं।
क्या ये सीमाएं देश से ऊपर हैं? अगर नहीं तो रंग-बिरंगी सदरियां पहने चेहरों को पैनल में बैठाकर और उनकी जहरीली बहस को देश को सुनाकर कौन सी पत्रकारिता का दायित्व पूरा कर रहे हैं? ये सरकार से करोड़ों रुपए का विज्ञापन हासिल कर देश के खिलाफ शर्मनाक कृत्यों को महिमामंडित नहीं कर रहे हैं? इस देश के धर्मनिर्पेक्ष स्वरूप की वही व्याख्या सामने आनी चाहिए, जो हमारे संविधान में है और संविधान जिसकी सुरक्षा की गारंटी देता है, लेकिन धर्मनिर्पेक्षता की राजनीतिक या सामाजिक नफा-नुकसान देखकर व्याख्या हो रही है-याकूब मेनन का मामला सामने है। पड़ोसी राष्ट्र नेपाल ने अपने प्रस्तावित संविधान से धर्मनिर्पेक्षता के शब्द को आखिर यूं ही निकाल बाहर नहीं किया है। नेपाल जानता है कि इस शब्द की आड़ में भारत को बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है, इसलिए उसने अपने प्रस्तावित संविधान से धर्मनिर्पेक्षता के शब्द को बाहर कर अपने मूल हिंदू राष्ट्र के स्वरूप को स्थापित किया है। भारत के लिए यह बहुत बड़ी नसीहत है और भारत की एकता और अखंडता इसी पर निर्भर करती है कि उसके धर्मनिर्पेक्ष स्वरूप की कोई और व्याख्या न की जाए, जिसके कारण आज दाऊद इब्राहिम, असदउद्दीन ओवैसी जैसे लोग पैदा हो रहे हैं। धर्मनिर्पेक्षता भारत की एक ताकत है जो मुस्लिम तुष्टिकरण से क्षीण हो रही है। राज्यसभा में आज की कार्रवाई और याकूब मेमन की फांसी पर सियासत ज्वलंत उदाहरण हैं।